भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ग़ायब होती एक तस्वीर / विपिन चौधरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विपिन चौधरी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCa...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

13:38, 22 अप्रैल 2014 के समय का अवतरण

जब कभी
मुलाक़ात का एक सिरा थाम कर
तुम्हारी ओर आने की भरपूर कोशिश की
तब भ्रम का जाल इतनी दूर तक
फैला हुआ मिला
उसमें तुम्हारी तस्वीर
धुँधली और धुँधली
होती चली गई
अंत में हुआ यह की
तुम तस्वीर से ग़ायब हो गए।
फिर जब भी पाँव हरकत में आए
तो तुम्हारी तरफ़ की सभी
पगडंडियाँ फिसलन भरी
लंबी और दुरूह थी कि
कदम रखने के सारे प्रयास विफल हो गए।
हँसती हुई छवि तुम्हारी
समा गई
दीपक की उदास पीली लौ में।
मेंरे बस में हमेशा की तरह कुछ नहीं था
मैंने देखा,
सपनों का मुरझा जाना
खुशबुओं का अपने पुराने रास्ते को बदल लेना।
जीवन राग का वो सभी धुनों का भूल जाना
जिनके भरोसे
इसी दुनिया में एक दुसरी
समानांतर दुनिया बसाई जाती है।