"व्यक्त प्रेम / रवीन्द्रनाथ ठाकुर" के अवतरणों में अंतर
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− | तुम क्यों इस अभागिनी के गोपन ह्रदय में आ पड़े ? | + | तुम क्यों इस अभागिनी के गोपन ह्रदय में आ पड़े? |
− | सोचकर देखो तुम मुझे कहाँ ले आये हो ? | + | सोचकर देखो तुम मुझे कहाँ ले आये हो? |
उत्सुकता से क्रूर पृथ्वी की करोड़ों आँखें | उत्सुकता से क्रूर पृथ्वी की करोड़ों आँखें | ||
नग्न कलंक की ओर देखती रहेंगी. | नग्न कलंक की ओर देखती रहेंगी. | ||
यदि, अन्त में, प्रेम भी लौटा लेना था, | यदि, अन्त में, प्रेम भी लौटा लेना था, | ||
− | तो मेरी लज्जा का हरण क्यों किया ? | + | तो मेरी लज्जा का हरण क्यों किया? |
इस विशाल विश्व में मुझे निर्वसन वेश में | इस विशाल विश्व में मुझे निर्वसन वेश में | ||
− | अकेली क्यों छोड़ दिया ? | + | अकेली क्यों छोड़ दिया? |
२४ मई १८८८ | २४ मई १८८८ |
08:26, 7 मई 2014 के समय का अवतरण
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तब लज्जा का आवरण क्यों छीन लिया?
द्वार तोडकर ह्रदय को बाहर खींच लाए;
रास्ते के बीच में आकर आखिर उसे छोड़ दोगे क्या?
अपने भीतर मैं अपने को ही लेकर बैठी थी;
सबके बीच, संसार के शत कर्मों में निरत
जैसे सब थे, मैं भी वैसी ही थी.
जब मैं पूजा का फूल चुनने को जाती--
उस छायामय पथ पर,उस लतापूर्ण घेरे में,
सरसी के उस तट पर जहाँ कनेर का वन है--
तब शिरीष की डाल पर कोकिल कूजन करते;
भोर-भोर सखियों का मेला लगता,
कितनी हँसी उठती, कितने खेल होते.
किन्तु, कौन जनता था की प्राणों की आड़ में
छिपा हुआ क्या है ?
वसन्त के आने पर वन की बेला खिल उठता.
कोई सखी माला पहनती, कोई डाली भर लेती,
दक्षिणी पवन उनके अंचल को अस्त-व्यस्त कर देता.
वर्षा की घनघोर घटा में बिजली खेल करती,
मैदान के छोर पर बादल और वन एकाकार हो जाते,
संध्या के समय जुही के फूल खिलने लगते.
वर्ष आते और चले जाते, मैं गृहकर्म में लगी रहती,
सुख और दुःख का भाग लेकर प्रतिदिन का समय चला जाता
और रात गोपन स्वप्नों को लेकर चली जाती थी.
प्राणों में छिपा हुआ प्रेम कितना पवित्र होता है !
हृदय की अंधकार में वह माणिक्य के समान जलता है,
किन्तु, प्रकाश में वह काले कलंक के समान दिखाई देता है.
छिः,छिः ! तुमने नारी ह्रदय को तोडकर देखा ?
आर्त्त प्रेम लज्जा और भय से थर-थर काँप रहा है;
निर्दय ! तुमने उसके छिपने का स्थान छीन लिया.
आज भी तो वही वसन्त, वही शरत् आता है,
चम्पा को टेढ़ी-मेढ़ी डाल पर स्वर्ण-पुष्प खिलते हैं,
और उसी छायामय पथ से आकर वे ही सखियाँ उन्हें चुनती हैं.
सब जैसे थे,आज भी ठीक वैसे हीं है.
वे वैसे ही रोते हैं,हंसते हैं काम करते और प्रेम करते हैं,
पूजा करते और दीप जलते हैं तथा अर्घ्य का जल ले आते हैं.
उनके प्राणों के भीतर तो कोई झांकी नहीं मरता;
उनके ह्रदय के गुप्त गृह को तो कोई तोड़ कर नहीं देखता.
अपने ह्रदय को वे खुद भी नाही जानती.
मैं छिन्न पुष्प के समान राजपथ पर पड़ी हूँ;
पल्लव का छाया-स्निग्ध चिकना आवरण छोडकर
धूल में लोट रही हूँ.
मेरी व्यथासे नितांत व्यथित हो तुम मुझे स्नेह देकर
अपने ह्रदय में मेरे लिये यत्नपूर्वक चिरकालिक आश्रय रच दोगे,
यही आशा लेकर अपने ह्रदय को
तुम्हारे सामने नग्न कर दिया था.
सखे, आज क्या बोलकर तुम मुँह फिरा रहे हो?
यहाँ तुम भूल से आये थे! भूल से ही तुम प्रेम कर बैठे?
और अब प्रेम टूट गया, इसी से चले जा रहे हो?
आज या कल तुम तो लौट जाओगे,
किन्तु, मेरे लौटने की राह तुमने नहीं छोड़ी
जिसकी ओट लेकर प्राण छिपे थे,
तुमने उसी आवरण को धूल में मिला दिया.
यह कितनी निदारुण भूल है!
विश्व-निलय के शत्-शत् प्राणों को छोड़कर
तुम क्यों इस अभागिनी के गोपन ह्रदय में आ पड़े?
सोचकर देखो तुम मुझे कहाँ ले आये हो?
उत्सुकता से क्रूर पृथ्वी की करोड़ों आँखें
नग्न कलंक की ओर देखती रहेंगी.
यदि, अन्त में, प्रेम भी लौटा लेना था,
तो मेरी लज्जा का हरण क्यों किया?
इस विशाल विश्व में मुझे निर्वसन वेश में
अकेली क्यों छोड़ दिया?
२४ मई १८८८