"अमृता प्रीतम / परिचय" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
[http://www.gadyakosh.org गद्यकोश ]से साभार | [http://www.gadyakosh.org गद्यकोश ]से साभार | ||
+ | प्रेम की अधूरी प्यास के दस्तावेजों की सर्जक ! | ||
− | + | आलेखः-अशोक कुमार शुक्ला | |
− | + | अमृमा प्रीतम का जन्म 1919 में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के गुजरांवाला शहर में हुआ। बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा भी वहीं पर हुई। इनके माता पिता पंचखंड भसोड़ के स्कूल में पढ़ाते थे। इनका बचपन अपनी नानी के घर बीता जो रूढ़िवादी विचारधारा की महिला थी। अमृता बचपन से ही रूढ़ियों के विरूद्ध खड़ी होने वाली बालिका थीं। बचपन में अमृता ने देखा कि उनकी नानी की रसोई में कुछ बर्तन और तीन गिलास अन्य बर्तनों से अलग रखे रहते थे परिवार में सामान्यतः उन बर्तनों का उपयोग नहीं होता था। अमृता के पिता के मुसलमान दोस्तों के आने पर ही उन्हें उपयोग में लाया जाता था। बालिका अमृता ने अपनी नानी से जिद करते हुए गिलासों में ही पानी पीने की जिद की और फिर कई दिन की डांट-फटकार और सत्याग्रह के बाद अंततः अपने पिता के मुसलमान दोस्तों के लिए अलग किये गये गिलासों को सामान्य रसोई के बर्तनों में मिलाकर रूढ़ियों के विरूद्ध खड़ी होने का पहला परिचय दिया। | |
− | + | जब ये ग्यारह वर्ष की हुईं तो इनकी माँ की मृत्यु हो गयी। माँ के साथ गहरे भावनात्मक लगाव के कारण मृत्यु शैय्या पर पड़ी अपनी माँ के पास यह अबोध बालिका भी बैठी थी। बालिका ने घर के बड़े बुजुगों से सुन रखा था कि बच्चे भगवान् का रूप होते हैं और भगवान् बच्चों की बात नहीं टालते सेा अमृता भी अपनी मरती हुई माँ की खाट के पास खड़ी हुई ईश्वर से अपनी माँ की सलामती की दुआ माँगकर मन ही मन यह विश्वास कर बैठी थी कि अब उनकी माँ की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता..... पर माँ की मृत्यु हो गयी, और उनका ईश्वर के ऊपर से विश्वास हट गया। ईश्वर के प्रति अपने विश्वास की टूटने को उन्होने अपने उपन्यास ‘एक सवाल’ में कथानायक जगदीप के माध्यम से हूबहू व्यक्त किया है जब जगदीप अपनी मरती हुई माँ की खाट के पास खड़ा हुआ है और एकाग्र मन होकर ईश्वर से कहता है-‘ मेरी माँ केा मत मारो।’ नायक को भी ठीक उसी तरह यह विश्वास हो गया कि अब उसकी माँ की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता..... पर माँ की मृत्यु हो गयी, और , अमृता की तरह कथा नायक जगदीप का भी ईश्वर के ऊपर से विश्वास हट गया। | |
− | + | ||
− | जब ये ग्यारह वर्ष की | + | |
− | इन्होंने अपना सृजन मुख्य रूप से पंजाबी और उर्दू भाषा में किया है। अपनी आत्म कथा में अमृता ने अपने जीवन के संदर्भ में लिखा हैः- | + | इन्होंने अपना सृजन मुख्य रूप से पंजाबी और उर्दू भाषा में किया है। अपनी आत्म कथा में अमृता ने अपने जीवन के संदर्भ में लिखा हैः- |
− | ‘‘ ---इन वर्षो की राह में, दो | + | ‘‘ ---इन वर्षो की राह में, दो बड़ी घटनायें हुई। एक- जिन्हें मेरे दुःख सुख से जन्म से ही संबंध था, मेरे माता-पिता, उनके हाथों हुई। और दूसरी मेरे अपने हाथों। यह एक-मेरी चार वर्ष की आयु में मेरी सगाई के रूप में, और मेरी सोलह सत्रह वर्ष की आयु में मेरे विवाह के रूप में थी। और दूसरी- जो मेरे अपने हाथों हुई- यह मेरी बीस-इक्कीस वर्ष की आयु में मेरी एक मुहब्बत की सूरत में थी।---’’ |
− | अपने विचारों को | + | अपने विचारों को कागज़ पर उकेरने की प्रतिभा उनमें जन्मजात थी। मन की कोरें में आते विचारों को डायरी में लिखने से जुड़े एक मजेदार किस्से को उन्होंने इस प्रकार लिखा हैः- |
− | ‘‘--पृष्ठभूमि याद है-तब छोटी थी, जब डायरी लिखती थी तो सदा ताले में रखती थीं। पर अलमारी के अन्दर खाने की उस चाभी को शायद ऐसे संभाल-संभालकर रखती थी कि उसकी संभाल किसी को निगाह में आ गयी ।(यह विवाह के बाद की बात है)। एक दिन मेरी चोरी से उस अलमारी का वह खाना | + | ‘‘--पृष्ठभूमि याद है-तब छोटी थी, जब डायरी लिखती थी तो सदा ताले में रखती थीं। पर अलमारी के अन्दर खाने की उस चाभी को शायद ऐसे संभाल-संभालकर रखती थी कि उसकी संभाल किसी को निगाह में आ गयी ।(यह विवाह के बाद की बात है)। एक दिन मेरी चोरी से उस अलमारी का वह खाना खोला गया और डायरी को पढ़ा गया। और फिर मुझसे कई पंक्तियों की विस्तार पूर्वक व्याख्या माँगी गयी। उस दिन को भुगतकर मैंने वह डायरी फाड़ दी, और बाद में कभी डायरी न लिखने का अपने आपसे इकरार कर लिया।---’’ |
− | विख्यात शायर | + | विख्यात शायर साहिर लुधियानवी से अमृता का प्यार तत्कालीन समालोचकों का पसंदीदा विषय था। साहिर के साथ अपने लगाव को उन्होंने बेबाकी से अपनी आत्मकथा में इस प्रकार व्यक्त किया है। |
− | ‘‘--- पर | + | ‘‘--- पर ज़िंदगी में तीन समय ऐसे आए हैं-जब मैंने अपने अन्दर की सिर्फ़ औरत को जी भर कर देखा है। उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अन्दर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया--दूसरी बार ऐसा ही समय मैंने तब देखा जब एक दिन साहिर आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढ़ा हुआ था। उसके गले में दर्द था-- साँस खिंचा-खिंचा था उस दिन उसके गले और छाती पर मैंने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी--और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खड़े खड़े पोरों से , उंगलियों से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुए सारी उम्र गुजार सकती हूँ। मेरे अंदर की सिर्फ़ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज़ कलम की आवश्यकता नहीं थी।--- |
− | लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिये आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी से निकला हुआ खामेाशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था---वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा | + | लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिये आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी से निकला हुआ खामेाशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था---वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था। और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े छोटे टुकड़े कमरे में रह जाते थे। कभी --एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी-- तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था। उसके जाने के बाद,मैं उसके छोड़े हुए सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकड़े को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूँ ---- ’’ |
− | कभी --एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी-- | + | |
− | तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था। उसके जाने के बाद, | + | |
− | साहिर के प्रति उनके मन में प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी अनेक रचनाओं में | + | साहिर के प्रति उनके मन में प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी अनेक रचनाओं में हुई हैः- |
− | ‘‘---देश विभाजन से पहले तक मेरे पास एक | + | ‘‘---देश विभाजन से पहले तक मेरे पास एक चीज़ थी जिसे मैं संभाल -संभाल कर रखती थी। यह साहिर की नज़्म ताजमहल थी जो उसने फ्रेम कराकर मुझे दी थी। पर देश के विभाजन के बाद जो मेरे पास धीरे-धीरे जुड़ा है आज अपनी अलमारी का अन्दर का खाना टटोलने लगी हूँ तो दबे हुए खजाने की भाँति प्रतीत हो रहा है--- |
− | ---एक पत्ता है जो मैं टॉलस्टाय की कब्र | + | ---एक पत्ता है जो मैं टॉलस्टाय की कब्र पर से लायी थी और एक कागज़ का गोल टुकड़ा है जिसके एक ओर छपा हुआ है’-एशियन राइटर्स कांफ्रेंस और दूसरी ओर हाथ से लिखा हुआ है साहिर लुधियानवी यह कांफ्रेंस के समय का बैज है जो कांफ्रेंस में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक लेखक को मिला था। मैंने अपने नाम का बैज अपने कोट पर लगाया हुआ था और साहिर ने अपने नाम का बैज अपने कोट पर। साहिर ने अपना बैज उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया और मेरा बैज उतारकर अपने कोट पर लगा लिया और------’’ |
− | विभाजन का दर्द अमृता ने | + | विभाजन का दर्द अमृता ने सिर्फ़ सुना ही नहीं देखा और भोगा भी था। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने अपना उपन्यास ‘पिंजर’ लिखा। 1947 में 3 जुलाई को अमृता ने एक बच्चे को जन्म दिया और उसके तुरंत बाद 14 अगस्त 1947 को विभाजन का मंजर भी देखा जिसके संदर्भ में उससे लिखा किः- |
− | ‘‘ | + | ‘‘ दुःखों की कहानियाँ कह- कहकर लोग थक गए थे, पर ये कहानियाँ उम्र से पहले खत्म होने वाली नहीं थीं। मैंने लाशें देखीं थीं , लाशों जैसे लोग देखे थे, और जब लाहौर से आकर देहरादून में पनाह ली, तब ----एक ही दिन में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक रिश्ते काँच के बर्तनेां की भाँति टूट गये थे और उनकी किरचें लोगों के पैरों में चुभी थीं और मेरे माथे में भी ----- ’’ |
− | जीवन के उत्तरार्ध में | + | जीवन के उत्तरार्ध में अमृता जी इमरोज़ नामक कलाकार के बहुत नजदीक रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है- |
− | ‘‘मुझ पर उसकी पहली मुलाकात का असर- मेरे शरीर के ताप के रूप में हुआ था। मन में कुछ घिर आया, और | + | ‘‘मुझ पर उसकी पहली मुलाकात का असर- मेरे शरीर के ताप के रूप में हुआ था। मन में कुछ घिर आया, और तेज़ बुखार चढ़ गया। उस दिन- उस शाम उसने पहली बार अपने हाथ से मेरा माथा छुआ था- बहुत बुखार है? इन शब्दों के बाद उसके मुँह से केवल एक ही वाक्य निकला था- आज एक दिन में मैं कई साल बड़ा हो गया हूँ। |
− | --कभी हैरान हो जाती | + | --कभी हैरान हो जाती हूँ - इमरोज़ ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत जो उसकी अपनी खुशी का मुखालिफ हैं-- एक बार मैंने हँसकर कहा था, ईमू ! अगर मुझे साहिर मिल जाता , तो फिर तू न मिलता- और वह मुझे , मुझसे भी आगे , अपनाकर कहने लगा:-मैं तो तुझे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज़ पढ़ते हुए ढूँढ लेता! सेाचती हूँ - क्या खुदा इस जैसे इन्सान से कहीं अलग होता है--’’ |
− | एक बार | + | |
− | सेाचती | + | |
− | + | अमृता प्रीतम ने स्वयं अपनी रचनाओं में व्यक्त अधूरी प्यास के संदर्भ में लिखा है कि | |
− | + | ‘‘गंगाजल से लेकर वोदका तक यह सफ़रनामा है मेरी प्यास का।’’ | |
− | + | अमृता की रचनाओं में विभाजन का दर्द और मानवीय संवेदनाओं का सटीक चित्रण हुआ है। इनके संबंध में नेपाल के उपन्यासकार धूंसवां सायमी ने 1972 में लिखा थाः- | |
− | ‘‘ मैं जब | + | ‘‘ मैं जब अमृता प्रीतम की कोई रचना पढ़ता हूँ , तब मेरी भारत विरोधी भावनाऐं खत्म हो जाती हैं।’’ |
− | इनकी कविताओं के संकलन ‘धूप का | + | इनकी कविताओं के संकलन ‘धूप का टुकड़ा ’ के हिंदी में अनूदित प्रकाशन पर कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा थाः- |
− | + | ‘‘अमृता प्रीतम की कविताओं में रमना हृदय में कसकती व्यथा का घाव लेकर , प्रेम और सौन्दर्य की धूप छाँव वीथि में विचरने के समान है. इन कविताओं के अनुवाद से हिन्दी काव्य भाव धनी तथा शिल्प समृद्ध बनेगा--- ’’ | |
− | इनकी रचनाओं | + | इनकी रचनाओं में ‘दिल्ली की गलियाँ ’(उपन्यास), ‘एक थी अनीता’(उपन्यास), काले अक्षर, कर्मों वाली, केले का छिलका, दो औरतें (सभी कहानियाँ 1970 के आस-पास) ‘यह हमारा जीवन’(उपन्यास 1969 ), ‘आक के पत्ते’ (पंजाबी में बक्क दा बूटा ),‘चक नम्बर छत्तीस’( ), ‘यात्री’ (उपन्यास1968,), ‘एक सवाल (उपन्यास ),‘पिघलती चट्टान (कहानी 1974), धूप का टुकड़ा (कविता संग्रह), ‘गर्भवती’(कविता संग्रह), आदि प्रमुख हैं। |
− | इनके उपन्यासों पर फिल्मों और दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण भी हुआ है। | + | इनके उपन्यासों पर फिल्मों और दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण भी हुआ है। |
− | ==पुरस्कार== | + | ===पुरस्कार=== |
− | + | ||
− | + | अमृता जी को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाजा गया, जिनमे प्रमुख है १९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार, १९८८ में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार। वे पहली महिला थीं जिन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला और साथ ही साथ वे पहली पंजाबी महिला थीं जिन्हे १९६९ में ’पद्मश्री’ से अलंकृत/नवाज़ा गया। १९६१ तक इन्होंने ऑल इंडिया रेडियो मे काम किया। १९६० मे अपने पति से तलाक के बाद, इनकी रचनाओं मे महिला पात्रों की पीड़ा और वैवाहिक जीवन के कटु अनुभवों के अहसास को महसूस किया जा सकता है। विभाजन की पीड़ा को लेकर इनके उपन्यास पिंजर पर एक फ़िल्म भी बनी थी, जो अच्छी खासी चर्चा में रही। इन्होंने पचास से अधिक पुस्तकें लिखीं और इनकी काफ़ी रचनाएँ विदेशी भाषाओं मे भी अनूदित हुईं। | |
+ | इनके पुरस्कारों की तो लम्बी फ़ेहरिस्त है - | ||
− | |||
+ | सम्मान और पुरस्कार | ||
− | |||
− | + | साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९५६) | |
− | + | ’पद्मश्री’ से अलंकृत (१९६९) | |
− | + | डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (दिल्ली युनिवर्सिटी- १९७३) | |
− | + | डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (जबलपुर युनिवर्सिटी- १९७३) | |
− | + | बल्गारिया वैरोव पुरस्कार (बुल्गारिया - १९७९) | |
− | + | भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (१९८१) | |
+ | |||
+ | डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (विश्व भारती शांतिनिकेतनी- १९८७) | ||
फ़्रांस सरकार द्वारा सम्मान (१९८७) | फ़्रांस सरकार द्वारा सम्मान (१९८७) | ||
− | प्रमुख | + | ===प्रमुख कृतियाँ: === |
+ | उपन्यास: पाँच बरस लंबी सड़क, पिंजर, अदालत,कोरे कागज़, उनचास दिन, सागर और सीपियाँ, नागमणि, रंग का पत्ता, दिल्ली की गलियाँ, तेरहवाँ सूरज,जिलावतन (१९६८)| | ||
+ | आत्मकथा: रसीदी टिकट (१९७६) | ||
− | + | कहानी संग्रह: कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं, कहानियों के आँगन में | |
− | + | संस्मरण: कच्चा आँगन, एक थी सारा। | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | संस्मरण: कच्चा | + | |
कविता संग्रह: | कविता संग्रह: | ||
पंक्ति 129: | पंक्ति 123: | ||
उनीझा दिन (१९७९) | उनीझा दिन (१९७९) | ||
− | + | कागज़ ते कैनवास (१९८१) - ज्ञानपीठ पुरस्कार | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + |
14:28, 5 सितम्बर 2014 का अवतरण
गद्यकोश से साभार
प्रेम की अधूरी प्यास के दस्तावेजों की सर्जक !
आलेखः-अशोक कुमार शुक्ला
अमृमा प्रीतम का जन्म 1919 में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के गुजरांवाला शहर में हुआ। बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा भी वहीं पर हुई। इनके माता पिता पंचखंड भसोड़ के स्कूल में पढ़ाते थे। इनका बचपन अपनी नानी के घर बीता जो रूढ़िवादी विचारधारा की महिला थी। अमृता बचपन से ही रूढ़ियों के विरूद्ध खड़ी होने वाली बालिका थीं। बचपन में अमृता ने देखा कि उनकी नानी की रसोई में कुछ बर्तन और तीन गिलास अन्य बर्तनों से अलग रखे रहते थे परिवार में सामान्यतः उन बर्तनों का उपयोग नहीं होता था। अमृता के पिता के मुसलमान दोस्तों के आने पर ही उन्हें उपयोग में लाया जाता था। बालिका अमृता ने अपनी नानी से जिद करते हुए गिलासों में ही पानी पीने की जिद की और फिर कई दिन की डांट-फटकार और सत्याग्रह के बाद अंततः अपने पिता के मुसलमान दोस्तों के लिए अलग किये गये गिलासों को सामान्य रसोई के बर्तनों में मिलाकर रूढ़ियों के विरूद्ध खड़ी होने का पहला परिचय दिया।
जब ये ग्यारह वर्ष की हुईं तो इनकी माँ की मृत्यु हो गयी। माँ के साथ गहरे भावनात्मक लगाव के कारण मृत्यु शैय्या पर पड़ी अपनी माँ के पास यह अबोध बालिका भी बैठी थी। बालिका ने घर के बड़े बुजुगों से सुन रखा था कि बच्चे भगवान् का रूप होते हैं और भगवान् बच्चों की बात नहीं टालते सेा अमृता भी अपनी मरती हुई माँ की खाट के पास खड़ी हुई ईश्वर से अपनी माँ की सलामती की दुआ माँगकर मन ही मन यह विश्वास कर बैठी थी कि अब उनकी माँ की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता..... पर माँ की मृत्यु हो गयी, और उनका ईश्वर के ऊपर से विश्वास हट गया। ईश्वर के प्रति अपने विश्वास की टूटने को उन्होने अपने उपन्यास ‘एक सवाल’ में कथानायक जगदीप के माध्यम से हूबहू व्यक्त किया है जब जगदीप अपनी मरती हुई माँ की खाट के पास खड़ा हुआ है और एकाग्र मन होकर ईश्वर से कहता है-‘ मेरी माँ केा मत मारो।’ नायक को भी ठीक उसी तरह यह विश्वास हो गया कि अब उसकी माँ की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता..... पर माँ की मृत्यु हो गयी, और , अमृता की तरह कथा नायक जगदीप का भी ईश्वर के ऊपर से विश्वास हट गया।
इन्होंने अपना सृजन मुख्य रूप से पंजाबी और उर्दू भाषा में किया है। अपनी आत्म कथा में अमृता ने अपने जीवन के संदर्भ में लिखा हैः-
‘‘ ---इन वर्षो की राह में, दो बड़ी घटनायें हुई। एक- जिन्हें मेरे दुःख सुख से जन्म से ही संबंध था, मेरे माता-पिता, उनके हाथों हुई। और दूसरी मेरे अपने हाथों। यह एक-मेरी चार वर्ष की आयु में मेरी सगाई के रूप में, और मेरी सोलह सत्रह वर्ष की आयु में मेरे विवाह के रूप में थी। और दूसरी- जो मेरे अपने हाथों हुई- यह मेरी बीस-इक्कीस वर्ष की आयु में मेरी एक मुहब्बत की सूरत में थी।---’’
अपने विचारों को कागज़ पर उकेरने की प्रतिभा उनमें जन्मजात थी। मन की कोरें में आते विचारों को डायरी में लिखने से जुड़े एक मजेदार किस्से को उन्होंने इस प्रकार लिखा हैः-
‘‘--पृष्ठभूमि याद है-तब छोटी थी, जब डायरी लिखती थी तो सदा ताले में रखती थीं। पर अलमारी के अन्दर खाने की उस चाभी को शायद ऐसे संभाल-संभालकर रखती थी कि उसकी संभाल किसी को निगाह में आ गयी ।(यह विवाह के बाद की बात है)। एक दिन मेरी चोरी से उस अलमारी का वह खाना खोला गया और डायरी को पढ़ा गया। और फिर मुझसे कई पंक्तियों की विस्तार पूर्वक व्याख्या माँगी गयी। उस दिन को भुगतकर मैंने वह डायरी फाड़ दी, और बाद में कभी डायरी न लिखने का अपने आपसे इकरार कर लिया।---’’
विख्यात शायर साहिर लुधियानवी से अमृता का प्यार तत्कालीन समालोचकों का पसंदीदा विषय था। साहिर के साथ अपने लगाव को उन्होंने बेबाकी से अपनी आत्मकथा में इस प्रकार व्यक्त किया है।
‘‘--- पर ज़िंदगी में तीन समय ऐसे आए हैं-जब मैंने अपने अन्दर की सिर्फ़ औरत को जी भर कर देखा है। उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अन्दर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया--दूसरी बार ऐसा ही समय मैंने तब देखा जब एक दिन साहिर आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढ़ा हुआ था। उसके गले में दर्द था-- साँस खिंचा-खिंचा था उस दिन उसके गले और छाती पर मैंने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी--और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खड़े खड़े पोरों से , उंगलियों से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुए सारी उम्र गुजार सकती हूँ। मेरे अंदर की सिर्फ़ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज़ कलम की आवश्यकता नहीं थी।---
लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिये आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी से निकला हुआ खामेाशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था---वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था। और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े छोटे टुकड़े कमरे में रह जाते थे। कभी --एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी-- तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था। उसके जाने के बाद,मैं उसके छोड़े हुए सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकड़े को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूँ ---- ’’
साहिर के प्रति उनके मन में प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी अनेक रचनाओं में हुई हैः-
‘‘---देश विभाजन से पहले तक मेरे पास एक चीज़ थी जिसे मैं संभाल -संभाल कर रखती थी। यह साहिर की नज़्म ताजमहल थी जो उसने फ्रेम कराकर मुझे दी थी। पर देश के विभाजन के बाद जो मेरे पास धीरे-धीरे जुड़ा है आज अपनी अलमारी का अन्दर का खाना टटोलने लगी हूँ तो दबे हुए खजाने की भाँति प्रतीत हो रहा है---
---एक पत्ता है जो मैं टॉलस्टाय की कब्र पर से लायी थी और एक कागज़ का गोल टुकड़ा है जिसके एक ओर छपा हुआ है’-एशियन राइटर्स कांफ्रेंस और दूसरी ओर हाथ से लिखा हुआ है साहिर लुधियानवी यह कांफ्रेंस के समय का बैज है जो कांफ्रेंस में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक लेखक को मिला था। मैंने अपने नाम का बैज अपने कोट पर लगाया हुआ था और साहिर ने अपने नाम का बैज अपने कोट पर। साहिर ने अपना बैज उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया और मेरा बैज उतारकर अपने कोट पर लगा लिया और------’’
विभाजन का दर्द अमृता ने सिर्फ़ सुना ही नहीं देखा और भोगा भी था। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने अपना उपन्यास ‘पिंजर’ लिखा। 1947 में 3 जुलाई को अमृता ने एक बच्चे को जन्म दिया और उसके तुरंत बाद 14 अगस्त 1947 को विभाजन का मंजर भी देखा जिसके संदर्भ में उससे लिखा किः-
‘‘ दुःखों की कहानियाँ कह- कहकर लोग थक गए थे, पर ये कहानियाँ उम्र से पहले खत्म होने वाली नहीं थीं। मैंने लाशें देखीं थीं , लाशों जैसे लोग देखे थे, और जब लाहौर से आकर देहरादून में पनाह ली, तब ----एक ही दिन में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक रिश्ते काँच के बर्तनेां की भाँति टूट गये थे और उनकी किरचें लोगों के पैरों में चुभी थीं और मेरे माथे में भी ----- ’’
जीवन के उत्तरार्ध में अमृता जी इमरोज़ नामक कलाकार के बहुत नजदीक रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
‘‘मुझ पर उसकी पहली मुलाकात का असर- मेरे शरीर के ताप के रूप में हुआ था। मन में कुछ घिर आया, और तेज़ बुखार चढ़ गया। उस दिन- उस शाम उसने पहली बार अपने हाथ से मेरा माथा छुआ था- बहुत बुखार है? इन शब्दों के बाद उसके मुँह से केवल एक ही वाक्य निकला था- आज एक दिन में मैं कई साल बड़ा हो गया हूँ।
--कभी हैरान हो जाती हूँ - इमरोज़ ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत जो उसकी अपनी खुशी का मुखालिफ हैं-- एक बार मैंने हँसकर कहा था, ईमू ! अगर मुझे साहिर मिल जाता , तो फिर तू न मिलता- और वह मुझे , मुझसे भी आगे , अपनाकर कहने लगा:-मैं तो तुझे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज़ पढ़ते हुए ढूँढ लेता! सेाचती हूँ - क्या खुदा इस जैसे इन्सान से कहीं अलग होता है--’’
अमृता प्रीतम ने स्वयं अपनी रचनाओं में व्यक्त अधूरी प्यास के संदर्भ में लिखा है कि
‘‘गंगाजल से लेकर वोदका तक यह सफ़रनामा है मेरी प्यास का।’’
अमृता की रचनाओं में विभाजन का दर्द और मानवीय संवेदनाओं का सटीक चित्रण हुआ है। इनके संबंध में नेपाल के उपन्यासकार धूंसवां सायमी ने 1972 में लिखा थाः-
‘‘ मैं जब अमृता प्रीतम की कोई रचना पढ़ता हूँ , तब मेरी भारत विरोधी भावनाऐं खत्म हो जाती हैं।’’
इनकी कविताओं के संकलन ‘धूप का टुकड़ा ’ के हिंदी में अनूदित प्रकाशन पर कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा थाः-
‘‘अमृता प्रीतम की कविताओं में रमना हृदय में कसकती व्यथा का घाव लेकर , प्रेम और सौन्दर्य की धूप छाँव वीथि में विचरने के समान है. इन कविताओं के अनुवाद से हिन्दी काव्य भाव धनी तथा शिल्प समृद्ध बनेगा--- ’’
इनकी रचनाओं में ‘दिल्ली की गलियाँ ’(उपन्यास), ‘एक थी अनीता’(उपन्यास), काले अक्षर, कर्मों वाली, केले का छिलका, दो औरतें (सभी कहानियाँ 1970 के आस-पास) ‘यह हमारा जीवन’(उपन्यास 1969 ), ‘आक के पत्ते’ (पंजाबी में बक्क दा बूटा ),‘चक नम्बर छत्तीस’( ), ‘यात्री’ (उपन्यास1968,), ‘एक सवाल (उपन्यास ),‘पिघलती चट्टान (कहानी 1974), धूप का टुकड़ा (कविता संग्रह), ‘गर्भवती’(कविता संग्रह), आदि प्रमुख हैं।
इनके उपन्यासों पर फिल्मों और दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण भी हुआ है।
पुरस्कार
अमृता जी को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाजा गया, जिनमे प्रमुख है १९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार, १९८८ में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार। वे पहली महिला थीं जिन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला और साथ ही साथ वे पहली पंजाबी महिला थीं जिन्हे १९६९ में ’पद्मश्री’ से अलंकृत/नवाज़ा गया। १९६१ तक इन्होंने ऑल इंडिया रेडियो मे काम किया। १९६० मे अपने पति से तलाक के बाद, इनकी रचनाओं मे महिला पात्रों की पीड़ा और वैवाहिक जीवन के कटु अनुभवों के अहसास को महसूस किया जा सकता है। विभाजन की पीड़ा को लेकर इनके उपन्यास पिंजर पर एक फ़िल्म भी बनी थी, जो अच्छी खासी चर्चा में रही। इन्होंने पचास से अधिक पुस्तकें लिखीं और इनकी काफ़ी रचनाएँ विदेशी भाषाओं मे भी अनूदित हुईं।
इनके पुरस्कारों की तो लम्बी फ़ेहरिस्त है -
सम्मान और पुरस्कार
साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९५६)
’पद्मश्री’ से अलंकृत (१९६९)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (दिल्ली युनिवर्सिटी- १९७३)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (जबलपुर युनिवर्सिटी- १९७३)
बल्गारिया वैरोव पुरस्कार (बुल्गारिया - १९७९)
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (१९८१)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (विश्व भारती शांतिनिकेतनी- १९८७)
फ़्रांस सरकार द्वारा सम्मान (१९८७)
प्रमुख कृतियाँ:
उपन्यास: पाँच बरस लंबी सड़क, पिंजर, अदालत,कोरे कागज़, उनचास दिन, सागर और सीपियाँ, नागमणि, रंग का पत्ता, दिल्ली की गलियाँ, तेरहवाँ सूरज,जिलावतन (१९६८)|
आत्मकथा: रसीदी टिकट (१९७६)
कहानी संग्रह: कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं, कहानियों के आँगन में
संस्मरण: कच्चा आँगन, एक थी सारा।
कविता संग्रह:
अमृत लहरें (१९३६)
जिन्दा जियां (१९३९)
ट्रेल धोते फूल (१९४२)
ओ गीता वालियां (१९४२)
बदलम दी लाली (१९४३)
लोक पिगर (१९४४)
पगथर गीत (१९४६)
पंजाबी दी आवाज(१९५२)
सुनहरे (१९५५)
अशोका चेती (१९५७)
कस्तूरी (१९५७)
नागमणि (१९६४)
इक सी अनीता (१९६४)
चक नाबर छ्त्ती (१९६४)
उनीझा दिन (१९७९)
कागज़ ते कैनवास (१९८१) - ज्ञानपीठ पुरस्कार