"जिन दिनों बरसता है पानी / विजय कुमार" के अवतरणों में अंतर
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भारी भारी साँसों के साथ | भारी भारी साँसों के साथ | ||
इस तरह इस तरह | इस तरह इस तरह | ||
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इन बंद तालों के भीतर | इन बंद तालों के भीतर | ||
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लो जुआरियों के सारे पत्ते बिखर गए हैं ! | लो जुआरियों के सारे पत्ते बिखर गए हैं ! | ||
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ऐसी एक धीमी फिर तेज | ऐसी एक धीमी फिर तेज | ||
फिर मूसलाधार बारिश में | फिर मूसलाधार बारिश में | ||
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वे ट्रेफिक सिगनल | वे ट्रेफिक सिगनल | ||
बेवज़ह मारे गए थे क्यों हम रोजनामचों में | बेवज़ह मारे गए थे क्यों हम रोजनामचों में | ||
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बरसता है पानी | बरसता है पानी | ||
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दूब की सिहरन में | दूब की सिहरन में | ||
जिन दिनों इस शहर में | जिन दिनों इस शहर में | ||
− | पानी बरसता है मूसलाधार | + | पानी बरसता है मूसलाधार । |
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22:50, 3 अक्टूबर 2014 का अवतरण
अरे वर्ष के हर्ष बरस तू
बरस बरस रसधार
- निराला
जिन दिनों इस शहर में बरसता है पानी
मंद
फिर तेज
फिर मूसलाधार फिर मंद मंद
आसमान से उतरते हैं कुछ तर बतर फरिश्ते
सर झुकाए
थोड़े से अपराध बोध भरे घटाओं के बीच
भारी आवाज़ में चुपचाप
और हम सुनते हैं उनके पदचाप
छाप छाप
आते हैं गीले जूतों में
घर की सीढ़ियों पर पांवों के निशान
यह काले बादलों की गरज
यह घमासान
जलधारा में बहते पीले उदास पत्तों में
एक उल्लास ढूंढते
वे हमारे घरों में घुसते हैं कुछ टटोलते
नीम अंधरे में
स्वप्न में थोड़ी सी जगह बचाते
भारी भारी साँसों के साथ
इस तरह इस तरह
इन बंद तालों के भीतर
शोर मचाती हवा
छत के कवेलुओं पर टिन की चद्दरों पर
नाचता हुआ अम्बर
हिलती खिड़कियाँ तल्ले
दरवाजों की सांकलें
कांच पर थपथपाहट
वह धमक
सुलगाते हुए एक पुराना प्रगाढ़ संग दोस्ताना
और सितारों को जेब में ठूंसे हुए कुछ धुनें
आती हैं
हमारी इन भीगी हुई कंपकंपाती देहों में
अपनी शरणस्थलियां खोजती
रिमझिम
अटूट रिमझिम
लगातार रिमझिम
बेतहाशा रिमझिम
टपकती बूंदों की उद्दाम सरगम में यह धार धार बेकली
ये विस्मृत प्रेम . ये अगम आकांक्षाएं नसों में उमड़ते तूफ़ान
ये फिसलनें सरपट ये अपार कामनाओं के प्राण
क्या कोई जगह बची है पागलों के लिए
अब इस संसार में ?
तारीखों में कौन किसे याद करता है
लो आओ
निकलो
निकलो बाहर निर्वस्त्र झर झर बूंदों के इस मैदान में
यहाँ से वहां
वहां से यहाँ धुल धुल जाता हुआ सब
उत्ताप प्रार्थनाएं स्मृति स्वप्न कथाएं आभास
सब सब धुल धुल जाते हुए
सब सब घुल घुल जाते हुए
एक झमाझम बरसते कोलाहल में
स्थगित सब बेमतलब संवाद
बस एक करुणा
तन्द्रिल पानी की
आकाश का नीचे उतरना
बदन में फुरफुरी
रोम रोम में हिलोर
एकरसता के बाहर
यह शोर यह स्तब्धता फिर शोर फिर स्तब्धता
कहाँ बसी थीं ये अटूट इच्छाएं
यह तड़ित आर्तनाद
यह उफनता राग
लो जुआरियों के सारे पत्ते बिखर गए हैं !
भीगते हैं हम निष्कवच भीगते हैं
ऐसी एक धीमी फिर तेज
फिर मूसलाधार बारिश में
हाँ फिजूल हैं वे सब संवाद
ताप
शिकवे
वे गांठें
उलझन
वे नुस्खे
वे ट्रेफिक सिगनल
बेवज़ह मारे गए थे क्यों हम रोजनामचों में
बरसता है पानी
इस तरह एक जादू
और पार जाने की इच्छाएं
इस घड़ी है पानी केवल पानी
और गुम हम सब
तर बतर भीगते हुए सांवले सलेटी हम पत्थरों की भी यह अपनी गरिमा
धरती में इस तरह इस तरह
दूब की सिहरन में
जिन दिनों इस शहर में
पानी बरसता है मूसलाधार ।