"आशा का दीपक / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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+ | यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है | ||
+ | थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है | ||
− | + | चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से | |
− | + | चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से | |
− | चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से | + | शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही; |
− | चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से | + | और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से |
− | शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही; | + | बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है |
− | और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से | + | थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है |
− | बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर | + | |
− | थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर | + | |
− | अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का, | + | अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का, |
− | सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का। | + | सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का। |
− | एक खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ; | + | एक खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ; |
− | वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का। | + | वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का। |
− | आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है; | + | आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है; |
− | थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है। | + | थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है। |
− | दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा, | + | दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा, |
− | लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा। | + | लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा। |
− | जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही, | + | जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही, |
− | अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा। | + | अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा। |
− | और अधिक ले जाँच, देवता | + | और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है। |
− | थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।< | + | थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है। |
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11:50, 24 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण
यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से
शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।