{{KKRachna
|रचनाकार=कैफ़ी आज़मी
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राम बनवास से लौटकर जब लौटकर घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसम्बर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये
पांव धर्म क्या उनका है, क्या जात है ये जानता कौनघर ना जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौनघर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आये शाकाहारी हैं मेरे दोस्त, तुम्हारे ख़ंजरतुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थरहै मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो सर में आये पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थेकि नज़र आये वहां खून वहाँ ख़ून के गहरे धब्बेपांव पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फज़ा आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे
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