भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"समझौता / हरीसिंह पाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीसिंह पाल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

13:26, 21 अप्रैल 2014 के समय का अवतरण

समझौता
आज हो या कल
करना ही पड़ता है
सिर झुकाना ही पड़ता है आज हो या कल।
कब तक बचेंगे, कब तक छिपेंगे
टकराना पड़ेगा, जब यथार्थ से।
झुक जाएंगे या झुका ही लेंगे
टूट जाएंगे या तोड़ ही देंगे
वक्त की पुकार पर चलना ही पड़ेगा।
सुनाया है किसी को तो
सुनना ही पड़ेगा।
रुलाया है किसी को तो
रोना भी पड़ेगा।
हमें कोई जानता नहीं?
कोई तो हमें जान ही लेगा।
किसी ने हमें देखा नहीं?
कोई तो हमें देख ही लेगा
फिर? फिर?
समझौता करना ही पड़ेगा
उससे नहीं तो किसी और से
और नहीं तो प्रकृति से
तब दर्प टूट जाएंगे, दम्भ मिट जाएंगे
हम हैं क्या आखिर कच्ची मिट्टी के बने घड़े ही न?
समझौते से आखिर कब तक बचेंगे
कभी-न-कभी तो किसी-न-किसी से
करना ही पड़ेगा
समझौता।