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गधा पड़ा था, जान न थी । मालिक उदास था ।
 
गधा पड़ा था, जान न थी । मालिक उदास था ।

19:21, 5 जनवरी 2008 के समय का अवतरण

गधा पड़ा था, जान न थी । मालिक उदास था ।

लोथ देखते मुझ से बोला, बड़ा भला था

बेचारा ! इसका दम रहते, काम चला था

अपना अच्छी तरह । लगा, ग़म उसे ख़ास था ।


समझाने के लिए कहा मैंने, ले लेना

कोई और । जानता था मैं भी । पैसे हैं,

नया ले सकेगा । उसाँस बोला, कैसे हैं

आप ? नयों को नहीं जानते, खूँटा देना


इन्हें सरल है, ये कब उसे उखाड़ कर भगे

और कहीं मुँह मारा । आप सोचिए आगे,

क्या क्या हो सकता है, उसी समय यदि जागे

कहीं खेत वाला तो आग और भी सुलगे ।


यह अपने कहने में था । डंडे टूटेंगे

किसी नए पर, और तीर मुझ पर छूटेंगे ।