भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मानव-दानव-गाय-सिंह-करि-काक-मोर बन / हनुमानप्रसाद पोद्दार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
कितने रूपों में वे प्रियतम आते नित्य हमारे पास। | कितने रूपों में वे प्रियतम आते नित्य हमारे पास। | ||
देते कभी स्नेह-वत्सलता, देते कभी भयानक त्रास॥ | देते कभी स्नेह-वत्सलता, देते कभी भयानक त्रास॥ | ||
− | + | प्रियतम को पहचान सभी में, करें सभीका नित सत्कार। | |
उनके सुख-प्रीत्यर्थ करें हम यथायोग्य सारे व्यवहार॥ | उनके सुख-प्रीत्यर्थ करें हम यथायोग्य सारे व्यवहार॥ | ||
− | </poem | + | </poem> |
21:06, 8 जून 2014 के समय का अवतरण
हिन्दी शब्दों के अर्थ उपलब्ध हैं। शब्द पर डबल क्लिक करें। अन्य शब्दों पर कार्य जारी है।
(तर्ज लावनी-ताल कहरवा)
मानव-दानव-गाय-सिंह-करि-काक-मोर बन सुमन-सुगन्ध।
माता-पिता-पुत्र-पति-पत्नी, निज-पर-जोड़ विविध सबन्ध॥
कितने रूपों में वे प्रियतम आते नित्य हमारे पास।
देते कभी स्नेह-वत्सलता, देते कभी भयानक त्रास॥
प्रियतम को पहचान सभी में, करें सभीका नित सत्कार।
उनके सुख-प्रीत्यर्थ करें हम यथायोग्य सारे व्यवहार॥