"नखशिख खंड / मलिक मोहम्मद जायसी" के अवतरणों में अंतर
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+ | का सिंगार ओहि बरनौं, राजा । ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा ॥ | ||
+ | प्रथम सीस कस्तूरी केसा । बलि बासुकि, का और नरेसा ॥ | ||
+ | भौंर केस, वह मालति रानी । बिसहर लुरे लेहिं अरघानी ॥ | ||
+ | बेनी छोरि झार जौं बारा । सरग पतार होइ अँधियारा ॥ | ||
+ | कोंपर कुटिल केस नग कारे । लहरन्हि भरे भुअंग बैसारे ॥ | ||
+ | बेधे जनों मलयगिरि बासा । सीस चढे लोटहिं चहँ पासा ॥ | ||
+ | घुँघरवार अलकै विषभरी । सँकरैं पेम चहैं गिउ परी ॥ | ||
− | + | अस फदवार केस वै परा सीस गिउ फाँद । | |
+ | अस्टौ कुरी नाग सब अरुझ केस के बाँद ॥1॥ | ||
+ | बरनौं माँग सीस उपराहीं । सेंदुर अबहिं चढा जेहि नाहीं ॥ | ||
+ | बिनु सेंदुर अस जानहु दीआ । उजियर पंथ रैनि महँ कीआ ॥ | ||
+ | कंचन रेख कसौटी कसी । जनु घन महँ दामिनि परगसी ॥ | ||
+ | सरु-किरिन जनु गगन बिसेखी । जमुना माँह सुरसती देखी ॥ | ||
+ | खाँडै धार रुहिर नु भरा । करवत लेइ बेनी पर धरा ॥ | ||
+ | तेहि पर पूरि धरे जो मोती । जमुना माँझ गंग कै सोती ॥ | ||
+ | करवत तपा लेहिं होइ चूरू । मकु सो रुहिर लेइ देइ सेंदूरू ॥ | ||
− | + | कनक दुवासन बानि होइ चह सोहाग वह माँग । | |
− | + | सेवा करहिं नखत सब उवै गगन जस गाँग ॥2॥ | |
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− | + | कहौं लिलार दुइज कै जोती । दुइजन जोति कहाँ जग ओती ॥ | |
− | + | सहस किरिन जो सुरुज दिपाई । देखि लिलार सोउ छपि जाई ॥ | |
+ | का सरवर तेहि देउँ मयंकू । चाँद कलंकी, वह निकलंकू ॥ | ||
+ | औ चाँदहि पुनि राहु गरासा । वह बिनु राहु सदा परगासा ॥ | ||
+ | तेहि लिलार पर तलक बईठा । दुइज-पाट जानहु ध्रुव दीठा ॥ | ||
+ | कनक-पाट जनु बैठा राजा । सबै सिंगार अत्र लेइ साजा ॥ | ||
+ | ओहि आगे थिर रहा न कोऊ । दहुँ का कहँ अस जुरै सँजोगू ॥ | ||
− | + | खरग, धनुक, चक बान दुइ, जग-मारन तिन्ह नावँ । | |
− | + | सुनि कै परा मुरुछि कै (राजा) मोकहँ हए कुठावँ ॥3॥ | |
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− | + | भौहैं स्याम धनुक जनु ताना । जा सहुँ हेर मार विष-बाना ॥ | |
− | + | हनै धुनै उन्ह भौंहनि चढे । केइ हतियार काल अस गढे ?॥ | |
+ | उहै धनुक किरसुन पर अहा । उहै धनुक राघौ कर गहा ॥ | ||
+ | ओहि धनुक रावन संघारा । ओहि धनुक कंसासुर मारा ॥ | ||
+ | ओहि धनुक बैधा हुत राहू । मारा ओहि सहस्राबाहू ॥ | ||
+ | उहै धनुक मैं थापहँ चीन्हा । धानुक आप बेझ जग कीन्हा ॥ | ||
+ | उन्ह भौंहनि सरि केउ न जीता । अछरी छपीं, छपीं गोपीता ॥ | ||
− | + | भौंह धनुक, धनि धानुक, दूसर सरि न कराइ । | |
− | + | गगन धनुक जो ऊगै लाजहि सो छपि जाइ ॥4॥ | |
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− | + | नैन बाँक,सरि पूज न कोऊ । मानसरोदक उथलहिं दोऊ ॥ | |
− | + | राते कँवल करहिं अलि भवाँ । घूमहिं माति चहहिं अपसवाँ ॥ | |
+ | उठहि तुरंग लेहिं नहिं बागा । चहहिं उलथि गगन कइँ लागा ॥ | ||
+ | पवन झकोरहिं देइ हिलोरा । सरग लाइ भुइँ लाइ बहोरा ॥ | ||
+ | जग डोलै डोलत नैनाहाँ । उलटि अडार जाहिं पल माहाँ ॥ | ||
+ | जबहिं फिराहिं गगन गहि बोरा । अस वै भौंर चक्र के जोरा ॥ | ||
+ | समुद-हिलोर फिरहिं जनु झूले । खंजन लरहिं, मिरिग जनु भूले ॥ | ||
− | + | सुभर सरोवर नयन वै, मानिक भरे तरंग । | |
− | + | आवत तीर फिरावहीं काल भौंर तेहिं संग ॥5॥ | |
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− | + | बरुनी का बरनौ इमि बनी । साधे बान जानु दुइ अनी ॥ | |
− | गगन | + | जुरी राम रावन कै सेना ।बीच समुद्र भए दुइ नैना ॥ |
+ | बारहिं पार बनावरि साधा । जा सहुँ हेर लाग विष-बाधा ॥ | ||
+ | उन्ह बानन्ह अस को जो न मारा ?। बेधि रहा सगरौ संसारा ॥ | ||
+ | गगन नखत जो जाहिं न गने । वै सब बान ओही के हने ॥ | ||
+ | धरती बान बेधि सब राखी । साखी ठाढ देहिं सब साखी ॥ | ||
+ | रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढे । सूतहि सूत बेध अस गाढे ॥ | ||
− | + | बरुनि-बान अस ओपहँ, बेधे रन बन-ढाख । | |
− | + | सौजहिं तन सब रोवाँ, पंखहि तन सब पाँख ॥6॥ | |
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− | + | नासिक खरग देउँ कह जोगू । खरग खीन, वह बदन-सँजोगू ॥ | |
− | + | नासिक देखि लजानेउ सूआ । सूक अइ बेसरि होइ ऊआ ॥ | |
+ | सुआ जो पिअर हिरामन लाजा । और भाव का बरनौं राजा ॥ | ||
+ | सुआ, सो नाक कठोर पँवारी । वह कोंवर तिल-पुहुप सँवारी ॥ | ||
+ | पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा । मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा ॥ | ||
+ | अधर दसन पर नासिक सोभा । दारिउँ बिंब देखि सुक लोभा ॥ | ||
+ | खंजन दुहुँ दिसि केलि कराही । दहुँ वह रस कोउ पाव कि नाहीं ॥ | ||
− | + | देखि अमिय-रस अधरन्ह भएउ नासिका कीर । | |
− | + | पौन बास पहुँचावै, अस रम छाँड न तीर ॥7॥ | |
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− | + | अधर सुरंग अमी-रस-भरे । बिंब सुरंग लाजि बन फरे ॥ | |
− | + | फूल दुपहरी जानौं राता । फूल झरहिं ज्यों ज्यों कह बाता ॥ | |
+ | हीरा लेइ सो विद्रुम-धारा । बिहँसत जगत होइ उजियारा ॥ | ||
+ | भए मँझीठ पानन्ह रँग लागे । कुसुम -रंग थिर रहै न आगे ॥ | ||
+ | अस कै अधर अमी भरि राखे । अबहिं अछूत, न काहू चाखे ॥ | ||
+ | मुख तँबोल-रँग-धारहि रसा । केहि मुख जोग जो अमृत बसा ?॥ | ||
+ | ॉराता जगत देखि रँगराती । रुहिर भरे आछहि बिहँसाती ॥ | ||
− | + | अमी अधर अस राजा सब जग आस करेइ । | |
− | + | केहि कहँ कवँल बिगासा, को मधुकर रस लेइ ?॥8॥ | |
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− | + | दसन चौक बैठे जनु हीरा । औ बिच बिच रंग स्याम गँभीरा ॥ | |
− | + | जस भादौं-निसि दामिनि दीसी । चमकि उठै तस बनी बतीसी ॥ | |
+ | वह सुजोति हीरा उपराहीं । हीरा-जाति सो तेहि परछाहीं ॥ | ||
+ | जेहि दिन दसनजोति निरमई । बहुतै जोति जोति ओहि भई ॥ | ||
+ | रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती । रतन पदारथ मानिक मोती ॥ | ||
+ | जहँ जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी । तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी ॥ | ||
+ | दामिनि दमकि न सरवरि पूजी । पुनि ओहि जोति और को दूजी ?॥ | ||
− | + | हँसत दसन अस चमके पाहन उठे झरक्कि । | |
− | + | दारिउँ सरि जो न कै सका , फाटेउ हिया दरक्कि ॥9॥ | |
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− | + | रसना कहौं जो कह रस बाता । अमृत-बैन सुनत मन राता ॥ | |
− | + | हरै सो सुर चातक कोकिला । बिनुबसंत यह बैन न मिला ॥ | |
+ | चातक कोकिल रहहिं जो नाहीं । सुहि वह बैन लाज छपि जाहीं ॥ | ||
+ | भरे प्रेम-रस बोलै बोला । सुनै सो माति घूमि कै डोला ॥ | ||
+ | चतुरवेद-मत सब ओहि पाहाँ । रिग,जजु, सअम अथरबन माहाँ ॥ | ||
+ | एक एक बोल अरथ चौगुना । इंद्र मोह, बरम्हा सिर धुना ॥ | ||
+ | अमर, भागवत, पिंगल गीता । अरथ बूझि पंडित नही जीता ॥ | ||
− | + | भासवती औ ब्याकरन, पिंगल पढै पुरान । | |
− | + | बेद-भेद सौं बात कह, सुजनन्ह लागै बान ॥10॥ | |
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− | + | पुनि बरनौं का सुरंग कपोला । एक नारँग दुइ किए अमोला ॥ | |
− | + | पुहुप-पंक रस अमृत साँधे । केइ यह सुरँग खरौरा बाँधे ?॥ | |
+ | तेहि कपोल बाएँ तिल परा । जेइ तिल देखि सो तिल तिल जरा ॥ | ||
+ | जनु घुँघची ओहि तिल करमुहीं । बिरह-बान साधे सामुहीं ॥ | ||
+ | अगिनि-बान जानौ तिल सूझा । एक कटाछ लाख दस झूझा ॥ | ||
+ | सो तिल गाल नहिं गएऊ । अब वह गाल काल जग भएऊ ॥ | ||
+ | देखत नैन परी परिछाहीं । तेहि तें रात साम उपराहीं ॥ | ||
− | + | सो तिल देखि कपोल पर गगन रहा धुव गाडि । | |
− | + | खिनहिं उठै खिन बूडै, डोलै नहिं तिल छाँडि ॥11॥ | |
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− | + | स्रवन सीप दुइ दीप सँवारे । कुँडल कनक रचे उजियारे ॥ | |
− | + | मनि-मंडल झलकैं अति लोने । जनु कौंधा लौकहि दुइ कोने ॥ | |
+ | दुहुँ दिसि चाँद सुरुज चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं ॥ | ||
+ | तेहि पर खूँट दीप दुइ बारे । दुइ धुव दुऔ खूँट बैसारे ॥ | ||
+ | पहिरे खुंभी सिंगलदीपी । जनौं भरी कचपचिआ सीपी ॥ | ||
+ | खिन खिन जबहि चीर सिर गहै । काँपति बीजु दुऔ दिसि रहै ॥ | ||
+ | डरपहिं देवलोक सिंघला । परै न बीजु टूटि एक कला ॥ | ||
− | + | करहिं नखत सब सेवा स्रवन दीन्ह अस दोउ । | |
− | + | चाँद सुरुज अस गोहने और जगत का कोउ ?॥12॥ | |
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− | + | बरनौं गीउ कंबु कै रीसी । कंचन-तार-लागि जनु सीसी ॥ | |
− | + | कुंदै फेरि जानु गिउ काढी । हरी पुछार ठगी जनु ठाढी ॥ | |
+ | जनु हिय काढि परवा ठाढा । तेहि तै अधिक भाव गिउ बाढा ॥ | ||
+ | चाक चढाइ साँच जनु कीन्हा । बाग तुरंग जानु गहि लीन्हा ॥ | ||
+ | गए मयूर तमचूर जो हारे । उहै पुकारहिं साँझ सकारे ॥ | ||
+ | पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । घूँट जो पीक लीक सब देखा ॥ | ||
+ | धनि ओहि गीउ दीन्ह बिधि भाऊ । दहुँ कासौं लेइ करै मेराऊ ॥ | ||
− | + | कंटसिरी मुकुतावली सोहै अभरन गीउ । | |
− | + | लागै कंठहार होइ को तप साधा जीउ ?॥13॥ | |
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− | + | कनक-दंड दुइ भुजा कलाई । जानौं फेरि कुँदेरै भाई ॥ | |
− | + | कदलि-गाभ कै जानौ जोरी । औ राती ओहि कँवल-हथोरी ॥ | |
+ | जानो रकत हथोरी बूडी । रवि-परभात तात, वै जूडी ॥ | ||
+ | हिया काढि जनु लीन्हेसि हाथा । रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा ॥ | ||
+ | औ पहिरे नग-जरी अँगूठी । जग बिनु जीउ,जीउ ओहि मूठी ॥ | ||
+ | बाहूँ कंगन, टाड सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥ | ||
+ | जानौ गति बेडिन देखराई । बाँह डोलाइ जीउ लेइ जाई ॥ | ||
− | + | भुज -उपमा पौंनार नहिं, खीन भयउ तेहि चिंत । | |
− | + | ठाँवहि ठाँव बेध भा, ऊबि साँस लेइ निंत ॥14॥ | |
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− | + | हिया थार, कुच कंचन लारू । कनक कचौर उठे जनु चारू ॥ | |
− | + | कुंदन बेल साजि जनु कूँदे । अमृत रतन मोन दुइ मूँदे ॥ | |
+ | बेधे भौंर कंट केतकी । चाहहिं बेध कीण्ह कंचुकी ॥ | ||
+ | जोबन बान लेहिं नहिं बागा । चाहहिं हुलसि हिये हठ लागा ॥ | ||
+ | अगिनि-बान दुइ जानौं साधे । जग बेधहिं जौं होहिं न बाँधे ॥ | ||
+ | उतँग जँभीर होइ रखवारी । छुइ को सकै राजा कै बारी ॥ | ||
+ | दारउँ दाख फरे अनचाखे । अस नारँग दहुँ का कहँ राखे ॥ | ||
− | + | राजा बहुत मुए तपि लाइ लाइ भुइँ माथ । | |
− | + | काहू छुवै न पाए , गए मरोरत हाथ ॥15॥ | |
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− | + | पेट परत जनु चंदन लावा । कुहँकुहँ-केसर-बरन सुहावा ॥ | |
− | + | खीर अहार न कर सुकुवाँरा । पान फूल के रहै अधारा ॥ | |
+ | साम भुअंगिनि रोमावली । नाभी निकसि कवँल कहँ चली ॥ | ||
+ | आइ दुऔ नारँग बिच भई । देखि मयूर ठमकि रहि गई ॥ | ||
+ | मनहुँ चढी भौंरन्ह पाँती । चंदन-खाँभ बास कै माती ॥ | ||
+ | की कालिंदी बिरह-सताई । चलि पयाग अरइल बिच आई ॥ | ||
+ | नाभि-कुंड बिच बारानसी । सौंह को होइ, मीचु तहँ बसी ॥ | ||
− | + | सिर करवत, तन करसी बहुत सीझ तन आस । | |
− | + | बहुत धूम घुटि घुटि मिए, उतर न देइ निरास ॥16॥ | |
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− | + | बैरिनि पीठि लीन्ह वह पाछे । जनु फिरि चली अपछरा काछे ॥ | |
− | + | मलयागिरि कै पीठि सँवारी । बेनी नागिनि चढी जो कारी ॥ | |
+ | लहरैं देति पीठि जनु चढी । ...........केंचुली मढी ॥ | ||
+ | दहुँ का कहँ अस बेनी कीन्हीं । चंदन बास भुअंगै लीन्हीं ॥ | ||
+ | किरसुन करा चढा ओहि माथे । तब तौ छूट,अब छुटै न नाथे ॥ | ||
+ | कारे कवँल गहे मुक देखा । ससि पाछे जनु राहु बिसेखा ॥ | ||
+ | को देखै पावै वह नागू । सो देखै जेहि के सिर भागू ॥ | ||
− | + | पन्नग पंकज मुख गहे खंजन तहाँ बईठ । | |
− | + | छत्र, सिंघासन, राज, धन ताकहँ होइ जो डीठ ॥17॥ | |
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− | + | लंक पुहुमि अस आहि न काहू । केहरि कहौं न ओहि सरि ताहू ॥ | |
− | + | बसा लंक बरनै जग झीनो । तेहि तें अधिक लंक वह खीनी ॥ | |
+ | परिहँस पियर भए तेहिं बसा । लिए डंक लोगन्ह कह डसा ॥ | ||
+ | मानहुँ नाल खंड दुइ भए । दुहूँ बिच लंक-तार रहि गए ॥ | ||
+ | हिय के मुरे चलै वह तागा । पैग देत कित सहि सक लागा ?॥ | ||
+ | छुद्रघंटिका मोहहिं राजा । इंद्र-अखाड आइ जनु बाजा ॥ | ||
+ | मानहुँ बीन गहे कामिनी । गावहि सबै राग रागिनी ॥ | ||
− | + | सिंघ न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह बनबासु । | |
− | + | तेहि रिस मानुस-रकत पिय, खाइ मारि कै माँसु ॥18॥ | |
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− | + | नाभिकुंड सो मयल-समीरू । समुद-भँवर जस भँवै गँभीरू ॥ | |
− | + | बहुतै भँवर बवंडर भए । पहुँचि न सके सरग कहँ गए ॥ | |
+ | चंदन माँझ कुरंगिनी खोजू । दहुँ को पाउ , को राजा भोजू ॥ | ||
+ | को ओहि लागि हिवंचल सीझा । का कहँ लिखी, ऐस को रीझा ?॥ | ||
+ | तीवइ कवँल सुगंध सरीरू । समुद-लहरि सोहै तन चीरू ॥ | ||
+ | भूलहिं रतन पाट के झोंपा । साजि मैन अस का पर कोपा ?॥ | ||
+ | अबहिं सो अहैं कवँल कै करी । न जनौ कौन भौंर कहँ धरी ॥ | ||
− | + | बेधि रहा जग बासना परिमल मेद सुगंध । | |
− | + | तेहि अरघानि भौंर सब लुबुधे तजहिं न बंध ॥19॥ | |
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− | + | बरनौं नितंब लंक कै सोभा । औ गज-गवन देखि मन लोभा ॥ | |
− | + | जुरे जंघ सोभा अति पाए । केरा-खंभ फेरि जनु लाए ॥ | |
+ | कवल-चरन अति रात बिसेखी । रहैं पाट पर, पुहुमि न देखी ॥ | ||
+ | देवता हाथ हाथ पगु लेहिं । जहँ पगु धरै सीस तहँ देहीं ॥ | ||
+ | माथे भाग कोउ अस पावा । चरन-कँवल लेइ सीस चढावा ॥ | ||
+ | चूरा चाँद सुरुज उजियारा । पायल बीच करहिं झनकारा ॥ | ||
+ | अनवट बिछिया नखत तराई । पहुँचि सकै को पायँन ताईं ॥ | ||
− | + | बरनि सिंगार न जानेउँ नखसिख जैस अभोग । | |
− | + | तस जग किछुइ न पाएउँ उपमा देउँ ओहि जोग ॥20॥ | |
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+ | (1) सँकरैं = श्रृंखला, जंजीर । फँदवार = फंद में फँसानेवाले । बलि = निछावर हैं । लूरे = लुढँते या लहरते हुए । अरघानि = महँक, आघ्राण । अस्टकुरी = अष्टकुलनाग (ये हैं - वासुकि, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंखचूड, महापद्म, धनंजय )। | ||
+ | (2) उपराहीं = ऊपर । रुहिर = रुधिर । करवत = कर-पत्र, कुछ लोग त्रिवेणी संगम पर अपना शरीर आरे से चिरवाते थे, इसी को करवट लेन कहते थे । वहाँ एक आरा इसके लिए रखा रहता था । काशी में भी एक स्थान था जिसे काशी करवट कहते हैं । तपा = तपस्वी । सोहाग =(सौभाग्य), (ख) सोहागा । | ||
(3) ओती = उतनी । अत्र = अस्त्र । हए = हतें, मारा | (3) ओती = उतनी । अत्र = अस्त्र । हए = हतें, मारा | ||
− | + | (4) सहुँ - सामने । हुत =था । बेझ = बेध्य, बेझा निसाना । | |
− | (4) सहुँ - सामने । हुत =था । बेझ = बेध्य, बेझा निसाना । | + | (5) उलथहिं - उछलते हैं । भवाँ =फेरा,चक्कर । अपसवाँ चहहिं = जाना चाहते हैं, उडकर भागना चाहते हैं (अपस्रवण )। |
− | + | (6) उलटि....पल माहा = बडे बडे अडनेवाले या स्थिर रहनेवाले पल भर में उलट जाते हैं ।फिरावहीं = चक्कर देते हैं ।अनी =सेना । बनावरिं = बाणावलि, तीरों की पंक्ति । साखी = वृक्ष । साखी = साक्ष्य, गवाही । रन = अरण्य । | |
− | (5) उलथहिं - उछलते हैं । | + | (7) जोगु देउँ = जोड मिलाउँ । समता में रखूँ । पँवारी = लोहारों का एक औजार जिससे लोहे में छेद करते हैं । हिरकाइ लेइ = पास सटा ले । |
− | भवाँ =फेरा,चक्कर । अपसवाँ चहहिं = जाना चाहते हैं, उडकर भागना चाहते हैं | + | (8) हीरा लेइ...उजियारा = दाँतों की स्वेत और अधरों की अरुण ज्योति के प्रसार से जगत में उजाला होना, कहकर कवि ने उषा या अरुणोदय का बडा सुन्दर गूढ संकेत रखा है । मजीठ = बहुत गहरा मजीठ के रंगका लाल धार = खडी रेखा । |
− | (अपस्रवण )। | + | (9) चौक =आगे के चार दाँत । पाहन = पत्थर, हीरा । झरक्कि उठे । झलक गए । अनेक प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए । झरक्कि उठे = झलक गए । अनेक प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए । |
− | + | (10) अमर = अमरकोश । भासवती = भास्वती नामक ज्योतिष का ग्रंथ । सुजनन्ह = सुजानों या चतुरों को । | |
− | (6) उलटि....पल माहा = बडे बडे अडनेवाले या स्थिर रहनेवाले पल भर | + | (11) साँधे = साने, गूँधे, खरौरा = खाँड के लड्डू । खँडौरा ।घुँघची =गुँजा । करमुँहा = काले मुँहवाला |
− | में उलट जाते हैं ।फिरावहीं = चक्कर देते हैं ।अनी =सेना । बनावरिं = बाणावलि, तीरों की पंक्ति । | + | (12) लौकहिं = चमकती है, दिखाई पडती है । खूँट = कान का एक गहना । खूँट = कोने । खुंभी = कान का एक गहना । कचपचिया = कृतिका नक्षत्र जिसमें बहुत से तारे एक गुच्छे में दिखाई पडते हैं । गोहने = साथ में, सेवा में । |
− | साखी = वृक्ष । साखी = साक्ष्य, गवाही । रन = अरण्य । | + | (13) कंबु = शंख । रीसी =ईर्ष्या (उत्पन्न करनेवाली ) अथवा `करोसी' कैसी, जैसी; समान । कुंदै = खराद । पुछार =मोर । साँच =साँचा । भाई =फिराई हुई खराद पर घुमाई हुई । |
− | + | (14) गाभ = नरम कल्ला । हथोरी = हथेली । तात =गरम । टाड = बाँह पर पहनने का एक गहना । बेडिन = नाचने गानेवाली एक जाति । पौंनार = पद्मनाल =कमल का डंठल । ठाँवहिं ठाँव..निंत = कमलनाल में काँटे से होते हैं और वह सदा पानी के ऊपर उठा रहता है । | |
− | (7) जोगु देउँ = जोड मिलाउँ | + | (15) कचोर =कटोरे । कूँदे = खरादे हुए । मोन = मोना, पिटारा, डिब्बा । बारी = (क) कन्या (ख) बगीचा । |
− | । समता में रखूँ । पँवारी = लोहारों का एक औजार जिससे लोहे में छेद करते हैं । | + | (16) अरइल = प्रयाग में वह स्थान जहाँ जमुना गंगा से मिलती है । करवत = आरा । करसी = उपले या कंडे की आग जिसमें शरीर सिझाना बडा तप समझा जाता था , |
− | हिरकाइ लेइ = पास सटा ले । | + | (17) करा = कला से, अपने तेज से। कारे = साँप । पन्नग पंकज....बईठ = सर्प के सिर या कमल पर बैठै खंजन को देखने से राज्य मिलता है, ऐसा ज्योतिष में लिखा है । |
− | + | (18) पुहुमि = पृथिवी बसा =बरट, भिड, बरैं । परिहँस = ईर्ष्या, डाह । मानहुँ नाल.. ...गए = कमल के नाल को तोडने पर दोनों खंडों के बीच महीन महीन सूत लगे रह जाते हैं तागा =सूत । छुद्र-घंटिका = घुँघरूदार करधनी । | |
− | (8) हीरा लेइ...उजियारा = दाँतों की स्वेत और अधरों की | + | (19) भँव = घूमता है, चक्कर खाता है । खोजू = खोज, खुर का पडा हुआ चिन्ह । हिवंचल = हिमाचल । तीवह = स्त्री । समुद्र लहरि = लहरिया कपडा । झोंपा = गुच्छा । अरघनि = आघ्राण, महँक । |
− | अरुण ज्योति के प्रसार से जगत में उजाला होना, कहकर कवि ने उषा या अरुणोदय का बडा | + | |
− | सुन्दर गूढ संकेत रखा है । मजीठ = बहुत गहरा मजीठ के रंगका लाल | + | |
− | धार = खडी रेखा । | + | |
− | + | ||
− | (9) चौक =आगे के चार दाँत । पाहन = पत्थर, हीरा । झरक्कि उठे । | + | |
− | झलक गए । अनेक प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए । झरक्कि उठे = झलक गए । अनेक | + | |
− | प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए । | + | |
− | + | ||
− | (10) अमर = अमरकोश । भासवती = भास्वती नामक | + | |
− | ज्योतिष का ग्रंथ । सुजनन्ह = सुजानों या चतुरों को । | + | |
− | + | ||
− | (11) साँधे = साने, गूँधे, | + | |
− | खरौरा = खाँड के लड्डू । खँडौरा ।घुँघची =गुँजा । करमुँहा = काले मुँहवाला | + | |
− | + | ||
− | (12) लौकहिं = चमकती है, दिखाई पडती | + | |
− | है । खूँट = कान का एक गहना । खूँट = कोने । खुंभी = कान का एक गहना । कचपचिया = | + | |
− | कृतिका नक्षत्र जिसमें बहुत से तारे एक गुच्छे में दिखाई पडते हैं । गोहने = साथ | + | |
− | में, सेवा में । | + | |
− | + | ||
− | (13) कंबु = शंख । रीसी =ईर्ष्या (उत्पन्न करनेवाली ) अथवा `करोसी' | + | |
− | कैसी, जैसी; समान । कुंदै = खराद । पुछार =मोर । साँच =साँचा । भाई =फिराई हुई | + | |
− | खराद पर घुमाई हुई । | + | |
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− | (14) गाभ = नरम कल्ला । हथोरी = हथेली । तात =गरम । टाड = बाँह पर पहनने का एक | + | |
− | गहना । बेडिन = नाचने गानेवाली एक जाति । पौंनार = पद्मनाल =कमल का डंठल । ठाँवहिं | + | |
− | ठाँव..निंत = कमलनाल में काँटे से होते हैं और वह सदा पानी के ऊपर उठा रहता है । | + | |
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− | (15) कचोर =कटोरे । कूँदे = खरादे हुए । मोन = मोना, पिटारा, डिब्बा । बारी = (क) | + | |
− | कन्या (ख) बगीचा । | + | |
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− | (16) अरइल = प्रयाग में वह स्थान जहाँ जमुना गंगा से मिलती है । | + | |
− | करवत = आरा । करसी = उपले या कंडे की आग जिसमें शरीर सिझाना बडा तप समझा जाता था , | + | |
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− | (17) करा = कला से, अपने तेज से। कारे = साँप । पन्नग पंकज....बईठ = सर्प के सिर या | + | |
− | कमल पर बैठै खंजन को देखने से राज्य मिलता है, ऐसा ज्योतिष में लिखा है । | + | |
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− | (18) पुहुमि = पृथिवी बसा =बरट, भिड, बरैं । परिहँस = ईर्ष्या, डाह । मानहुँ नाल.. | + | |
− | ...गए = कमल के नाल को तोडने पर दोनों खंडों के बीच महीन महीन सूत लगे रह जाते हैं | + | |
− | तागा =सूत । छुद्र-घंटिका = घुँघरूदार करधनी । | + | |
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− | (19) भँव = घूमता है, चक्कर खाता है । | + | |
− | खोजू = खोज, खुर का पडा हुआ चिन्ह । हिवंचल = हिमाचल । तीवह = स्त्री । | + | |
− | समुद्र लहरि = लहरिया कपडा । झोंपा = गुच्छा । अरघनि = आघ्राण, महँक । | + | |
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(20) फेरि =उलटकर । लाए = लगाए । | (20) फेरि =उलटकर । लाए = लगाए । | ||
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15:46, 27 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण
का सिंगार ओहि बरनौं, राजा । ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा ॥
प्रथम सीस कस्तूरी केसा । बलि बासुकि, का और नरेसा ॥
भौंर केस, वह मालति रानी । बिसहर लुरे लेहिं अरघानी ॥
बेनी छोरि झार जौं बारा । सरग पतार होइ अँधियारा ॥
कोंपर कुटिल केस नग कारे । लहरन्हि भरे भुअंग बैसारे ॥
बेधे जनों मलयगिरि बासा । सीस चढे लोटहिं चहँ पासा ॥
घुँघरवार अलकै विषभरी । सँकरैं पेम चहैं गिउ परी ॥
अस फदवार केस वै परा सीस गिउ फाँद ।
अस्टौ कुरी नाग सब अरुझ केस के बाँद ॥1॥
बरनौं माँग सीस उपराहीं । सेंदुर अबहिं चढा जेहि नाहीं ॥
बिनु सेंदुर अस जानहु दीआ । उजियर पंथ रैनि महँ कीआ ॥
कंचन रेख कसौटी कसी । जनु घन महँ दामिनि परगसी ॥
सरु-किरिन जनु गगन बिसेखी । जमुना माँह सुरसती देखी ॥
खाँडै धार रुहिर नु भरा । करवत लेइ बेनी पर धरा ॥
तेहि पर पूरि धरे जो मोती । जमुना माँझ गंग कै सोती ॥
करवत तपा लेहिं होइ चूरू । मकु सो रुहिर लेइ देइ सेंदूरू ॥
कनक दुवासन बानि होइ चह सोहाग वह माँग ।
सेवा करहिं नखत सब उवै गगन जस गाँग ॥2॥
कहौं लिलार दुइज कै जोती । दुइजन जोति कहाँ जग ओती ॥
सहस किरिन जो सुरुज दिपाई । देखि लिलार सोउ छपि जाई ॥
का सरवर तेहि देउँ मयंकू । चाँद कलंकी, वह निकलंकू ॥
औ चाँदहि पुनि राहु गरासा । वह बिनु राहु सदा परगासा ॥
तेहि लिलार पर तलक बईठा । दुइज-पाट जानहु ध्रुव दीठा ॥
कनक-पाट जनु बैठा राजा । सबै सिंगार अत्र लेइ साजा ॥
ओहि आगे थिर रहा न कोऊ । दहुँ का कहँ अस जुरै सँजोगू ॥
खरग, धनुक, चक बान दुइ, जग-मारन तिन्ह नावँ ।
सुनि कै परा मुरुछि कै (राजा) मोकहँ हए कुठावँ ॥3॥
भौहैं स्याम धनुक जनु ताना । जा सहुँ हेर मार विष-बाना ॥
हनै धुनै उन्ह भौंहनि चढे । केइ हतियार काल अस गढे ?॥
उहै धनुक किरसुन पर अहा । उहै धनुक राघौ कर गहा ॥
ओहि धनुक रावन संघारा । ओहि धनुक कंसासुर मारा ॥
ओहि धनुक बैधा हुत राहू । मारा ओहि सहस्राबाहू ॥
उहै धनुक मैं थापहँ चीन्हा । धानुक आप बेझ जग कीन्हा ॥
उन्ह भौंहनि सरि केउ न जीता । अछरी छपीं, छपीं गोपीता ॥
भौंह धनुक, धनि धानुक, दूसर सरि न कराइ ।
गगन धनुक जो ऊगै लाजहि सो छपि जाइ ॥4॥
नैन बाँक,सरि पूज न कोऊ । मानसरोदक उथलहिं दोऊ ॥
राते कँवल करहिं अलि भवाँ । घूमहिं माति चहहिं अपसवाँ ॥
उठहि तुरंग लेहिं नहिं बागा । चहहिं उलथि गगन कइँ लागा ॥
पवन झकोरहिं देइ हिलोरा । सरग लाइ भुइँ लाइ बहोरा ॥
जग डोलै डोलत नैनाहाँ । उलटि अडार जाहिं पल माहाँ ॥
जबहिं फिराहिं गगन गहि बोरा । अस वै भौंर चक्र के जोरा ॥
समुद-हिलोर फिरहिं जनु झूले । खंजन लरहिं, मिरिग जनु भूले ॥
सुभर सरोवर नयन वै, मानिक भरे तरंग ।
आवत तीर फिरावहीं काल भौंर तेहिं संग ॥5॥
बरुनी का बरनौ इमि बनी । साधे बान जानु दुइ अनी ॥
जुरी राम रावन कै सेना ।बीच समुद्र भए दुइ नैना ॥
बारहिं पार बनावरि साधा । जा सहुँ हेर लाग विष-बाधा ॥
उन्ह बानन्ह अस को जो न मारा ?। बेधि रहा सगरौ संसारा ॥
गगन नखत जो जाहिं न गने । वै सब बान ओही के हने ॥
धरती बान बेधि सब राखी । साखी ठाढ देहिं सब साखी ॥
रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढे । सूतहि सूत बेध अस गाढे ॥
बरुनि-बान अस ओपहँ, बेधे रन बन-ढाख ।
सौजहिं तन सब रोवाँ, पंखहि तन सब पाँख ॥6॥
नासिक खरग देउँ कह जोगू । खरग खीन, वह बदन-सँजोगू ॥
नासिक देखि लजानेउ सूआ । सूक अइ बेसरि होइ ऊआ ॥
सुआ जो पिअर हिरामन लाजा । और भाव का बरनौं राजा ॥
सुआ, सो नाक कठोर पँवारी । वह कोंवर तिल-पुहुप सँवारी ॥
पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा । मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा ॥
अधर दसन पर नासिक सोभा । दारिउँ बिंब देखि सुक लोभा ॥
खंजन दुहुँ दिसि केलि कराही । दहुँ वह रस कोउ पाव कि नाहीं ॥
देखि अमिय-रस अधरन्ह भएउ नासिका कीर ।
पौन बास पहुँचावै, अस रम छाँड न तीर ॥7॥
अधर सुरंग अमी-रस-भरे । बिंब सुरंग लाजि बन फरे ॥
फूल दुपहरी जानौं राता । फूल झरहिं ज्यों ज्यों कह बाता ॥
हीरा लेइ सो विद्रुम-धारा । बिहँसत जगत होइ उजियारा ॥
भए मँझीठ पानन्ह रँग लागे । कुसुम -रंग थिर रहै न आगे ॥
अस कै अधर अमी भरि राखे । अबहिं अछूत, न काहू चाखे ॥
मुख तँबोल-रँग-धारहि रसा । केहि मुख जोग जो अमृत बसा ?॥
ॉराता जगत देखि रँगराती । रुहिर भरे आछहि बिहँसाती ॥
अमी अधर अस राजा सब जग आस करेइ ।
केहि कहँ कवँल बिगासा, को मधुकर रस लेइ ?॥8॥
दसन चौक बैठे जनु हीरा । औ बिच बिच रंग स्याम गँभीरा ॥
जस भादौं-निसि दामिनि दीसी । चमकि उठै तस बनी बतीसी ॥
वह सुजोति हीरा उपराहीं । हीरा-जाति सो तेहि परछाहीं ॥
जेहि दिन दसनजोति निरमई । बहुतै जोति जोति ओहि भई ॥
रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती । रतन पदारथ मानिक मोती ॥
जहँ जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी । तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी ॥
दामिनि दमकि न सरवरि पूजी । पुनि ओहि जोति और को दूजी ?॥
हँसत दसन अस चमके पाहन उठे झरक्कि ।
दारिउँ सरि जो न कै सका , फाटेउ हिया दरक्कि ॥9॥
रसना कहौं जो कह रस बाता । अमृत-बैन सुनत मन राता ॥
हरै सो सुर चातक कोकिला । बिनुबसंत यह बैन न मिला ॥
चातक कोकिल रहहिं जो नाहीं । सुहि वह बैन लाज छपि जाहीं ॥
भरे प्रेम-रस बोलै बोला । सुनै सो माति घूमि कै डोला ॥
चतुरवेद-मत सब ओहि पाहाँ । रिग,जजु, सअम अथरबन माहाँ ॥
एक एक बोल अरथ चौगुना । इंद्र मोह, बरम्हा सिर धुना ॥
अमर, भागवत, पिंगल गीता । अरथ बूझि पंडित नही जीता ॥
भासवती औ ब्याकरन, पिंगल पढै पुरान ।
बेद-भेद सौं बात कह, सुजनन्ह लागै बान ॥10॥
पुनि बरनौं का सुरंग कपोला । एक नारँग दुइ किए अमोला ॥
पुहुप-पंक रस अमृत साँधे । केइ यह सुरँग खरौरा बाँधे ?॥
तेहि कपोल बाएँ तिल परा । जेइ तिल देखि सो तिल तिल जरा ॥
जनु घुँघची ओहि तिल करमुहीं । बिरह-बान साधे सामुहीं ॥
अगिनि-बान जानौ तिल सूझा । एक कटाछ लाख दस झूझा ॥
सो तिल गाल नहिं गएऊ । अब वह गाल काल जग भएऊ ॥
देखत नैन परी परिछाहीं । तेहि तें रात साम उपराहीं ॥
सो तिल देखि कपोल पर गगन रहा धुव गाडि ।
खिनहिं उठै खिन बूडै, डोलै नहिं तिल छाँडि ॥11॥
स्रवन सीप दुइ दीप सँवारे । कुँडल कनक रचे उजियारे ॥
मनि-मंडल झलकैं अति लोने । जनु कौंधा लौकहि दुइ कोने ॥
दुहुँ दिसि चाँद सुरुज चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं ॥
तेहि पर खूँट दीप दुइ बारे । दुइ धुव दुऔ खूँट बैसारे ॥
पहिरे खुंभी सिंगलदीपी । जनौं भरी कचपचिआ सीपी ॥
खिन खिन जबहि चीर सिर गहै । काँपति बीजु दुऔ दिसि रहै ॥
डरपहिं देवलोक सिंघला । परै न बीजु टूटि एक कला ॥
करहिं नखत सब सेवा स्रवन दीन्ह अस दोउ ।
चाँद सुरुज अस गोहने और जगत का कोउ ?॥12॥
बरनौं गीउ कंबु कै रीसी । कंचन-तार-लागि जनु सीसी ॥
कुंदै फेरि जानु गिउ काढी । हरी पुछार ठगी जनु ठाढी ॥
जनु हिय काढि परवा ठाढा । तेहि तै अधिक भाव गिउ बाढा ॥
चाक चढाइ साँच जनु कीन्हा । बाग तुरंग जानु गहि लीन्हा ॥
गए मयूर तमचूर जो हारे । उहै पुकारहिं साँझ सकारे ॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । घूँट जो पीक लीक सब देखा ॥
धनि ओहि गीउ दीन्ह बिधि भाऊ । दहुँ कासौं लेइ करै मेराऊ ॥
कंटसिरी मुकुतावली सोहै अभरन गीउ ।
लागै कंठहार होइ को तप साधा जीउ ?॥13॥
कनक-दंड दुइ भुजा कलाई । जानौं फेरि कुँदेरै भाई ॥
कदलि-गाभ कै जानौ जोरी । औ राती ओहि कँवल-हथोरी ॥
जानो रकत हथोरी बूडी । रवि-परभात तात, वै जूडी ॥
हिया काढि जनु लीन्हेसि हाथा । रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा ॥
औ पहिरे नग-जरी अँगूठी । जग बिनु जीउ,जीउ ओहि मूठी ॥
बाहूँ कंगन, टाड सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥
जानौ गति बेडिन देखराई । बाँह डोलाइ जीउ लेइ जाई ॥
भुज -उपमा पौंनार नहिं, खीन भयउ तेहि चिंत ।
ठाँवहि ठाँव बेध भा, ऊबि साँस लेइ निंत ॥14॥
हिया थार, कुच कंचन लारू । कनक कचौर उठे जनु चारू ॥
कुंदन बेल साजि जनु कूँदे । अमृत रतन मोन दुइ मूँदे ॥
बेधे भौंर कंट केतकी । चाहहिं बेध कीण्ह कंचुकी ॥
जोबन बान लेहिं नहिं बागा । चाहहिं हुलसि हिये हठ लागा ॥
अगिनि-बान दुइ जानौं साधे । जग बेधहिं जौं होहिं न बाँधे ॥
उतँग जँभीर होइ रखवारी । छुइ को सकै राजा कै बारी ॥
दारउँ दाख फरे अनचाखे । अस नारँग दहुँ का कहँ राखे ॥
राजा बहुत मुए तपि लाइ लाइ भुइँ माथ ।
काहू छुवै न पाए , गए मरोरत हाथ ॥15॥
पेट परत जनु चंदन लावा । कुहँकुहँ-केसर-बरन सुहावा ॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरा । पान फूल के रहै अधारा ॥
साम भुअंगिनि रोमावली । नाभी निकसि कवँल कहँ चली ॥
आइ दुऔ नारँग बिच भई । देखि मयूर ठमकि रहि गई ॥
मनहुँ चढी भौंरन्ह पाँती । चंदन-खाँभ बास कै माती ॥
की कालिंदी बिरह-सताई । चलि पयाग अरइल बिच आई ॥
नाभि-कुंड बिच बारानसी । सौंह को होइ, मीचु तहँ बसी ॥
सिर करवत, तन करसी बहुत सीझ तन आस ।
बहुत धूम घुटि घुटि मिए, उतर न देइ निरास ॥16॥
बैरिनि पीठि लीन्ह वह पाछे । जनु फिरि चली अपछरा काछे ॥
मलयागिरि कै पीठि सँवारी । बेनी नागिनि चढी जो कारी ॥
लहरैं देति पीठि जनु चढी । ...........केंचुली मढी ॥
दहुँ का कहँ अस बेनी कीन्हीं । चंदन बास भुअंगै लीन्हीं ॥
किरसुन करा चढा ओहि माथे । तब तौ छूट,अब छुटै न नाथे ॥
कारे कवँल गहे मुक देखा । ससि पाछे जनु राहु बिसेखा ॥
को देखै पावै वह नागू । सो देखै जेहि के सिर भागू ॥
पन्नग पंकज मुख गहे खंजन तहाँ बईठ ।
छत्र, सिंघासन, राज, धन ताकहँ होइ जो डीठ ॥17॥
लंक पुहुमि अस आहि न काहू । केहरि कहौं न ओहि सरि ताहू ॥
बसा लंक बरनै जग झीनो । तेहि तें अधिक लंक वह खीनी ॥
परिहँस पियर भए तेहिं बसा । लिए डंक लोगन्ह कह डसा ॥
मानहुँ नाल खंड दुइ भए । दुहूँ बिच लंक-तार रहि गए ॥
हिय के मुरे चलै वह तागा । पैग देत कित सहि सक लागा ?॥
छुद्रघंटिका मोहहिं राजा । इंद्र-अखाड आइ जनु बाजा ॥
मानहुँ बीन गहे कामिनी । गावहि सबै राग रागिनी ॥
सिंघ न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह बनबासु ।
तेहि रिस मानुस-रकत पिय, खाइ मारि कै माँसु ॥18॥
नाभिकुंड सो मयल-समीरू । समुद-भँवर जस भँवै गँभीरू ॥
बहुतै भँवर बवंडर भए । पहुँचि न सके सरग कहँ गए ॥
चंदन माँझ कुरंगिनी खोजू । दहुँ को पाउ , को राजा भोजू ॥
को ओहि लागि हिवंचल सीझा । का कहँ लिखी, ऐस को रीझा ?॥
तीवइ कवँल सुगंध सरीरू । समुद-लहरि सोहै तन चीरू ॥
भूलहिं रतन पाट के झोंपा । साजि मैन अस का पर कोपा ?॥
अबहिं सो अहैं कवँल कै करी । न जनौ कौन भौंर कहँ धरी ॥
बेधि रहा जग बासना परिमल मेद सुगंध ।
तेहि अरघानि भौंर सब लुबुधे तजहिं न बंध ॥19॥
बरनौं नितंब लंक कै सोभा । औ गज-गवन देखि मन लोभा ॥
जुरे जंघ सोभा अति पाए । केरा-खंभ फेरि जनु लाए ॥
कवल-चरन अति रात बिसेखी । रहैं पाट पर, पुहुमि न देखी ॥
देवता हाथ हाथ पगु लेहिं । जहँ पगु धरै सीस तहँ देहीं ॥
माथे भाग कोउ अस पावा । चरन-कँवल लेइ सीस चढावा ॥
चूरा चाँद सुरुज उजियारा । पायल बीच करहिं झनकारा ॥
अनवट बिछिया नखत तराई । पहुँचि सकै को पायँन ताईं ॥
बरनि सिंगार न जानेउँ नखसिख जैस अभोग ।
तस जग किछुइ न पाएउँ उपमा देउँ ओहि जोग ॥20॥
(1) सँकरैं = श्रृंखला, जंजीर । फँदवार = फंद में फँसानेवाले । बलि = निछावर हैं । लूरे = लुढँते या लहरते हुए । अरघानि = महँक, आघ्राण । अस्टकुरी = अष्टकुलनाग (ये हैं - वासुकि, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंखचूड, महापद्म, धनंजय )।
(2) उपराहीं = ऊपर । रुहिर = रुधिर । करवत = कर-पत्र, कुछ लोग त्रिवेणी संगम पर अपना शरीर आरे से चिरवाते थे, इसी को करवट लेन कहते थे । वहाँ एक आरा इसके लिए रखा रहता था । काशी में भी एक स्थान था जिसे काशी करवट कहते हैं । तपा = तपस्वी । सोहाग =(सौभाग्य), (ख) सोहागा ।
(3) ओती = उतनी । अत्र = अस्त्र । हए = हतें, मारा
(4) सहुँ - सामने । हुत =था । बेझ = बेध्य, बेझा निसाना ।
(5) उलथहिं - उछलते हैं । भवाँ =फेरा,चक्कर । अपसवाँ चहहिं = जाना चाहते हैं, उडकर भागना चाहते हैं (अपस्रवण )।
(6) उलटि....पल माहा = बडे बडे अडनेवाले या स्थिर रहनेवाले पल भर में उलट जाते हैं ।फिरावहीं = चक्कर देते हैं ।अनी =सेना । बनावरिं = बाणावलि, तीरों की पंक्ति । साखी = वृक्ष । साखी = साक्ष्य, गवाही । रन = अरण्य ।
(7) जोगु देउँ = जोड मिलाउँ । समता में रखूँ । पँवारी = लोहारों का एक औजार जिससे लोहे में छेद करते हैं । हिरकाइ लेइ = पास सटा ले ।
(8) हीरा लेइ...उजियारा = दाँतों की स्वेत और अधरों की अरुण ज्योति के प्रसार से जगत में उजाला होना, कहकर कवि ने उषा या अरुणोदय का बडा सुन्दर गूढ संकेत रखा है । मजीठ = बहुत गहरा मजीठ के रंगका लाल धार = खडी रेखा ।
(9) चौक =आगे के चार दाँत । पाहन = पत्थर, हीरा । झरक्कि उठे । झलक गए । अनेक प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए । झरक्कि उठे = झलक गए । अनेक प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए ।
(10) अमर = अमरकोश । भासवती = भास्वती नामक ज्योतिष का ग्रंथ । सुजनन्ह = सुजानों या चतुरों को ।
(11) साँधे = साने, गूँधे, खरौरा = खाँड के लड्डू । खँडौरा ।घुँघची =गुँजा । करमुँहा = काले मुँहवाला
(12) लौकहिं = चमकती है, दिखाई पडती है । खूँट = कान का एक गहना । खूँट = कोने । खुंभी = कान का एक गहना । कचपचिया = कृतिका नक्षत्र जिसमें बहुत से तारे एक गुच्छे में दिखाई पडते हैं । गोहने = साथ में, सेवा में ।
(13) कंबु = शंख । रीसी =ईर्ष्या (उत्पन्न करनेवाली ) अथवा `करोसी' कैसी, जैसी; समान । कुंदै = खराद । पुछार =मोर । साँच =साँचा । भाई =फिराई हुई खराद पर घुमाई हुई ।
(14) गाभ = नरम कल्ला । हथोरी = हथेली । तात =गरम । टाड = बाँह पर पहनने का एक गहना । बेडिन = नाचने गानेवाली एक जाति । पौंनार = पद्मनाल =कमल का डंठल । ठाँवहिं ठाँव..निंत = कमलनाल में काँटे से होते हैं और वह सदा पानी के ऊपर उठा रहता है ।
(15) कचोर =कटोरे । कूँदे = खरादे हुए । मोन = मोना, पिटारा, डिब्बा । बारी = (क) कन्या (ख) बगीचा ।
(16) अरइल = प्रयाग में वह स्थान जहाँ जमुना गंगा से मिलती है । करवत = आरा । करसी = उपले या कंडे की आग जिसमें शरीर सिझाना बडा तप समझा जाता था ,
(17) करा = कला से, अपने तेज से। कारे = साँप । पन्नग पंकज....बईठ = सर्प के सिर या कमल पर बैठै खंजन को देखने से राज्य मिलता है, ऐसा ज्योतिष में लिखा है ।
(18) पुहुमि = पृथिवी बसा =बरट, भिड, बरैं । परिहँस = ईर्ष्या, डाह । मानहुँ नाल.. ...गए = कमल के नाल को तोडने पर दोनों खंडों के बीच महीन महीन सूत लगे रह जाते हैं तागा =सूत । छुद्र-घंटिका = घुँघरूदार करधनी ।
(19) भँव = घूमता है, चक्कर खाता है । खोजू = खोज, खुर का पडा हुआ चिन्ह । हिवंचल = हिमाचल । तीवह = स्त्री । समुद्र लहरि = लहरिया कपडा । झोंपा = गुच्छा । अरघनि = आघ्राण, महँक ।
(20) फेरि =उलटकर । लाए = लगाए ।