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राग देवगान्धार, ताल रूपक 17.8.1974
मन! जुनि वृथा डरि डरि डरि।
हैं सहायक दीन जन के सदा हरि हरि हरि॥
छोरि सब की आस तिन की सरन परि परि परि।
तिनहिको ह्वै रह सदा परतीति करि करि करि॥1॥
जगे तिन को विरह तो अघ जायँ जरि जरि जरि।
होय निरमल हृदय जागै प्रीति फरि फरि फरि॥2॥
जगै हिय में सरस रति-रस झरै झरि झरि झरि।
रहै तन-मन की न सुधि, बस रहैं हरि हरि हरि॥3॥
होय हरिमय सकल जग, भय जाय टरि टरि टरि।
रहै केवल प्रीति उर रस जाय भरि भरि भरि॥4॥