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"खुशी का चेहरा / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर

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खुशी को देखा है तुमने क्या् कभी
 
खुशी को देखा है तुमने क्या् कभी

07:04, 30 सितम्बर 2014 का अवतरण

खुशी को देखा है तुमने क्या् कभी
श्रम की गांठें होती हैं उसके हाथों में
उसके चेहरे पर होता है
तनाव-जनित कसाव
बिवाइयॉं होती हैं खुशी के तलुओं में
शुद्ध मृदाजनित

खुशी की
हथेलियॉं देखी हैं तुमने
पतली कड़ी लोचदार होती हैं वो
जो अपनी गांठें
छुपा लेती हैं अक्स र
अपनी आत्माह में
उस पर चोट करो
देखों कैसे तिलमिलाकर
उभर आती हैं गांठें

चेहरे के तनावजनित कसावों को
छेड़ने से ही
फूटती है हँसी
ध्वतनि की तरह

तलुओं में ना हों तो
खुशी की स्मृ त्तियों में
जरूर होती हैं बिवाइयॉं
वहॉं झांकोगे
तो फँसी मिटटी पाओगे
उसे मत निकालना गर्त्तम से
रक्तम
फूट पड़ेगा उनसे

बड़े गहरे संबंध होते हैं
मिटटी के और रक्तो के
सगोत्रिय हैं दोनों

अपनी आत्माै को
जानते हो तुम

खुशी की आत्माो
खुशी के पैरों में निवास करती है
तब ही तो
इतनी तेज दौड़ती है खुशी
एक चेहरे से
दूसरे तीसरे व तमाम चेहरों पर

कभी खुश हुए हो तुम
श्रम
किया है क्या कभी
दौड़े हो घास पर नंगे पॉंव
या फिर रेत पर
तो तुमने जरूर देखा होगा
कि कैसेट
हमारे पॉंवों में पैसी आत्मार
मिटटी से
चुगती है संवेदना
और कैसी तेजी से
हरी होती हैं
मस्तिष्क की जड़ें

यहॉं से वहॉं उड़ान भरती
कैसी उन्मुनक्तत होती है हँसी
और निर्द्वांद्व कितनी
कि पकड़ में नहीं आती कभी
कैमरे में बंद करो
तो तस्वींरों से फूट पड़ती है
मन में बंद करो
तो आंखों से

क्यां करे वह
कि समय कम है उसके पास
और
असंख्य हैं मनुष्यड
पीड़ा से बिंधे हुए
और सब तक जाना है उसे

खुशी की
ऑंखें होती हैं हिरणी सी
विस्फाहरित तुर्श साफ व सजल
छोटी सी पीड़ा भी
डुला देती है उसे
बह आता है जल
टप-टप-टप

बड़ा गम भी
पचा लेती है खुशी
कभी वही
गॉंठ बन जाती है
कैंसर की

पर श्रम की गॉंठ
जि‍यादा कड़ी होती है
गम की गॉंठ से
उसे गला देती है वह

खुशी जानती है
कि जियादा से जियादा
क्याि कर सकता है गम
उसे माटी कर सकता है

मिटटी की तो
बनी ही होती है खुशी
खिलौनों सी
उसके टूटने पर बच्चेै रोते हैं
कुम्हाूर नहीं रोता
वह जानता है श्रम को
पहचानता है खुशी को
गढ लेगा वह और और नयी

बारह से
पॉंव होते हैं खुशी के
मृगनयनी होती है
पर मृगमरीचिका नहीं देखती खुशी

पहले
कड़कती है बिजली
फिर होता है बज्रप्रहार

गरजता

जैसा आता है दुख
वैसा ही चला जाता है
पर चक्रवातों और
दुख की सूचनाओं की तरह
सन्नाीटे का
व्याामोह नहीं रचती खुशी
आना होता है
तो आ जाती है चुप-चाप
भंग करती सन्नांटा

आती है
तो जाती कहॉं है खुशी
रच-बस जाती है सुगंध सी
खिला देती है
पंखुडि़यों को
फिर बंद कहॉं होती हैं पंखुडि़यॉं
झर जाऍं चाहे

गमों में
सब छोड़ देते हैं दामन
तो बच्चेे
थाम लेते हैं खुशी को
और भरते हैं कुलॉंच

तब बड़े नाराज होते हैं
उन्हें मारते हैं चॉंटे
और खुद रोते हैं

कुत्ते की तरह
हमेशा
हमारे आगे-आगे
भागती है खुशी
बच्चोंह सी आगे आगे
साफ करती चलती है रास्ताआ

वह देखती है पहाड़
और चढ़ जाती है दौड़ कर
वहीं से बुलाती है

नदी को देखते ही
गुम हो जाती है
भँवरों में

जंगल को देखते
समा जाती है दूर तक
फिर कहीं से
करती है
कू-कू-कू
हम भागते हैं उसे पाने को
भागते चले जाते हैं
हॉंपते ढहते ढिलमिलाते
उसी की ओर

जंगल काटते हैं
और बनाते हैं पगडंडियॉं
भँवरों से लड़कर
बनाते हैं पुल
पत्थेरों को छॉंट
चढते हैं पहाड़

शायद इसी तरह बने हैं
तमाम रास्तेह सभ्य ता के

खुशी को ढूंढता
कोलंबस
अमरीका ढूंढ लेता है

एवरेस्टढ तक
हमें खुशी ले जाती है

चॉंद पर
जाती है खुशी
और कहती है
मंगल पर चलो

कभी
पीछे लौटकर नहीं देखती खुशी
स्मृ तिविहीन अतीत का रास्ताह
नहीं होता है उसका
डायनासोर मिलते हैं जहॉं
जो अपना भविष्य
खुद खा जाते हैं।