भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"प्रयाग / नरेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
लेखक: [[नरेन्द्र शर्मा]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:नरेन्द्र शर्मा]]
+
{{KKRachna
 
+
|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
+
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
<b>१</b><br><br>
+
<poem>
 
+
:::
 
मैं बन्दी बन्दी मधुप, और यह गुंजित मम स्नेहानुराग,
 
मैं बन्दी बन्दी मधुप, और यह गुंजित मम स्नेहानुराग,
 
 
संगम की गोदी में पोषित शोभित तू शतदल प्रयाग !
 
संगम की गोदी में पोषित शोभित तू शतदल प्रयाग !
  
 
विधि की बाहें गंगा-यमुना तेरे सुवक्ष पर कंठहार,--
 
विधि की बाहें गंगा-यमुना तेरे सुवक्ष पर कंठहार,--
 
 
लहराती आतीं गिरि-पथ से, लहरों में भर शोभा अपार !
 
लहराती आतीं गिरि-पथ से, लहरों में भर शोभा अपार !
  
 
देखा करता हूँ गंगा में उगता गुलाब-सा अरुण प्रात,
 
देखा करता हूँ गंगा में उगता गुलाब-सा अरुण प्रात,
 
 
यमुना की नीली लहरों में नहला तन ऊठती नित्य रात !
 
यमुना की नीली लहरों में नहला तन ऊठती नित्य रात !
  
 
गंगा-यमुना की लहरों में कण-कण में मणि नयनाभिराम
 
गंगा-यमुना की लहरों में कण-कण में मणि नयनाभिराम
 
 
बिखरा देती है साँझ हुए नारंगी रँग की शान्त शाम !
 
बिखरा देती है साँझ हुए नारंगी रँग की शान्त शाम !
  
 
तेरे प्रसाद के लिए, तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ
 
तेरे प्रसाद के लिए, तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ
 
 
पल्लव के रुचिर किरीट पहन आता अब भी ऋतुराज वहाँ !
 
पल्लव के रुचिर किरीट पहन आता अब भी ऋतुराज वहाँ !
  
 
कर दैन्य-दुःख-हेमन्त-अन्त वैभव से भर सब शुष्क वृन्त
 
कर दैन्य-दुःख-हेमन्त-अन्त वैभव से भर सब शुष्क वृन्त
 
 
हर साल हर्ष के ही समान सुख-हर्ष-पुष्प लाता वसन्त !
 
हर साल हर्ष के ही समान सुख-हर्ष-पुष्प लाता वसन्त !
  
 
स्वर्णिम मयूर-से नृत्य करते उपवन में गोल्ड मोहर,
 
स्वर्णिम मयूर-से नृत्य करते उपवन में गोल्ड मोहर,
 
 
कुहुका करती पिक छिप छिप कर तरुओं में रत प्रत्येक प्रहर !
 
कुहुका करती पिक छिप छिप कर तरुओं में रत प्रत्येक प्रहर !
  
 
भर जाती मीठी सौरभ-से कड़वे नीमों की डाल डाल,
 
भर जाती मीठी सौरभ-से कड़वे नीमों की डाल डाल,
 
 
लद जाते चलदल पर असंख्य नवदल प्रवाल के जाल लाल !
 
लद जाते चलदल पर असंख्य नवदल प्रवाल के जाल लाल !
  
 
'मधु आया', कहते हँस प्रसून, पल्लव 'हाँ' कह कह हिल जाते
 
'मधु आया', कहते हँस प्रसून, पल्लव 'हाँ' कह कह हिल जाते
 
 
आलिंगन भर, मधु-गंध-भरी बहती समीर जब दिन आते !
 
आलिंगन भर, मधु-गंध-भरी बहती समीर जब दिन आते !
  
 
शुचि स्वच्छ और चौड़ी सड़कों के हरे-भरे तेरे घर में,
 
शुचि स्वच्छ और चौड़ी सड़कों के हरे-भरे तेरे घर में,
 
 
सबको सुख से भर देता है ऋतुपति पल भर के अन्तर में !
 
सबको सुख से भर देता है ऋतुपति पल भर के अन्तर में !
  
 
मधु के दिन पर कितने दिन के ! -- आतप में तप जल जाता सब
 
मधु के दिन पर कितने दिन के ! -- आतप में तप जल जाता सब
 
 
तू सिखलाता, कैसे केवल पल भर का है जग का वैभव !
 
तू सिखलाता, कैसे केवल पल भर का है जग का वैभव !
  
 
इस स्वर्ण-परीक्षा से दीक्षा ले ज्ञानी बन मन-नीरजात,
 
इस स्वर्ण-परीक्षा से दीक्षा ले ज्ञानी बन मन-नीरजात,
 
 
शीतल हो जाता, आती है जब सावन की मुख-सरस रात !
 
शीतल हो जाता, आती है जब सावन की मुख-सरस रात !
  
 
जब रहा-सहा दुख धुल जाता, मन शुभ्र शरद्-सा खिल जाता
 
जब रहा-सहा दुख धुल जाता, मन शुभ्र शरद्-सा खिल जाता
 
 
यों दीपमिलिका में आलोकित कर पथ विमल शरद् आता !
 
यों दीपमिलिका में आलोकित कर पथ विमल शरद् आता !
  
 
ऋतुओं का पहिया इसी तरह घूमा करता प्रतिवर्ष यहाँ,
 
ऋतुओं का पहिया इसी तरह घूमा करता प्रतिवर्ष यहाँ,
 
 
तेरे प्रसाद के लिए तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ !
 
तेरे प्रसाद के लिए तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ !
  
 
खुसरू का बाग सिखाता है, है धूप-छाँह-सी यह माया,
 
खुसरू का बाग सिखाता है, है धूप-छाँह-सी यह माया,
 
 
वृक्षों के नीचे लिख जाती है यों ही नित चंचल छाया !
 
वृक्षों के नीचे लिख जाती है यों ही नित चंचल छाया !
  
 
वह दुर्ग !--जहाँ उस शान्ति-स्तम्भ में मूर्तिमान अब तक अशोक,
 
वह दुर्ग !--जहाँ उस शान्ति-स्तम्भ में मूर्तिमान अब तक अशोक,
 
 
था गर्व कभी, पर आज जगाता है उर उर में क्षोभ-शोक !
 
था गर्व कभी, पर आज जगाता है उर उर में क्षोभ-शोक !
  
 
तू सीख त्याग, तू सीख प्रेम, तू नियम-नेम ले अज्ञानी--
 
तू सीख त्याग, तू सीख प्रेम, तू नियम-नेम ले अज्ञानी--
 
 
क्या पत्थर पर अब तक अंकित यह दया-द्रवित कोमल वाणी?--
 
क्या पत्थर पर अब तक अंकित यह दया-द्रवित कोमल वाणी?--
  
 
जिसमें बोले होंगे गद्गद वे शान्ति-स्नेह के अभिलाषी--
 
जिसमें बोले होंगे गद्गद वे शान्ति-स्नेह के अभिलाषी--
 
 
दृग भर भर शोकाकुल अशोक; सम्राट्, भिक्षु औ' संन्यासी !
 
दृग भर भर शोकाकुल अशोक; सम्राट्, भिक्षु औ' संन्यासी !
  
 
उस पत्थर अंकित है क्या ? क्या त्याग, शान्ति, तप की वाणी ?
 
उस पत्थर अंकित है क्या ? क्या त्याग, शान्ति, तप की वाणी ?
 
 
जिससे सीखें जीवन-संयम, सर्वत्र-शान्ति सब अज्ञानी !
 
जिससे सीखें जीवन-संयम, सर्वत्र-शान्ति सब अज्ञानी !
  
 
संदेश शान्ति का ही होगा, पर अब जो कुछ वह लाचारी--
 
संदेश शान्ति का ही होगा, पर अब जो कुछ वह लाचारी--
 
 
बन्दी बल-हीन गुलामों की जड़मूक बेबसी बेचारी !
 
बन्दी बल-हीन गुलामों की जड़मूक बेबसी बेचारी !
  
 
दुख भी हलका हो जाता है अब देख देख परिवर्तन-क्रम,
 
दुख भी हलका हो जाता है अब देख देख परिवर्तन-क्रम,
 
 
फिर कभी सोचने लगता हूँ यह जीवन सुख-दुख का संगम !
 
फिर कभी सोचने लगता हूँ यह जीवन सुख-दुख का संगम !
  
 
बेबसी सदा की नहीं, सदा की नहीं गुलामी भी मेरी,
 
बेबसी सदा की नहीं, सदा की नहीं गुलामी भी मेरी,
 
 
हे काल क्रूर, सुन ! कभी नहीं क्या करवट बदलेगी तेरी ?
 
हे काल क्रूर, सुन ! कभी नहीं क्या करवट बदलेगी तेरी ?
  
+
:::
 
+
<b></b>
+
 
+
+
 
+
 
यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट,
 
यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट,
 
 
मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट ! --
 
मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट ! --
  
 
क्या इसके अजर-पत्र पर चढ़ जीवन जीतेगा महाप्रलय ?
 
क्या इसके अजर-पत्र पर चढ़ जीवन जीतेगा महाप्रलय ?
 
 
कह, जीवन में क्षमता है यदि तो तम से हो प्रकाश निर्भय !
 
कह, जीवन में क्षमता है यदि तो तम से हो प्रकाश निर्भय !
  
 
मैं भी फिर नित निर्भय खोजूँ शाश्वत प्रकाश अक्षय जीवन,
 
मैं भी फिर नित निर्भय खोजूँ शाश्वत प्रकाश अक्षय जीवन,
 
 
निर्भय गाऊँ, मैं शान्त करूँ इस मृत्युभित जग का क्रन्दन !
 
निर्भय गाऊँ, मैं शान्त करूँ इस मृत्युभित जग का क्रन्दन !
  
 
है नये जन्म का नाम मृत्यु, है नई शक्ति का नाम ह्रास, --
 
है नये जन्म का नाम मृत्यु, है नई शक्ति का नाम ह्रास, --
 
 
है आदि अन्त का, अन्त आदि का यों सब दिन क्रम-बद्ध ग्रास !
 
है आदि अन्त का, अन्त आदि का यों सब दिन क्रम-बद्ध ग्रास !
  
 
प्यारे प्रयाग ! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला,
 
प्यारे प्रयाग ! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला,
 
 
था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला !
 
था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला !
  
 
कवि-हृदय मिला, मन-मुकुल खिला, अर्पित है जो श्री चरणों में,
 
कवि-हृदय मिला, मन-मुकुल खिला, अर्पित है जो श्री चरणों में,
 
 
पर हो न सकेगा अभिनन्दन मेरे इन कृत्रिम वर्णों में !
 
पर हो न सकेगा अभिनन्दन मेरे इन कृत्रिम वर्णों में !
  
ये कृत्रिम, तू सत्-पृकृति-रूप, हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज !
+
ये कृत्रिम, तू सत्-प्रकृति-रूप, हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज !
 
+
 
क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !
 
क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !
  
 
दे शुभाशीस, हे पुण्यधाम !, वाणी कल्याणी हो प्रकाम--
 
दे शुभाशीस, हे पुण्यधाम !, वाणी कल्याणी हो प्रकाम--
 
 
स्वीकृत हो अब श्री चरणों में बन्दी का यह अन्तिम प्रणाम !
 
स्वीकृत हो अब श्री चरणों में बन्दी का यह अन्तिम प्रणाम !
  
 
तेरे चरणों में शीश धरे आये होंगे कितने नरेन्द्र,
 
तेरे चरणों में शीश धरे आये होंगे कितने नरेन्द्र,
 
 
कितने ही आये, चले गये, कुछ दिन रह अभिमानी महेन्द्र !
 
कितने ही आये, चले गये, कुछ दिन रह अभिमानी महेन्द्र !
  
 
मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज !
 
मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज !
 
+
क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !!
क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अन्न्त गुण-गान आज !!
+
</poem>

15:55, 14 मार्च 2015 के समय का अवतरण


मैं बन्दी बन्दी मधुप, और यह गुंजित मम स्नेहानुराग,
संगम की गोदी में पोषित शोभित तू शतदल प्रयाग !

विधि की बाहें गंगा-यमुना तेरे सुवक्ष पर कंठहार,--
लहराती आतीं गिरि-पथ से, लहरों में भर शोभा अपार !

देखा करता हूँ गंगा में उगता गुलाब-सा अरुण प्रात,
यमुना की नीली लहरों में नहला तन ऊठती नित्य रात !

गंगा-यमुना की लहरों में कण-कण में मणि नयनाभिराम
बिखरा देती है साँझ हुए नारंगी रँग की शान्त शाम !

तेरे प्रसाद के लिए, तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ
पल्लव के रुचिर किरीट पहन आता अब भी ऋतुराज वहाँ !

कर दैन्य-दुःख-हेमन्त-अन्त वैभव से भर सब शुष्क वृन्त
हर साल हर्ष के ही समान सुख-हर्ष-पुष्प लाता वसन्त !

स्वर्णिम मयूर-से नृत्य करते उपवन में गोल्ड मोहर,
कुहुका करती पिक छिप छिप कर तरुओं में रत प्रत्येक प्रहर !

भर जाती मीठी सौरभ-से कड़वे नीमों की डाल डाल,
लद जाते चलदल पर असंख्य नवदल प्रवाल के जाल लाल !

'मधु आया', कहते हँस प्रसून, पल्लव 'हाँ' कह कह हिल जाते
आलिंगन भर, मधु-गंध-भरी बहती समीर जब दिन आते !

शुचि स्वच्छ और चौड़ी सड़कों के हरे-भरे तेरे घर में,
सबको सुख से भर देता है ऋतुपति पल भर के अन्तर में !

मधु के दिन पर कितने दिन के ! -- आतप में तप जल जाता सब
तू सिखलाता, कैसे केवल पल भर का है जग का वैभव !

इस स्वर्ण-परीक्षा से दीक्षा ले ज्ञानी बन मन-नीरजात,
शीतल हो जाता, आती है जब सावन की मुख-सरस रात !

जब रहा-सहा दुख धुल जाता, मन शुभ्र शरद्-सा खिल जाता
यों दीपमिलिका में आलोकित कर पथ विमल शरद् आता !

ऋतुओं का पहिया इसी तरह घूमा करता प्रतिवर्ष यहाँ,
तेरे प्रसाद के लिए तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ !

खुसरू का बाग सिखाता है, है धूप-छाँह-सी यह माया,
वृक्षों के नीचे लिख जाती है यों ही नित चंचल छाया !

वह दुर्ग !--जहाँ उस शान्ति-स्तम्भ में मूर्तिमान अब तक अशोक,
था गर्व कभी, पर आज जगाता है उर उर में क्षोभ-शोक !

तू सीख त्याग, तू सीख प्रेम, तू नियम-नेम ले अज्ञानी--
क्या पत्थर पर अब तक अंकित यह दया-द्रवित कोमल वाणी?--

जिसमें बोले होंगे गद्गद वे शान्ति-स्नेह के अभिलाषी--
दृग भर भर शोकाकुल अशोक; सम्राट्, भिक्षु औ' संन्यासी !

उस पत्थर अंकित है क्या ? क्या त्याग, शान्ति, तप की वाणी ?
जिससे सीखें जीवन-संयम, सर्वत्र-शान्ति सब अज्ञानी !

संदेश शान्ति का ही होगा, पर अब जो कुछ वह लाचारी--
बन्दी बल-हीन गुलामों की जड़मूक बेबसी बेचारी !

दुख भी हलका हो जाता है अब देख देख परिवर्तन-क्रम,
फिर कभी सोचने लगता हूँ यह जीवन सुख-दुख का संगम !

बेबसी सदा की नहीं, सदा की नहीं गुलामी भी मेरी,
हे काल क्रूर, सुन ! कभी नहीं क्या करवट बदलेगी तेरी ?


यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट,
मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट ! --

क्या इसके अजर-पत्र पर चढ़ जीवन जीतेगा महाप्रलय ?
कह, जीवन में क्षमता है यदि तो तम से हो प्रकाश निर्भय !

मैं भी फिर नित निर्भय खोजूँ शाश्वत प्रकाश अक्षय जीवन,
निर्भय गाऊँ, मैं शान्त करूँ इस मृत्युभित जग का क्रन्दन !

है नये जन्म का नाम मृत्यु, है नई शक्ति का नाम ह्रास, --
है आदि अन्त का, अन्त आदि का यों सब दिन क्रम-बद्ध ग्रास !

प्यारे प्रयाग ! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला,
था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला !

कवि-हृदय मिला, मन-मुकुल खिला, अर्पित है जो श्री चरणों में,
पर हो न सकेगा अभिनन्दन मेरे इन कृत्रिम वर्णों में !

ये कृत्रिम, तू सत्-प्रकृति-रूप, हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज !
क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !

दे शुभाशीस, हे पुण्यधाम !, वाणी कल्याणी हो प्रकाम--
स्वीकृत हो अब श्री चरणों में बन्दी का यह अन्तिम प्रणाम !

तेरे चरणों में शीश धरे आये होंगे कितने नरेन्द्र,
कितने ही आये, चले गये, कुछ दिन रह अभिमानी महेन्द्र !

मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज !
क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !!