भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"क्यों जुबां पर मेरी आ गयी हैं प्रिये / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
SATISH SHUKLA (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब' | संग्रह = }} {{KKCatGha...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
SATISH SHUKLA (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
<poem> | <poem> | ||
क्यों जुबां पर मेरी आ गयी हैं प्रिये | क्यों जुबां पर मेरी आ गयी हैं प्रिये | ||
− | थीं छुपानी जो बातें कही हैं प्रिये | + | थीं छुपानी जो बातें, कही हैं प्रिये |
तेरी आमद से गुलशन महकने लगा | तेरी आमद से गुलशन महकने लगा | ||
पंक्ति 24: | पंक्ति 24: | ||
दास्तानें कई अनकही हैं प्रिये | दास्तानें कई अनकही हैं प्रिये | ||
− | + | दौरे माज़ी की बातें भुला दे 'रक़ीब' | |
− | + | अब तलक दिल में जितनी बची हैं प्रिये | |
</poem> | </poem> |
17:36, 30 जून 2014 का अवतरण
क्यों जुबां पर मेरी आ गयी हैं प्रिये
थीं छुपानी जो बातें, कही हैं प्रिये
तेरी आमद से गुलशन महकने लगा
कलियाँ हर शाख़ की खिल उठी हैं प्रिये
मेरे जीवन में खुशियाँ तेरे संग ही
देखते-देखते आ गयी हैं प्रिये
यक-ब-यक बज़्म में आपको देखकर
सब की नज़रें उठी की उठी हैं प्रिये
ग़म नहीं दर खुले न खुले अब कोई
शुक्र है, खिड़कियाँ तो खुली हैं प्रिये
आँसुओं की लगा दी अभी से झड़ी
दास्तानें कई अनकही हैं प्रिये
दौरे माज़ी की बातें भुला दे 'रक़ीब'
अब तलक दिल में जितनी बची हैं प्रिये