"नदी को रास्ता किसने दिखाया ? / बालकृष्ण राव" के अवतरणों में अंतर
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− | नदी को रास्ता किसने दिखाया ? | + | नदी को रास्ता किसने दिखाया? |
सिखाया था उसे किसने | सिखाया था उसे किसने | ||
कि अपनी भावना के वेग को | कि अपनी भावना के वेग को | ||
− | उन्मुक्त बहने दे ? | + | उन्मुक्त बहने दे? |
कि वह अपने लिए | कि वह अपने लिए | ||
खुद खोज लेगी | खुद खोज लेगी | ||
सिन्धु की गम्भीरता | सिन्धु की गम्भीरता | ||
− | स्वच्छन्द बहकर ? | + | स्वच्छन्द बहकर? |
इसे हम पूछते आए युगों से, | इसे हम पूछते आए युगों से, | ||
− | और सुनते भी युगों से आ रहे उत्तर नदी | + | और सुनते भी युगों से आ रहे उत्तर नदी का। |
मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने, | मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने, | ||
− | बनाया मार्ग मैने आप ही | + | बनाया मार्ग मैने आप ही अपना। |
ढकेला था शिलाओं को, | ढकेला था शिलाओं को, | ||
गिरी निर्भिकता से मैं कई ऊँचे प्रपातों से, | गिरी निर्भिकता से मैं कई ऊँचे प्रपातों से, | ||
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ठोकर लगाकर, ठेलकर, | ठोकर लगाकर, ठेलकर, | ||
बढती गई आगे निरन्तर | बढती गई आगे निरन्तर | ||
− | एक तट को दूसरे से दूरतर | + | एक तट को दूसरे से दूरतर करती। |
बढ़ी सम्पन्नता के | बढ़ी सम्पन्नता के | ||
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पहुँची जहाँ सागर खडा था | पहुँची जहाँ सागर खडा था | ||
फेन की माला लिए | फेन की माला लिए | ||
− | मेरी प्रतीक्षा | + | मेरी प्रतीक्षा में। |
यही इतिवृत्त मेरा ... | यही इतिवृत्त मेरा ... | ||
− | मार्ग मैने आप ही | + | मार्ग मैने आप ही बनाया। |
मगर भूमि का है दावा, | मगर भूमि का है दावा, | ||
पंक्ति 52: | पंक्ति 52: | ||
वेग लाने के लिए | वेग लाने के लिए | ||
बनी समतल | बनी समतल | ||
− | जहाँ चाहा कि उसकी चाल धीमी | + | जहाँ चाहा कि उसकी चाल धीमी हो। |
बनाती राह, | बनाती राह, | ||
गति को तीव्र अथवा मन्द करती | गति को तीव्र अथवा मन्द करती | ||
पंक्ति 58: | पंक्ति 58: | ||
ले गई भोली नदी को भूमि सागर तक | ले गई भोली नदी को भूमि सागर तक | ||
− | किधर है सत्य ? | + | किधर है सत्य? |
मन के वेग ने | मन के वेग ने | ||
परिवेश को अपनी सबलता से झुकाकर | परिवेश को अपनी सबलता से झुकाकर | ||
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कि मन के वेग को बहना पडा था बेबस | कि मन के वेग को बहना पडा था बेबस | ||
जिधर परिवेश ने झुककर | जिधर परिवेश ने झुककर | ||
− | स्वयं ही राह दे दी थी ? | + | स्वयं ही राह दे दी थी? |
− | किधर है सत्य ? | + | किधर है सत्य? |
− | क्या आप इसका जबाब देंगे ? | + | क्या आप इसका जबाब देंगे? |
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13:13, 6 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण
नदी को रास्ता किसने दिखाया?
सिखाया था उसे किसने
कि अपनी भावना के वेग को
उन्मुक्त बहने दे?
कि वह अपने लिए
खुद खोज लेगी
सिन्धु की गम्भीरता
स्वच्छन्द बहकर?
इसे हम पूछते आए युगों से,
और सुनते भी युगों से आ रहे उत्तर नदी का।
मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने,
बनाया मार्ग मैने आप ही अपना।
ढकेला था शिलाओं को,
गिरी निर्भिकता से मैं कई ऊँचे प्रपातों से,
वनों में, कंदराओं में,
भटकती, भूलती मैं
फूलती उत्साह से प्रत्येक बाधा-विघ्न को
ठोकर लगाकर, ठेलकर,
बढती गई आगे निरन्तर
एक तट को दूसरे से दूरतर करती।
बढ़ी सम्पन्नता के
और अपने दूर-दूर तक फैले साम्राज्य के अनुरूप
गति को मन्द कर...
पहुँची जहाँ सागर खडा था
फेन की माला लिए
मेरी प्रतीक्षा में।
यही इतिवृत्त मेरा ...
मार्ग मैने आप ही बनाया।
मगर भूमि का है दावा,
कि उसने ही बनाया था नदी का मार्ग ,
उसने ही
चलाया था नदी को फिर
जहाँ, जैसे, जिधर चाहा,
शिलाएँ सामने कर दी
जहाँ वह चाहती थी
रास्ता बदले नदी,
जरा बाएँ मुड़े
या दाहिने होकर निकल जाए,
स्वयं नीची हुई
गति में नदी के
वेग लाने के लिए
बनी समतल
जहाँ चाहा कि उसकी चाल धीमी हो।
बनाती राह,
गति को तीव्र अथवा मन्द करती
जंगलों में और नगरों में नचाती
ले गई भोली नदी को भूमि सागर तक
किधर है सत्य?
मन के वेग ने
परिवेश को अपनी सबलता से झुकाकर
रास्ता अपना निकाला था,
कि मन के वेग को बहना पडा था बेबस
जिधर परिवेश ने झुककर
स्वयं ही राह दे दी थी?
किधर है सत्य?
क्या आप इसका जबाब देंगे?