भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"यह मन-अनत-अनत ही भटकै / स्वामी सनातनदेव" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
<poem> | <poem> | ||
राग जोगकोश, तीन ताल 22.7.1974 | राग जोगकोश, तीन ताल 22.7.1974 | ||
+ | |||
यह मन अनत<ref>अन्यत्र, दूसरी जगह</ref> अनत हो भटकै। | यह मन अनत<ref>अन्यत्र, दूसरी जगह</ref> अनत हो भटकै। | ||
जहाँ नाहिं कछु लैनो-देनो तहूँ आय क्यों लटकै॥ | जहाँ नाहिं कछु लैनो-देनो तहूँ आय क्यों लटकै॥ | ||
पंक्ति 20: | पंक्ति 21: | ||
जो तुम्हरी ह्वै जाय, न फिर यह जाय कतहुँ फिरि-फिरि कै॥4॥ | जो तुम्हरी ह्वै जाय, न फिर यह जाय कतहुँ फिरि-फिरि कै॥4॥ | ||
</poem> | </poem> | ||
+ | {{KKMeaning}} |
20:39, 9 जनवरी 2015 के समय का अवतरण
राग जोगकोश, तीन ताल 22.7.1974
यह मन अनत<ref>अन्यत्र, दूसरी जगह</ref> अनत हो भटकै।
जहाँ नाहिं कछु लैनो-देनो तहूँ आय क्यों लटकै॥
जान्यौ सभी असार तदपि यह तहीं-तहीं क्यों अटकै।
वृथा अनर्गल भटकि-भटकि यह जहाँ-तहाँ सिर पटकै॥1॥
अपनी यह भटकन मनमोहन! जदपि याहि अति खटकै-
तदपि स्वान की पूँछ सरिस यह अपनी बान न झटकै॥2॥
हौं हार्यौ करि जतन तदपि यह रहत न मेरे हटकै।
तुमही कृपा करहु कछु ऐसी रहै तुमहिमें डटकै॥3॥
मैं तो तुमहिं दियो, पै तुमहूँ लेहु याहि निज करिकै।
जो तुम्हरी ह्वै जाय, न फिर यह जाय कतहुँ फिरि-फिरि कै॥4॥
शब्दार्थ
<references/>