"काम / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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"मधुमय वसंत जीवन-वन के, | "मधुमय वसंत जीवन-वन के, | ||
− | बह अंतरिक्ष की लहरों | + | बह अंतरिक्ष की लहरों में। |
− | कब आये थे तुम चुपके से | + | कब आये थे तुम चुपके से, |
रजनी के पिछले पहरों में? | रजनी के पिछले पहरों में? | ||
− | क्या तुम्हें देखकर आते यों | + | क्या तुम्हें देखकर आते यों, |
मतवाली कोयल बोली थी? | मतवाली कोयल बोली थी? | ||
− | उस नीरवता में अलसाई | + | उस नीरवता में अलसाई, |
− | कलियों ने आँखे खोली | + | कलियों ने आँखे खोली थीं? |
− | जब लीला से तुम सीख रहे | + | जब लीला से तुम सीख रहे, |
− | कोरक-कोने में लुक | + | कोरक-कोने में लुक करना। |
− | तब शिथिल सुरभि से धरणी में | + | तब शिथिल सुरभि से धरणी में, |
− | बिछलन न हुई थी? सच | + | बिछलन न हुई थी? सच कहना। |
− | जब लिखते थे तुम सरस हँसी | + | जब लिखते थे तुम सरस हँसी, |
− | अपनी, फूलों के अंचल | + | अपनी, फूलों के अंचल में। |
− | अपना कल कंठ मिलाते थे | + | अपना कल कंठ मिलाते थे, |
झरनों के कोमल कल-कल में। | झरनों के कोमल कल-कल में। | ||
निश्चित आह वह था कितना, | निश्चित आह वह था कितना, | ||
− | उल्लास, काकली के स्वर | + | उल्लास, काकली के स्वर में। |
− | आनन्द प्रतिध्वनि गूँज रही | + | आनन्द प्रतिध्वनि गूँज रही, |
जीवन दिगंत के अंबर में। | जीवन दिगंत के अंबर में। | ||
शिशु चित्रकार! चंचलता में, | शिशु चित्रकार! चंचलता में, | ||
कितनी आशा चित्रित करते! | कितनी आशा चित्रित करते! | ||
− | अस्पष्ट एक लिपि ज्योतिमयी | + | अस्पष्ट एक लिपि ज्योतिमयी, |
जीवन की आँखों में भरते। | जीवन की आँखों में भरते। | ||
− | लतिका घूँघट से चितवन की | + | लतिका घूँघट से चितवन की, |
− | कुसुम-दुग्ध-सी मधु- | + | वह कुसुम-दुग्ध-सी मधु-धारा। |
− | प्लावित करती मन-अजिर रही | + | प्लावित करती मन-अजिर रही, |
था तुच्छ विश्व वैभव सारा। | था तुच्छ विश्व वैभव सारा। | ||
− | वे फूल और वह हँसी रही | + | वे फूल और वह हँसी रही, |
− | सौरभ, वह निश्वास | + | वह सौरभ, वह निश्वास छना। |
− | वह कलरव, वह संगीत अरे | + | वह कलरव, वह संगीत अरे! |
− | वह कोलाहल एकांत | + | वह कोलाहल एकांत बना।" |
− | कहते-कहते कुछ सोच रहे | + | कहते-कहते कुछ सोच रहे, |
− | लेकर निश्वास निराशा | + | लेकर निश्वास निराशा की। |
− | मनु अपने मन की बात, | + | मनु अपने मन की बात,रुकी, |
− | + | फिर भी न प्रगति अभिलाषा की। | |
"ओ नील आवरण जगती के! | "ओ नील आवरण जगती के! | ||
− | दुर्बोध न तू ही है | + | दुर्बोध न तू ही है इतना। |
− | अवगुंठन होता आँखों का | + | अवगुंठन होता आँखों का, |
आलोक रूप बनता जितना। | आलोक रूप बनता जितना। | ||
− | चल-चक्र | + | चल-चक्र वरुण का ज्योति भरा |
व्याकुल तू क्यों देता फेरी? | व्याकुल तू क्यों देता फेरी? | ||
− | तारों के फूल बिखरते हैं | + | तारों के फूल बिखरते हैं, |
लुटती है असफलता तेरी। | लुटती है असफलता तेरी। | ||
− | नव नील कुंज हैं झूम रहे | + | नव नील कुंज हैं झूम रहे, |
− | कुसुमों की कथा न बंद | + | कुसुमों की कथा न बंद हुई। |
− | है अतंरिक्ष आमोद भरा हिम- | + | है अतंरिक्ष आमोद भरा, |
− | कणिका ही मकरंद हुई। | + | हिम-कणिका ही मकरंद हुई। |
− | इस इंदीवर से गंध भरी | + | इस इंदीवर से गंध भरी, |
− | बुनती जाली मधु की | + | बुनती जाली मधु की धारा। |
− | मन-मधुकर की अनुरागमयी | + | मन-मधुकर की अनुरागमयी, |
बन रही मोहिनी-सी कारा। | बन रही मोहिनी-सी कारा। | ||
− | अणुओं को है विश्राम कहाँ | + | अणुओं को है विश्राम कहाँ? |
− | यह कृतिमय वेग भरा | + | यह कृतिमय वेग भरा कितना। |
अविराम नाचता कंपन है, | अविराम नाचता कंपन है, | ||
उल्लास सजीव हुआ कितना? | उल्लास सजीव हुआ कितना? | ||
− | उन नृत्य-शिथिल-निश्वासों की | + | उन नृत्य-शिथिल-निश्वासों की, |
कितनी है मोहमयी माया? | कितनी है मोहमयी माया? | ||
− | जिनसे समीर छनता-छनता | + | जिनसे समीर छनता-छनता, |
बनता है प्राणों की छाया। | बनता है प्राणों की छाया। | ||
− | आकाश-रंध्र हैं पूरित-से | + | आकाश-रंध्र हैं पूरित-से, |
− | यह सृष्टि गहन-सी होती | + | यह सृष्टि गहन-सी होती है। |
− | आलोक सभी मूर्छित सोते | + | आलोक सभी मूर्छित सोते, |
यह आँख थकी-सी रोती है। | यह आँख थकी-सी रोती है। | ||
− | सौंदर्यमयी चंचल कृतियाँ | + | सौंदर्यमयी चंचल कृतियाँ, |
− | बनकर रहस्य हैं नाच | + | बनकर रहस्य हैं नाच रहीं। |
− | मेरी आँखों को रोक | + | मेरी आँखों को रोक वही, |
− | आगे बढने में जाँच | + | आगे बढने में जाँच रहीं। |
− | मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी | + | मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी, |
वह सब क्या छाया उलझन है? | वह सब क्या छाया उलझन है? | ||
− | सुंदरता के इस परदे में | + | सुंदरता के इस परदे में, |
क्या अन्य धरा कोई धन है? | क्या अन्य धरा कोई धन है? | ||
− | मेरी अक्षय निधि तुम क्या हो | + | मेरी अक्षय निधि तुम क्या हो, |
पहचान सकूँगा क्या न तुम्हें? | पहचान सकूँगा क्या न तुम्हें? | ||
− | उलझन प्राणों के धागों की | + | उलझन प्राणों के धागों की, |
− | सुलझन का | + | सुलझन का समझूँ मान तुम्हें। |
− | माधवी निशा की अलसाई | + | माधवी निशा की अलसाई, |
− | अलकों में लुकते तारा- | + | अलकों में लुकते तारा-सी। |
− | क्या हो सूने-मरु अंचल में | + | क्या हो सूने-मरु अंचल में, |
− | अंतःसलिला की धारा- | + | अंतःसलिला की धारा-सी। |
− | श्रुतियों में चुपके-चुपके से कोई | + | श्रुतियों में चुपके-चुपके से कोई, |
मधु-धारा घोल रहा, | मधु-धारा घोल रहा, | ||
− | इस नीरवता के परदे में | + | इस नीरवता के परदे में, |
जैसे कोई कुछ बोल रहा। | जैसे कोई कुछ बोल रहा। | ||
− | है स्पर्श मलय के झिलमिल सा | + | है स्पर्श मलय के झिलमिल सा, |
− | संज्ञा को और सुलाता | + | संज्ञा को और सुलाता है। |
− | पुलकित हो आँखे बंद किये | + | पुलकित हो आँखे बंद किये, |
तंद्रा को पास बुलाता है। | तंद्रा को पास बुलाता है। | ||
− | + | व्रीड़ा है यह चंचल कितनी, | |
− | विभ्रम से घूँघट खींच | + | विभ्रम से घूँघट खींच रही। |
− | छिपने पर स्वयं मृदुल कर से | + | छिपने पर स्वयं मृदुल कर से, |
क्यों मेरी आँखे मींच रही? | क्यों मेरी आँखे मींच रही? | ||
− | उद्बुद्ध क्षितिज की श्याम छटा | + | उद्बुद्ध क्षितिज की श्याम छटा, |
− | इस उदित शुक्र की छाया | + | इस उदित शुक्र की छाया में। |
− | ऊषा-सा कौन रहस्य लिये | + | ऊषा-सा कौन रहस्य लिये, |
सोती किरनों की काया में। | सोती किरनों की काया में। | ||
− | उठती है किरनों के ऊपर | + | उठती है किरनों के ऊपर, |
− | कोमल किसलय की छाजन- | + | कोमल किसलय की छाजन-सी। |
− | स्वर का मधु-निस्वन रंध्रों में | + | स्वर का मधु-निस्वन रंध्रों में, |
जैसे कुछ दूर बजे बंसी। | जैसे कुछ दूर बजे बंसी। | ||
सब कहते हैं- 'खोलो खोलो, | सब कहते हैं- 'खोलो खोलो, | ||
− | छवि देखूँगा जीवन धन की' | + | छवि देखूँगा जीवन धन की'। |
− | आवरन स्वयं बनते जाते हैं | + | आवरन स्वयं बनते जाते हैं, |
भीड़ लग रही दर्शन की। | भीड़ लग रही दर्शन की। | ||
− | चाँदनी सदृश खुल जाय कहीं | + | चाँदनी सदृश खुल जाय कहीं, |
− | + | अवगुंठन आज सँवरता सा, | |
− | जिसमें अनंत कल्लोल भरा | + | जिसमें अनंत कल्लोल भरा, |
− | लहरों में मस्त विचरता | + | लहरों में मस्त विचरता सा। |
− | अपना फेनिल फन पटक रहा | + | अपना फेनिल फन पटक रहा, |
− | मणियों का जाल लुटाता- | + | मणियों का जाल लुटाता-सा। |
− | उनिन्द्र दिखाई देता हो | + | उनिन्द्र दिखाई देता हो, |
उन्मत्त हुआ कुछ गाता-सा।" | उन्मत्त हुआ कुछ गाता-सा।" | ||
− | "जो कुछ हो, मैं न सम्हालूँगा | + | "जो कुछ हो, मैं न सम्हालूँगा, |
− | इस मधुर भार को जीवन | + | इस मधुर भार को जीवन के। |
− | आने दो कितनी आती हैं | + | आने दो कितनी आती हैं, |
बाधायें दम-संयम बन के। | बाधायें दम-संयम बन के। | ||
− | नक्षत्रों, तुम क्या देखोगे | + | नक्षत्रों, तुम क्या देखोगे, |
इस ऊषा की लाली क्या है? | इस ऊषा की लाली क्या है? | ||
− | संकल्प भरा है उनमें | + | संकल्प भरा है उनमें |
संदेहों की जाली क्या है? | संदेहों की जाली क्या है? | ||
− | कौशल यह कोमल कितना है | + | कौशल यह कोमल कितना है, |
सुषमा दुर्भेद्य बनेगी क्या? | सुषमा दुर्भेद्य बनेगी क्या? | ||
− | चेतना | + | चेतना इंद्रियों की मेरी, |
मेरी ही हार बनेगी क्या? | मेरी ही हार बनेगी क्या? | ||
− | "पीता हूँ, हाँ मैं पीता हूँ | + | "पीता हूँ, हाँ मैं पीता हूँ, |
− | स्पर्श,रूप, रस गंध भरा मधु, | + | यह स्पर्श,रूप, रस गंध भरा |
− | लहरों के टकराने से | + | मधु, लहरों के टकराने से, |
ध्वनि में है क्या गुंजार भरा। | ध्वनि में है क्या गुंजार भरा। | ||
− | तारा बनकर यह बिखर रहा | + | तारा बनकर यह बिखर रहा, |
− | क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे | + | क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे! |
− | मादकता-माती नींद लिये | + | मादकता-माती नींद लिये, |
सोऊँ मन में अवसाद भरे। | सोऊँ मन में अवसाद भरे। | ||
− | चेतना शिथिल-सी होती है | + | चेतना शिथिल-सी होती है, |
− | उन अधंकार की लहरों में | + | उन अधंकार की लहरों में" |
मनु डूब चले धीरे-धीरे | मनु डूब चले धीरे-धीरे | ||
रजनी के पिछले पहरों में। | रजनी के पिछले पहरों में। | ||
− | उस दूर क्षितिज में सृष्टि बनी | + | उस दूर क्षितिज में सृष्टि बनी, |
− | स्मृतियों की संचित छाया | + | स्मृतियों की संचित छाया से। |
− | इस मन को है विश्राम कहाँ | + | इस मन को है विश्राम कहाँ, |
चंचल यह अपनी माया से। | चंचल यह अपनी माया से। | ||
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19:05, 8 फ़रवरी 2015 का अवतरण
"मधुमय वसंत जीवन-वन के,
बह अंतरिक्ष की लहरों में।
कब आये थे तुम चुपके से,
रजनी के पिछले पहरों में?
क्या तुम्हें देखकर आते यों,
मतवाली कोयल बोली थी?
उस नीरवता में अलसाई,
कलियों ने आँखे खोली थीं?
जब लीला से तुम सीख रहे,
कोरक-कोने में लुक करना।
तब शिथिल सुरभि से धरणी में,
बिछलन न हुई थी? सच कहना।
जब लिखते थे तुम सरस हँसी,
अपनी, फूलों के अंचल में।
अपना कल कंठ मिलाते थे,
झरनों के कोमल कल-कल में।
निश्चित आह वह था कितना,
उल्लास, काकली के स्वर में।
आनन्द प्रतिध्वनि गूँज रही,
जीवन दिगंत के अंबर में।
शिशु चित्रकार! चंचलता में,
कितनी आशा चित्रित करते!
अस्पष्ट एक लिपि ज्योतिमयी,
जीवन की आँखों में भरते।
लतिका घूँघट से चितवन की,
वह कुसुम-दुग्ध-सी मधु-धारा।
प्लावित करती मन-अजिर रही,
था तुच्छ विश्व वैभव सारा।
वे फूल और वह हँसी रही,
वह सौरभ, वह निश्वास छना।
वह कलरव, वह संगीत अरे!
वह कोलाहल एकांत बना।"
कहते-कहते कुछ सोच रहे,
लेकर निश्वास निराशा की।
मनु अपने मन की बात,रुकी,
फिर भी न प्रगति अभिलाषा की।
"ओ नील आवरण जगती के!
दुर्बोध न तू ही है इतना।
अवगुंठन होता आँखों का,
आलोक रूप बनता जितना।
चल-चक्र वरुण का ज्योति भरा
व्याकुल तू क्यों देता फेरी?
तारों के फूल बिखरते हैं,
लुटती है असफलता तेरी।
नव नील कुंज हैं झूम रहे,
कुसुमों की कथा न बंद हुई।
है अतंरिक्ष आमोद भरा,
हिम-कणिका ही मकरंद हुई।
इस इंदीवर से गंध भरी,
बुनती जाली मधु की धारा।
मन-मधुकर की अनुरागमयी,
बन रही मोहिनी-सी कारा।
अणुओं को है विश्राम कहाँ?
यह कृतिमय वेग भरा कितना।
अविराम नाचता कंपन है,
उल्लास सजीव हुआ कितना?
उन नृत्य-शिथिल-निश्वासों की,
कितनी है मोहमयी माया?
जिनसे समीर छनता-छनता,
बनता है प्राणों की छाया।
आकाश-रंध्र हैं पूरित-से,
यह सृष्टि गहन-सी होती है।
आलोक सभी मूर्छित सोते,
यह आँख थकी-सी रोती है।
सौंदर्यमयी चंचल कृतियाँ,
बनकर रहस्य हैं नाच रहीं।
मेरी आँखों को रोक वही,
आगे बढने में जाँच रहीं।
मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी,
वह सब क्या छाया उलझन है?
सुंदरता के इस परदे में,
क्या अन्य धरा कोई धन है?
मेरी अक्षय निधि तुम क्या हो,
पहचान सकूँगा क्या न तुम्हें?
उलझन प्राणों के धागों की,
सुलझन का समझूँ मान तुम्हें।
माधवी निशा की अलसाई,
अलकों में लुकते तारा-सी।
क्या हो सूने-मरु अंचल में,
अंतःसलिला की धारा-सी।
श्रुतियों में चुपके-चुपके से कोई,
मधु-धारा घोल रहा,
इस नीरवता के परदे में,
जैसे कोई कुछ बोल रहा।
है स्पर्श मलय के झिलमिल सा,
संज्ञा को और सुलाता है।
पुलकित हो आँखे बंद किये,
तंद्रा को पास बुलाता है।
व्रीड़ा है यह चंचल कितनी,
विभ्रम से घूँघट खींच रही।
छिपने पर स्वयं मृदुल कर से,
क्यों मेरी आँखे मींच रही?
उद्बुद्ध क्षितिज की श्याम छटा,
इस उदित शुक्र की छाया में।
ऊषा-सा कौन रहस्य लिये,
सोती किरनों की काया में।
उठती है किरनों के ऊपर,
कोमल किसलय की छाजन-सी।
स्वर का मधु-निस्वन रंध्रों में,
जैसे कुछ दूर बजे बंसी।
सब कहते हैं- 'खोलो खोलो,
छवि देखूँगा जीवन धन की'।
आवरन स्वयं बनते जाते हैं,
भीड़ लग रही दर्शन की।
चाँदनी सदृश खुल जाय कहीं,
अवगुंठन आज सँवरता सा,
जिसमें अनंत कल्लोल भरा,
लहरों में मस्त विचरता सा।
अपना फेनिल फन पटक रहा,
मणियों का जाल लुटाता-सा।
उनिन्द्र दिखाई देता हो,
उन्मत्त हुआ कुछ गाता-सा।"
"जो कुछ हो, मैं न सम्हालूँगा,
इस मधुर भार को जीवन के।
आने दो कितनी आती हैं,
बाधायें दम-संयम बन के।
नक्षत्रों, तुम क्या देखोगे,
इस ऊषा की लाली क्या है?
संकल्प भरा है उनमें
संदेहों की जाली क्या है?
कौशल यह कोमल कितना है,
सुषमा दुर्भेद्य बनेगी क्या?
चेतना इंद्रियों की मेरी,
मेरी ही हार बनेगी क्या?
"पीता हूँ, हाँ मैं पीता हूँ,
यह स्पर्श,रूप, रस गंध भरा
मधु, लहरों के टकराने से,
ध्वनि में है क्या गुंजार भरा।
तारा बनकर यह बिखर रहा,
क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे!
मादकता-माती नींद लिये,
सोऊँ मन में अवसाद भरे।
चेतना शिथिल-सी होती है,
उन अधंकार की लहरों में"
मनु डूब चले धीरे-धीरे
रजनी के पिछले पहरों में।
उस दूर क्षितिज में सृष्टि बनी,
स्मृतियों की संचित छाया से।
इस मन को है विश्राम कहाँ,
चंचल यह अपनी माया से।