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"सॉनेट (हर सांझ...) / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर
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हर सांझ, तेरे रूख का क्षण भर अवलोकन | हर सांझ, तेरे रूख का क्षण भर अवलोकन | ||
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क्यों मुझेको प्रतिक्षण उद्वेलित कर जाता है | क्यों मुझेको प्रतिक्षण उद्वेलित कर जाता है | ||
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वह क्या अदृश्य है जो, शून्य में संधि बन | वह क्या अदृश्य है जो, शून्य में संधि बन | ||
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मेरा अंतर तुझसे यूं जोडे रखता है। | मेरा अंतर तुझसे यूं जोडे रखता है। | ||
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क्या मिल जाता है, उस क्षण भर में ही मुझको | क्या मिल जाता है, उस क्षण भर में ही मुझको | ||
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एक भाव गूंजता अंतर में, हर क्षण हर पल | एक भाव गूंजता अंतर में, हर क्षण हर पल | ||
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पर व्यक्त उसे शब्दों में कैसे कर दूं मैं | पर व्यक्त उसे शब्दों में कैसे कर दूं मैं | ||
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हो कैसे अभिव्यक्त, जो है अब तक गोपन। | हो कैसे अभिव्यक्त, जो है अब तक गोपन। | ||
− | + | इन्हीं रहस्यों में उलझाता हुआ मैं खुद | |
− | इन्हीं रहस्यों में उलझाता हुआ मैं खुद | + | |
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को, कहीं बहुत कुछ सुलझाता जाता हूं। | को, कहीं बहुत कुछ सुलझाता जाता हूं। | ||
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मेरा जो भी छूअ वहां उस क्षण जाता है | मेरा जो भी छूअ वहां उस क्षण जाता है | ||
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उसे बचाना नहीं रहा अब मेरे वश में। | उसे बचाना नहीं रहा अब मेरे वश में। | ||
− | + | उस खोने में भी, बहुत कुछ पा जाता हूं | |
− | उस खोने में भी, | + | |
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पा-पाकर हरदम पाना कुछ रह जाता है। | पा-पाकर हरदम पाना कुछ रह जाता है। | ||
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06:49, 30 सितम्बर 2014 का अवतरण
हर सांझ, तेरे रूख का क्षण भर अवलोकन
क्यों मुझेको प्रतिक्षण उद्वेलित कर जाता है
वह क्या अदृश्य है जो, शून्य में संधि बन
मेरा अंतर तुझसे यूं जोडे रखता है।
क्या मिल जाता है, उस क्षण भर में ही मुझको
एक भाव गूंजता अंतर में, हर क्षण हर पल
पर व्यक्त उसे शब्दों में कैसे कर दूं मैं
हो कैसे अभिव्यक्त, जो है अब तक गोपन।
इन्हीं रहस्यों में उलझाता हुआ मैं खुद
को, कहीं बहुत कुछ सुलझाता जाता हूं।
मेरा जो भी छूअ वहां उस क्षण जाता है
उसे बचाना नहीं रहा अब मेरे वश में।
उस खोने में भी, बहुत कुछ पा जाता हूं
पा-पाकर हरदम पाना कुछ रह जाता है।
1988