भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"क्या थे क्या हो गये। / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
भोर-तारे जो बने थे तेज खो।
+
भोर-तारे जो बने थे तेज खो।
 
+
 
आज वे हैं तेज उन का खो रहे।
 
आज वे हैं तेज उन का खो रहे।
 
 
माँद उन की जोत जगती हो गई।
 
माँद उन की जोत जगती हो गई।
 
 
चाँद जैसे जगमगाती जो रहे।
 
चाँद जैसे जगमगाती जो रहे।
  
 
पालने वाले नहीं अब वे रहे।
 
पालने वाले नहीं अब वे रहे।
 
 
इस लिए अब हम पनप पलते नहीं।
 
इस लिए अब हम पनप पलते नहीं।
 
 
डालियाँ जिनकी फलों से थीं लदी।
 
डालियाँ जिनकी फलों से थीं लदी।
 
 
पेड़ वे अब फूलते फलते नहीं।
 
पेड़ वे अब फूलते फलते नहीं।
  
 
धूल उन की है उड़ाई जा रही।
 
धूल उन की है उड़ाई जा रही।
 
 
धूल में मिल धूल वे हैं फाँकते।
 
धूल में मिल धूल वे हैं फाँकते।
 
 
सब जगत मुँह ताकता जिनका रहा।
 
सब जगत मुँह ताकता जिनका रहा।
 
 
आज वे हैं मुँह पराया ताकते।
 
आज वे हैं मुँह पराया ताकते।
  
चोट पर है चोट चित्ता को लग रही।
+
चोट पर है चोट चित्त को लग रही।
 
+
 
आज उन का मन बहुत ही है मरा।
 
आज उन का मन बहुत ही है मरा।
 
 
धूम जिन का धूम धामों की रही।
 
धूम जिन का धूम धामों की रही।
 
+
धाक से जिन की धसकती थी धरा।
धाक से जिन की धासकती थी धारा।
+
  
 
जो बनाते ही बिगड़तों को रहे।
 
जो बनाते ही बिगड़तों को रहे।
 
 
आप अब वे हैं बिगड़ते जा रहे।
 
आप अब वे हैं बिगड़ते जा रहे।
 
 
रख सके जो लोग मुँह लाली सदा।
 
रख सके जो लोग मुँह लाली सदा।
 
 
आज हैं वे लोग मुँह की खा रहे।
 
आज हैं वे लोग मुँह की खा रहे।
  
 
जातियाँ मुँह जोह जिनका जी सकीं।
 
जातियाँ मुँह जोह जिनका जी सकीं।
 
 
इन दिनों हैं आग वे ही बो रहीं।
 
इन दिनों हैं आग वे ही बो रहीं।
 
 
जग न लेता साँस जिनके सामने।
 
जग न लेता साँस जिनके सामने।
 
 
आज उनकी साँसतें हैं हो रहीं।
 
आज उनकी साँसतें हैं हो रहीं।
  
 
फूल जिन पर था बरसता सब दिनों।
 
फूल जिन पर था बरसता सब दिनों।
 
 
इन दिनों वे धूल से हैं भर रहे।
 
इन दिनों वे धूल से हैं भर रहे।
 
 
राज पाकर राज जो करते रहे।
 
राज पाकर राज जो करते रहे।
 
 
काम अब वे राज का हैं कर रहे।
 
काम अब वे राज का हैं कर रहे।
  
 
मिल रही है न खाट टूटी भी।
 
मिल रही है न खाट टूटी भी।
 
 
चैन बेचैन बन न क्यों खोते।
 
चैन बेचैन बन न क्यों खोते।
 
 
आज हैं फूट फूट रोते वे।
 
आज हैं फूट फूट रोते वे।
 
 
जो रहे फूल-सेज पर सोते।
 
जो रहे फूल-सेज पर सोते।
  
 
बन गये हैं औगुनों की खान वे।
 
बन गये हैं औगुनों की खान वे।
 
 
गुन अनूठे हाथ से छन छन छिने।
 
गुन अनूठे हाथ से छन छन छिने।
 
 
डालते थे जान जो बेजान में।
 
डालते थे जान जो बेजान में।
 
 
आज वे हैं जानवर जाते गिने।
 
आज वे हैं जानवर जाते गिने।
  
 
हैं कलेजा पकड़ पकड़ लेते।
 
हैं कलेजा पकड़ पकड़ लेते।
 
 
औ सका आँख का न आँसू थम।
 
औ सका आँख का न आँसू थम।
 
+
क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता।
क्या कहें वु+छ कहा नहीं जाता।
+
 
+
 
क्या रहे और हो गये क्या हम।
 
क्या रहे और हो गये क्या हम।
 
</poem>
 
</poem>

09:12, 20 मार्च 2014 के समय का अवतरण

भोर-तारे जो बने थे तेज खो।
आज वे हैं तेज उन का खो रहे।
माँद उन की जोत जगती हो गई।
चाँद जैसे जगमगाती जो रहे।

पालने वाले नहीं अब वे रहे।
इस लिए अब हम पनप पलते नहीं।
डालियाँ जिनकी फलों से थीं लदी।
पेड़ वे अब फूलते फलते नहीं।

धूल उन की है उड़ाई जा रही।
धूल में मिल धूल वे हैं फाँकते।
सब जगत मुँह ताकता जिनका रहा।
आज वे हैं मुँह पराया ताकते।

चोट पर है चोट चित्त को लग रही।
आज उन का मन बहुत ही है मरा।
धूम जिन का धूम धामों की रही।
धाक से जिन की धसकती थी धरा।

जो बनाते ही बिगड़तों को रहे।
आप अब वे हैं बिगड़ते जा रहे।
रख सके जो लोग मुँह लाली सदा।
आज हैं वे लोग मुँह की खा रहे।

जातियाँ मुँह जोह जिनका जी सकीं।
इन दिनों हैं आग वे ही बो रहीं।
जग न लेता साँस जिनके सामने।
आज उनकी साँसतें हैं हो रहीं।

फूल जिन पर था बरसता सब दिनों।
इन दिनों वे धूल से हैं भर रहे।
राज पाकर राज जो करते रहे।
काम अब वे राज का हैं कर रहे।

मिल रही है न खाट टूटी भी।
चैन बेचैन बन न क्यों खोते।
आज हैं फूट फूट रोते वे।
जो रहे फूल-सेज पर सोते।

बन गये हैं औगुनों की खान वे।
गुन अनूठे हाथ से छन छन छिने।
डालते थे जान जो बेजान में।
आज वे हैं जानवर जाते गिने।

हैं कलेजा पकड़ पकड़ लेते।
औ सका आँख का न आँसू थम।
क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता।
क्या रहे और हो गये क्या हम।