"माँ / रश्मि रेखा" के अवतरणों में अंतर
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− | + | अंत:सलिला हो तुम मेरी माँ | |
− | + | ऊपर-ऊपर रेत | |
− | + | भीतर-भीतर शीतल जल | |
+ | रेत भी कैसी स्वर्ण मिली | ||
+ | जिन्हें अलग करना संभव नहीं | ||
+ | अक्सर जब चाहा है | ||
+ | उसे कुरेदने पर | ||
+ | पाया हैं वह सब कुछ | ||
+ | जिसकी ज़रूरत होती है | ||
+ | अपनी जड़ों से कट कर जीने को विवश | ||
+ | तुम्हारी बेटी को | ||
− | + | पिता से सीखा था सपनों में रंग भरना | |
− | + | पर जाना तुमसे | |
− | + | कैसे चलना है खुरदुरी जमींन पर | |
+ | तुम संतुलित करती रहीं लगातार | ||
+ | दुनिया के अपने तीखे अनुभवों और | ||
+ | तपती रेत के इतिहास द्वारा | ||
− | + | बहुत कुछ पाकर | |
− | + | बहुत कुछ खोकार | |
− | + | आधी-अधूरी बनी रह कर भी माँ | |
+ | इंगित करती रही दिशाओं की ओर | ||
+ | सिखाती रही जूझना | ||
− | + | समय ने वैसा नहीं बनने दिया | |
− | + | जैसा चाहती थी तुम हमें गढ़ना | |
− | + | पर अनंत जिजीविषा से भरी मेरी माँ | |
+ | तुम्हारी आँखें तो भविष्य पर रहती हैं | ||
+ | शायद इसीलिये | ||
+ | तुम्हारी सोच में अब | ||
+ | हम नहीं हमारे आकार लेते बच्चे हैं | ||
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22:36, 30 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण
अंत:सलिला हो तुम मेरी माँ
ऊपर-ऊपर रेत
भीतर-भीतर शीतल जल
रेत भी कैसी स्वर्ण मिली
जिन्हें अलग करना संभव नहीं
अक्सर जब चाहा है
उसे कुरेदने पर
पाया हैं वह सब कुछ
जिसकी ज़रूरत होती है
अपनी जड़ों से कट कर जीने को विवश
तुम्हारी बेटी को
पिता से सीखा था सपनों में रंग भरना
पर जाना तुमसे
कैसे चलना है खुरदुरी जमींन पर
तुम संतुलित करती रहीं लगातार
दुनिया के अपने तीखे अनुभवों और
तपती रेत के इतिहास द्वारा
बहुत कुछ पाकर
बहुत कुछ खोकार
आधी-अधूरी बनी रह कर भी माँ
इंगित करती रही दिशाओं की ओर
सिखाती रही जूझना
समय ने वैसा नहीं बनने दिया
जैसा चाहती थी तुम हमें गढ़ना
पर अनंत जिजीविषा से भरी मेरी माँ
तुम्हारी आँखें तो भविष्य पर रहती हैं
शायद इसीलिये
तुम्हारी सोच में अब
हम नहीं हमारे आकार लेते बच्चे हैं