"क्या कश्मीर दूर है ? / राजा पुनियानी" के अवतरणों में अंतर
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21:16, 25 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण
जब घर का गला दबोच के
हुकूमती हवा के नुकीले हाथ
निषिद्ध अंगों को चिथोड़ते हैं
जब आदमी मुँह खोलेंगे इस डर के चलते
सरकारी बन्दूक खोलती हो अपना मुँह
जब जवान सड़क
बोझिल समय के चौपाल में दिन में ही खर्राटे लेती हो
जब मध्याह्न में आ टपकती हो साँझ
और अन्धेरे का षड्यन्त्र रचते हुए चाय पीती हो
उजाले के कण्डोम के ऊपर बैठ कर --
तब नहीं लगता क्या पास ही में है कश्मीर ?
ये, यहीं तो है देश का तार पर सुखाने के लिए लटकाया गया कश्मीर का अण्डरवियर
ये, यहीं तो है कश्मीर की ओवरडोज़ उल्टी
ये, यहीं तो है कश्मीर की ऐतिहासिक बलग़म
ये, यहीं तो है कश्मीर का नसबन्दी कराया गया गुप्तांग
जब शान्त पत्ते डोलते हैं यूँ ही
और कच्ची राजनीति के टेढ़े मेढ़े रास्ते में
गिर जाती है
सुनमाया की डोको से लकड़ी
जब टानी गई जीभ से टप-टप टपकता है ख़ून
चिचियाता हुआ मौनता की
नदी की छाती में
जब घर के अन्दर बैठी दहशत
चेतना बन कर खुले चौक में घूमती है
सत्ता की कानूनी बारूद सूँघते हुए
जब घर के बाहर निकलकर घाव
फटा हाफ़पैंट पहन कर दवा की मैराथन दौड़ता है --
तब नहीं लगता पास ही में है कश्मीर ?
कहाँ है दूर कश्मीर ?
एक हाथ दूर भूमि में दागी गई गोली की दबी हुई चीख़
क्या जोड़-जोड़ से सुनाई नहीं देती ?
एक चरण दूर की मिट्टी में गिरा ख़ून का चमकता चेहरा
क्या पहचान में नहीं आता ?
बस इतना ही पुछ रहा हूँ दार्जिलिङ तुझ से
कि क्या कश्मीर दूर है ?
मूल नेपाली से अनुवाद स्वयं कवि द्वारा