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"सॉनेट (गर्व बहुत था...) / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर

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(नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा)
 
 
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गर्व बहुत था मुझे, कि हूं मैं भी संन्यासी।
 
गर्व बहुत था मुझे, कि हूं मैं भी संन्यासी।
 
 
मन मेरा दृढ है, अडिग है और रहेगा
 
मन मेरा दृढ है, अडिग है और रहेगा
 
 
अगो भी, तब तक, जब तक रवि शशि‍ तारक हैं
 
अगो भी, तब तक, जब तक रवि शशि‍ तारक हैं
 
 
टिके गगन में , डिगा नहीं सकता कोई भी
 
टिके गगन में , डिगा नहीं सकता कोई भी
 
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मन मेरा। पर पहली ही लहर तुम्हारे
मन मेरा। पर पहली ही लहर तुम्हारे  
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छवि की छलकी, वहम बह गए, सारे के सारे।
 
छवि की छलकी, वहम बह गए, सारे के सारे।
 
 
यह लगा कि वह तू ही है, बरसों से जिसको
 
यह लगा कि वह तू ही है, बरसों से जिसको
 
 
ढूंढ ढूंढ कर हार गया था अन्तेवासी।
 
ढूंढ ढूंढ कर हार गया था अन्तेवासी।
  
 
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चलो हुआ यह अच्छा, भरम मिटा तो मेरा।
चलो हुआ यह अच्छा, भरम मिटा तो मेरा।
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चलो कि एक दिन अपने इस अडियल अहम को
 
चलो कि एक दिन अपने इस अडियल अहम को
 
 
आहत होना था, सो यह भी आज हो गया।
 
आहत होना था, सो यह भी आज हो गया।
 
 
कितनी सुंदर घडी सलोनी थी उस दिन वह
 
कितनी सुंदर घडी सलोनी थी उस दिन वह
 
 
जब कि टूटा, टूट टूटकर हुआ था तेरा।
 
जब कि टूटा, टूट टूटकर हुआ था तेरा।
 
 
नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा।
 
नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा।
 
 
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06:55, 30 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण

गर्व बहुत था मुझे, कि हूं मैं भी संन्यासी।
मन मेरा दृढ है, अडिग है और रहेगा
अगो भी, तब तक, जब तक रवि शशि‍ तारक हैं
टिके गगन में , डिगा नहीं सकता कोई भी
मन मेरा। पर पहली ही लहर तुम्हारे
छवि की छलकी, वहम बह गए, सारे के सारे।
यह लगा कि वह तू ही है, बरसों से जिसको
ढूंढ ढूंढ कर हार गया था अन्तेवासी।

चलो हुआ यह अच्छा, भरम मिटा तो मेरा।
चलो कि एक दिन अपने इस अडियल अहम को
आहत होना था, सो यह भी आज हो गया।
कितनी सुंदर घडी सलोनी थी उस दिन वह
जब कि टूटा, टूट टूटकर हुआ था तेरा।
नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा।
1988