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"माँ / रश्मि रेखा" के अवतरणों में अंतर

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जब दुनिया में आंखें खोली सुनी प्यार की मीठी बोली
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अंत:सलिला हो तुम मेरी माँ
पकड़ के उंगली चलना सीखा नहीं स्नेह की तेरे सीमा
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ऊपर-ऊपर रेत
हां वो तुम ही तो थी ओ मां!
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भीतर-भीतर शीतल जल
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रेत भी कैसी स्वर्ण मिली
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जिन्हें अलग करना संभव नहीं  
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अक्सर जब चाहा है
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उसे कुरेदने पर 
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पाया हैं वह सब कुछ
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जिसकी ज़रूरत होती है
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अपनी जड़ों से कट कर जीने को विवश
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तुम्हारी बेटी को
  
जीवन के हर नए मोड़ पर रिश्तो के संग मुझे जोड़कर
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पिता से सीखा था सपनों में रंग भरना
जब तुमने मेरा साथ दिया था आंचल से मुझे ढांक लिया था
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पर जाना तुमसे
हां वो तुम ही तो थी ओे मां!
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कैसे चलना है खुरदुरी जमींन पर
 +
तुम संतुलित करती रहीं लगातार
 +
दुनिया के अपने तीखे अनुभवों और
 +
तपती रेत के इतिहास द्वारा
  
जब जब मैं जीवन से हारी सोचा छोडूं दुनिया सारी
+
बहुत कुछ पाकर
तुमने मेरा सिर सहलाकर जीवन अमृत मुझे दिया था
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बहुत कुछ खोकार
हां वो तुम ही तो थी ओे मां!
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आधी-अधूरी बनी रह कर भी माँ
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इंगित करती रही दिशाओं की ओर
 +
सिखाती रही जूझना
  
दूर रहूं या पास हूँ तेरे; तेरी आशीषों के घेरे
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समय ने वैसा नहीं बनने दिया
सदा राह मेरी महकाते मानो चंदन के उपवन सा
+
जैसा चाहती थी तुम हमें गढ़ना
हां वो तुम ही तो थी ओे मां!
+
पर अनंत जिजीविषा से भरी मेरी माँ
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तुम्हारी आँखें तो भविष्य पर रहती हैं
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शायद इसीलिये
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तुम्हारी सोच में अब
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हम नहीं हमारे आकार लेते बच्चे हैं
 
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22:36, 30 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण

अंत:सलिला हो तुम मेरी माँ
ऊपर-ऊपर रेत
भीतर-भीतर शीतल जल
रेत भी कैसी स्वर्ण मिली
जिन्हें अलग करना संभव नहीं
अक्सर जब चाहा है
उसे कुरेदने पर
पाया हैं वह सब कुछ
जिसकी ज़रूरत होती है
अपनी जड़ों से कट कर जीने को विवश
तुम्हारी बेटी को

पिता से सीखा था सपनों में रंग भरना
पर जाना तुमसे
कैसे चलना है खुरदुरी जमींन पर
तुम संतुलित करती रहीं लगातार
दुनिया के अपने तीखे अनुभवों और
तपती रेत के इतिहास द्वारा

बहुत कुछ पाकर
बहुत कुछ खोकार
आधी-अधूरी बनी रह कर भी माँ
इंगित करती रही दिशाओं की ओर
सिखाती रही जूझना

समय ने वैसा नहीं बनने दिया
जैसा चाहती थी तुम हमें गढ़ना
पर अनंत जिजीविषा से भरी मेरी माँ
तुम्हारी आँखें तो भविष्य पर रहती हैं
शायद इसीलिये
तुम्हारी सोच में अब
हम नहीं हमारे आकार लेते बच्चे हैं