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"कोर कसर / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

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कोयलों पर हम लगाते हैं मुहर।
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कोयलों पर हम लगाते हैं मुहर।
 
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पर मुहर लुट जा रही है हर घड़ी।
 
पर मुहर लुट जा रही है हर घड़ी।
 
 
मिट गये पर ऐंठ है अब भी बनी।
 
मिट गये पर ऐंठ है अब भी बनी।
 
 
है अजब औंधी हमारी खोपड़ी।
 
है अजब औंधी हमारी खोपड़ी।
  
 
है कहीं रोक थाम का पचड़ा।
 
है कहीं रोक थाम का पचड़ा।
 
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है कहीं काट छाँट का ऊधम।
है कहीं काट छाँट का ऊधाम।
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अब इसे देख हम सकें कैसे।
 
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अब इसे देख हम सकें वै+से।
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हो गया देख देख नाकों दम।
 
हो गया देख देख नाकों दम।
  
 
बात हो काम की बला से हो।
 
बात हो काम की बला से हो।
 
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हैं बड़े बेसुधे कहाँ ऐसे।
हैं बड़े बेसुधो कहाँ ऐसे।
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कान ही जब कि ले गया कौआ।
 
कान ही जब कि ले गया कौआ।
 
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तक उसे कान कर सकें कैसे।
तक उसे कान कर सवें+ वै+से।
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देखता हूँ कि जाति का जौहर।
 
देखता हूँ कि जाति का जौहर।
 
 
है बहा ले चला समय सोता।
 
है बहा ले चला समय सोता।
 
 
लोग होंगे खड़े कमर कस क्या।
 
लोग होंगे खड़े कमर कस क्या।
 
 
कान भी तो खड़ा नहीं होता।
 
कान भी तो खड़ा नहीं होता।
  
 
बार सौ सौ सुना सुना ऊबे।
 
बार सौ सौ सुना सुना ऊबे।
 
 
जाति दुखड़ा सुना नहीं जाता।
 
जाति दुखड़ा सुना नहीं जाता।
 
 
थक गये काढ़ काढ़ने वाले।
 
थक गये काढ़ काढ़ने वाले।
 
 
कान का मैल कढ़ नहीं पाता।
 
कान का मैल कढ़ नहीं पाता।
  
तब भला सूझता हमें वै+से।
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तब भला सूझता हमें कैसे।
 
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आँख में जब कि चुभ गई सूई।
 
आँख में जब कि चुभ गई सूई।
 
 
तब सुनेंगे कही किसी की क्यों।
 
तब सुनेंगे कही किसी की क्यों।
 
 
कान में जब भरी रही रूई।
 
कान में जब भरी रही रूई।
  
 
तब अगर वह उठा उठा तो क्या।
 
तब अगर वह उठा उठा तो क्या।
 
 
यह भला था उमेठना सहता।
 
यह भला था उमेठना सहता।
 
 
जाति की लान तान सुनने को।
 
जाति की लान तान सुनने को।
 
 
कान जब है उठा नहीं रहता।
 
कान जब है उठा नहीं रहता।
  
 
बात सुन बदहवास लोगों की।
 
बात सुन बदहवास लोगों की।
 
 
क्यों भला बदहवास हम होवें।
 
क्यों भला बदहवास हम होवें।
 
 
दौड़ पीछे पड़ें न कौवे के।
 
दौड़ पीछे पड़ें न कौवे के।
 
 
कान अपना न किस लिए टोवें।
 
कान अपना न किस लिए टोवें।
  
 
जाति के लाल जो न लाल बने।
 
जाति के लाल जो न लाल बने।
 
 
औ लिये पाल लाल औ मुनिये।
 
औ लिये पाल लाल औ मुनिये।
 
 
तो खुलेगा न भाग खोले भी।
 
तो खुलेगा न भाग खोले भी।
 
 
बात यह कान खोल कर सुनिये।
 
बात यह कान खोल कर सुनिये।
  
 
दौड़ थी दूर की बहुत लम्बी।
 
दौड़ थी दूर की बहुत लम्बी।
 
 
हम निराली छलाँग भर न सके।
 
हम निराली छलाँग भर न सके।
 
 
नाम के तो रहे बहुत भूखे।
 
नाम के तो रहे बहुत भूखे।
 
 
काम की बात कान कर न सके।
 
काम की बात कान कर न सके।
  
 
वह बचन बात से कहीं तीखा।
 
वह बचन बात से कहीं तीखा।
 
+
बेधता है बिना बिधे ही जो।
बेधाता है बिना बिधो ही जो।
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छिद उठे जो उसे नहीं सुन कर।
 
छिद उठे जो उसे नहीं सुन कर।
 
 
कान में छेद ही नहीं है तो।
 
कान में छेद ही नहीं है तो।
  
 
जब कि जीवट गई रसातल को।
 
जब कि जीवट गई रसातल को।
 
 
आप ही सोचिये रहा तब क्या।
 
आप ही सोचिये रहा तब क्या।
 
 
जब खुले आम कह नहीं सकते।
 
जब खुले आम कह नहीं सकते।
 
+
कुछ दबी जीभ से कहा तब क्या।
वु+छ दबी जीभ से कहा तब क्या।
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क्यों रहेगी जाति जीती जागती।
 
क्यों रहेगी जाति जीती जागती।
 
 
जब घड़ी है मेल की ही टल रही।
 
जब घड़ी है मेल की ही टल रही।
 
 
ठीक नाड़ी है न चलती बूझ की।
 
ठीक नाड़ी है न चलती बूझ की।
 
 
सूझ की ही साँस जब है चल रही।
 
सूझ की ही साँस जब है चल रही।
  
 
जान ही जब नहीं किसी में है।
 
जान ही जब नहीं किसी में है।
 
 
तब भला मान क्यों रहे मन में।
 
तब भला मान क्यों रहे मन में।
 
 
किस तरह साँस ले भला कोई।
 
किस तरह साँस ले भला कोई।
 
 
साँस ही जब रही नहीं तन में।
 
साँस ही जब रही नहीं तन में।
  
 
जाति के हित के लिए कस कर कमर।
 
जाति के हित के लिए कस कर कमर।
 
 
भूल कोई किस लिए जाता रहा।
 
भूल कोई किस लिए जाता रहा।
 
 
मुँह दिखायेगा भला तब किस तरह।
 
मुँह दिखायेगा भला तब किस तरह।
 
 
साँस तक भी जो नहीं नाता रहा।
 
साँस तक भी जो नहीं नाता रहा।
  
 
बैर जैसे बड़े लड़ाके को।
 
बैर जैसे बड़े लड़ाके को।
 
+
प्रीति कैसे पछाड़ तब पाती।
प्रीति वै+से पछाड़ तब पाती।
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पाँव अनबन उखाड़ देने में।
 
पाँव अनबन उखाड़ देने में।
 
 
साँस जब थी उखड़ उखड़ जाती।
 
साँस जब थी उखड़ उखड़ जाती।
  
 
जाय जुआ बुरा उतर जिससे।
 
जाय जुआ बुरा उतर जिससे।
 
+
जो न करते रहे वही धंधे।
जो न करते रहे वही धांधो।
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तो हमें बैल ही बनाते हैं।
 
तो हमें बैल ही बनाते हैं।
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बैल कैसे उठे उठे कंधे।
  
बैल वै+से उठे उठे कंधो।
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वह सुधरता तो सुधरता किस तरह।
 
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देश की सुध ही नहीं जब ली गई।
वह सुधारता तो सुधारता किस तरह।
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जातिहित की बात जब कैसे सुनें।
 
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देश की सुधा ही नहीं जब ली गई।
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जातिहित की बात जब वै+से सुनें।
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कान में जब डाल उँगली दी गई।
 
कान में जब डाल उँगली दी गई।
  
 
जो हथेली पर लिये ही सिर फिरे।
 
जो हथेली पर लिये ही सिर फिरे।
 
 
टालने को जाति के सिर की बला।
 
टालने को जाति के सिर की बला।
 
 
देख उन पर दाँत हम को पीसते।
 
देख उन पर दाँत हम को पीसते।
 
 
कौन दाँतों में न उँगली दे चला।
 
कौन दाँतों में न उँगली दे चला।
  
तब नहीं वै+से हमारी गत बने।
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तब नहीं कैसे हमारी गत बने।
 
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जब कि गत हम आप बनवाते रहे।
 
जब कि गत हम आप बनवाते रहे।
 
 
पत रहे तो किस तरह से पत रहे।
 
पत रहे तो किस तरह से पत रहे।
 
 
जब चपत हर बात में खाते रहे।
 
जब चपत हर बात में खाते रहे।
  
 
साँसतें तब क्यों नहीं सहनी पड़ें।
 
साँसतें तब क्यों नहीं सहनी पड़ें।
 
 
जब उन्हें चुपचाप हम ने हैं सहे।
 
जब उन्हें चुपचाप हम ने हैं सहे।
 
+
हाथ कैसे तब न बाँधे जाएँगे।
हाथ वै+से तब न बाँधो जाँयगे।
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जब खड़े हम हाथ बाँधे ही रहे।
 
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जब खड़े हम हाथ बाँधो ही रहे।
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तब न मनमानियाँ सहेंगे क्यों।
 
तब न मनमानियाँ सहेंगे क्यों।
 
 
हाथ में जब कि मन मरे के हैं।
 
हाथ में जब कि मन मरे के हैं।
 
 
तब न बेकार जाँयगे बन क्यों।
 
तब न बेकार जाँयगे बन क्यों।
 
 
जब बिके हाथ दूसरे के हैं।
 
जब बिके हाथ दूसरे के हैं।
  
हो सके दुख-सवाल हल वै+से।
+
हो सके दुख-सवाल हल कैसे।
 
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है अगर छूटता न छल मेरा।
 
है अगर छूटता न छल मेरा।
 
 
देख कर जाति को दहल जाते।
 
देख कर जाति को दहल जाते।
 
 
कब कलेजा गया दहल मेरा।
 
कब कलेजा गया दहल मेरा।
  
 
रंग उड़ जाय क्यों न सुख-मुख का।
 
रंग उड़ जाय क्यों न सुख-मुख का।
 
 
क्यों फरेरा उड़े न दुख तेरा।
 
क्यों फरेरा उड़े न दुख तेरा।
 
 
बेतरह जाति जी उड़ा देखे।
 
बेतरह जाति जी उड़ा देखे।
 
 
जो कलेजा उड़ा नहीं मेरा।
 
जो कलेजा उड़ा नहीं मेरा।
  
तब दुखी-जाति-दुख टले वै+से।
+
तब दुखी-जाति-दुख टले कैसे।
 
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जब न दुख देख झोंक से झपटे।
 
जब न दुख देख झोंक से झपटे।
 
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जान बेजान में पड़े कैसे।
जान बेजान में पड़े वै+से।
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जब दिलोजन से नहीं लपटे।
 
जब दिलोजन से नहीं लपटे।
  
 
तोड़ लाते उचक तरैया को।
 
तोड़ लाते उचक तरैया को।
 
 
औ घड़े में समुद्र को भरते।
 
औ घड़े में समुद्र को भरते।
 
 
कौन सा काम कर नहीं पाते।
 
कौन सा काम कर नहीं पाते।
 
 
हम दिलोजान से अगर करते।
 
हम दिलोजान से अगर करते।
  
 
देस को देख कर फला फूला।
 
देस को देख कर फला फूला।
 
 
कब खिला फूल की तरह मुखड़ा।
 
कब खिला फूल की तरह मुखड़ा।
 
 
जाति को कब हरा भरा पाकर।
 
जाति को कब हरा भरा पाकर।
 
 
दिल हमारा उमड़ उमड़ उमड़ा।
 
दिल हमारा उमड़ उमड़ उमड़ा।
  
 
जान पर खेल जो नहीं जाते।
 
जान पर खेल जो नहीं जाते।
 
 
किस तरह नोंक झोंक तो निपटे।
 
किस तरह नोंक झोंक तो निपटे।
 
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छूटती जाति-जान तो कैसे।
छूटती जाति-जान तो वै+से।
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लोग जी जान से न जो लिपटे।
 
लोग जी जान से न जो लिपटे।
  
 
किस तरह कामयाब तो बनते।
 
किस तरह कामयाब तो बनते।
 
 
किस तरह हों निहाल, भाग जगे।
 
किस तरह हों निहाल, भाग जगे।
 
 
लाग के साथ काम करने में।
 
लाग के साथ काम करने में।
 
 
लोग जी जान से अगर न लगे।
 
लोग जी जान से अगर न लगे।
  
साधाते साधाते गये थक हम।
+
साधते साधते गये थक हम।
 
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जातिहित साधना मगर न सधी।
जातिहित साधाना मगर न सधी।
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बाँधते बाँधते जनम बीता।
 
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बाँधाते बाँधाते जनम बीता।
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देसहित के लिए कमर न बँधी।
 
देसहित के लिए कमर न बँधी।
  
 
क्यों खटकते हमें बुरे काँटे।
 
क्यों खटकते हमें बुरे काँटे।
 
+
क्यों लगे चाट गाँठ को खोते।
क्यों लगे चाट गाँठ का खोते।
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सब बुरी हाट ठाट बाटों से।
 
सब बुरी हाट ठाट बाटों से।
 
 
पाँव मेरे अगर हटे होते।
 
पाँव मेरे अगर हटे होते।
  
 
देख ऊँचे समाज को चढ़ते।
 
देख ऊँचे समाज को चढ़ते।
 
 
हैं हमीें आँख मीचने वाले।
 
हैं हमीें आँख मीचने वाले।
 
 
पड़ बुरी खींचतान पचड़ों में।
 
पड़ बुरी खींचतान पचड़ों में।
 
 
हैं हमीें पाँव खींचने वाले।
 
हैं हमीें पाँव खींचने वाले।
  
 
तो पड़े क्यों पहाड़ सिर पर गिर।
 
तो पड़े क्यों पहाड़ सिर पर गिर।
 
 
नँह अगर दुख रहे सुखी के हों।
 
नँह अगर दुख रहे सुखी के हों।
 
 
किस लिए तो हमें न, दुख भी हो।
 
किस लिए तो हमें न, दुख भी हो।
 
 
पाँव दुखते अगर दुखी के हों।
 
पाँव दुखते अगर दुखी के हों।
  
 
हैं गये तन बिन बहुत, सब छिन गया।
 
हैं गये तन बिन बहुत, सब छिन गया।
 
 
लोग काँटे हैं घरों में बो रहे।
 
लोग काँटे हैं घरों में बो रहे।
 
 
है मुसीबत का नगारा बज रहा।
 
है मुसीबत का नगारा बज रहा।
 
 
पाँव पर रख पाँव हम हैं सो रहे।
 
पाँव पर रख पाँव हम हैं सो रहे।
  
 
भर गया पोर पोर में औगुन।
 
भर गया पोर पोर में औगुन।
 
 
नाम हम में न रह गया गुन का।
 
नाम हम में न रह गया गुन का।
 
 
जो गला चाँप चाँप देते हैं।
 
जो गला चाँप चाँप देते हैं।
 
 
पाँव हम चाँप हैं रहे उन का।
 
पाँव हम चाँप हैं रहे उन का।
  
 
कर सके देस जाति का न भला।
 
कर सके देस जाति का न भला।
 
 
चल भले भाव के भले रथ में।
 
चल भले भाव के भले रथ में।
 
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तज धरम के धुरे अधर्मीं बन।
तज धारम के धुरे अधार्मीं बन।
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पाँव है धर रहे बुरे पथ में।
 
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पाँव है धार रहे बुरे पथ में।
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15:34, 22 मार्च 2014 के समय का अवतरण

कोयलों पर हम लगाते हैं मुहर।
पर मुहर लुट जा रही है हर घड़ी।
मिट गये पर ऐंठ है अब भी बनी।
है अजब औंधी हमारी खोपड़ी।

है कहीं रोक थाम का पचड़ा।
है कहीं काट छाँट का ऊधम।
अब इसे देख हम सकें कैसे।
हो गया देख देख नाकों दम।

बात हो काम की बला से हो।
हैं बड़े बेसुधे कहाँ ऐसे।
कान ही जब कि ले गया कौआ।
तक उसे कान कर सकें कैसे।

देखता हूँ कि जाति का जौहर।
है बहा ले चला समय सोता।
लोग होंगे खड़े कमर कस क्या।
कान भी तो खड़ा नहीं होता।

बार सौ सौ सुना सुना ऊबे।
जाति दुखड़ा सुना नहीं जाता।
थक गये काढ़ काढ़ने वाले।
कान का मैल कढ़ नहीं पाता।

तब भला सूझता हमें कैसे।
आँख में जब कि चुभ गई सूई।
तब सुनेंगे कही किसी की क्यों।
कान में जब भरी रही रूई।

तब अगर वह उठा उठा तो क्या।
यह भला था उमेठना सहता।
जाति की लान तान सुनने को।
कान जब है उठा नहीं रहता।

बात सुन बदहवास लोगों की।
क्यों भला बदहवास हम होवें।
दौड़ पीछे पड़ें न कौवे के।
कान अपना न किस लिए टोवें।

जाति के लाल जो न लाल बने।
औ लिये पाल लाल औ मुनिये।
तो खुलेगा न भाग खोले भी।
बात यह कान खोल कर सुनिये।

दौड़ थी दूर की बहुत लम्बी।
हम निराली छलाँग भर न सके।
नाम के तो रहे बहुत भूखे।
काम की बात कान कर न सके।

वह बचन बात से कहीं तीखा।
बेधता है बिना बिधे ही जो।
छिद उठे जो उसे नहीं सुन कर।
कान में छेद ही नहीं है तो।

जब कि जीवट गई रसातल को।
आप ही सोचिये रहा तब क्या।
जब खुले आम कह नहीं सकते।
कुछ दबी जीभ से कहा तब क्या।

क्यों रहेगी जाति जीती जागती।
जब घड़ी है मेल की ही टल रही।
ठीक नाड़ी है न चलती बूझ की।
सूझ की ही साँस जब है चल रही।

जान ही जब नहीं किसी में है।
तब भला मान क्यों रहे मन में।
किस तरह साँस ले भला कोई।
साँस ही जब रही नहीं तन में।

जाति के हित के लिए कस कर कमर।
भूल कोई किस लिए जाता रहा।
मुँह दिखायेगा भला तब किस तरह।
साँस तक भी जो नहीं नाता रहा।

बैर जैसे बड़े लड़ाके को।
प्रीति कैसे पछाड़ तब पाती।
पाँव अनबन उखाड़ देने में।
साँस जब थी उखड़ उखड़ जाती।

जाय जुआ बुरा उतर जिससे।
जो न करते रहे वही धंधे।
तो हमें बैल ही बनाते हैं।
बैल कैसे उठे उठे कंधे।

वह सुधरता तो सुधरता किस तरह।
देश की सुध ही नहीं जब ली गई।
जातिहित की बात जब कैसे सुनें।
कान में जब डाल उँगली दी गई।

जो हथेली पर लिये ही सिर फिरे।
टालने को जाति के सिर की बला।
देख उन पर दाँत हम को पीसते।
कौन दाँतों में न उँगली दे चला।

तब नहीं कैसे हमारी गत बने।
जब कि गत हम आप बनवाते रहे।
पत रहे तो किस तरह से पत रहे।
जब चपत हर बात में खाते रहे।

साँसतें तब क्यों नहीं सहनी पड़ें।
जब उन्हें चुपचाप हम ने हैं सहे।
हाथ कैसे तब न बाँधे जाएँगे।
जब खड़े हम हाथ बाँधे ही रहे।

तब न मनमानियाँ सहेंगे क्यों।
हाथ में जब कि मन मरे के हैं।
तब न बेकार जाँयगे बन क्यों।
जब बिके हाथ दूसरे के हैं।

हो सके दुख-सवाल हल कैसे।
है अगर छूटता न छल मेरा।
देख कर जाति को दहल जाते।
कब कलेजा गया दहल मेरा।

रंग उड़ जाय क्यों न सुख-मुख का।
क्यों फरेरा उड़े न दुख तेरा।
बेतरह जाति जी उड़ा देखे।
जो कलेजा उड़ा नहीं मेरा।

तब दुखी-जाति-दुख टले कैसे।
जब न दुख देख झोंक से झपटे।
जान बेजान में पड़े कैसे।
जब दिलोजन से नहीं लपटे।

तोड़ लाते उचक तरैया को।
औ घड़े में समुद्र को भरते।
कौन सा काम कर नहीं पाते।
हम दिलोजान से अगर करते।

देस को देख कर फला फूला।
कब खिला फूल की तरह मुखड़ा।
जाति को कब हरा भरा पाकर।
दिल हमारा उमड़ उमड़ उमड़ा।

जान पर खेल जो नहीं जाते।
किस तरह नोंक झोंक तो निपटे।
छूटती जाति-जान तो कैसे।
लोग जी जान से न जो लिपटे।

किस तरह कामयाब तो बनते।
किस तरह हों निहाल, भाग जगे।
लाग के साथ काम करने में।
लोग जी जान से अगर न लगे।

साधते साधते गये थक हम।
जातिहित साधना मगर न सधी।
बाँधते बाँधते जनम बीता।
देसहित के लिए कमर न बँधी।

क्यों खटकते हमें बुरे काँटे।
क्यों लगे चाट गाँठ को खोते।
सब बुरी हाट ठाट बाटों से।
पाँव मेरे अगर हटे होते।

देख ऊँचे समाज को चढ़ते।
हैं हमीें आँख मीचने वाले।
पड़ बुरी खींचतान पचड़ों में।
हैं हमीें पाँव खींचने वाले।

तो पड़े क्यों पहाड़ सिर पर गिर।
नँह अगर दुख रहे सुखी के हों।
किस लिए तो हमें न, दुख भी हो।
पाँव दुखते अगर दुखी के हों।

हैं गये तन बिन बहुत, सब छिन गया।
लोग काँटे हैं घरों में बो रहे।
है मुसीबत का नगारा बज रहा।
पाँव पर रख पाँव हम हैं सो रहे।

भर गया पोर पोर में औगुन।
नाम हम में न रह गया गुन का।
जो गला चाँप चाँप देते हैं।
पाँव हम चाँप हैं रहे उन का।

कर सके देस जाति का न भला।
चल भले भाव के भले रथ में।
तज धरम के धुरे अधर्मीं बन।
पाँव है धर रहे बुरे पथ में।