भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"यह चमक ज़ख़्मे-सर से आई है / मुज़फ़्फ़र हनफ़ी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुज़फ़्फ़र हनफ़ी |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
छो |
||
पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
सारी ख़ुशबू उधर से आई है | सारी ख़ुशबू उधर से आई है | ||
− | + | साँस लेने दो कुछ हवा को भी | |
थकी हारी सफ़र से आई है | थकी हारी सफ़र से आई है | ||
08:52, 24 मार्च 2014 के समय का अवतरण
यह चमक ज़ख़्मे-सर से आई है
या तिरे संगे-दर से आई है
रंग जितने हैं उस गली के हैं
सारी ख़ुशबू उधर से आई है
साँस लेने दो कुछ हवा को भी
थकी हारी सफ़र से आई है
देना होगा ख़िराज ज़ुल्मत को
रौशनी सब के घर से आई है
नींद को लौट कर नहीं जाना
रूठकर चश्मे-तर से आई है
आपको क्या खबर कि शे’रों में
सादगी किस हुनर से आई है