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"सिंहलद्वीप -वर्णन खंड / मलिक मोहम्मद जायसी" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी
 
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सिंघलदीप कथा अब गावौं । औ सो पदमिनी बरनि सुनावौं ॥
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निरमल दरपन भाँति बिसेखा । जौ जेहि रूप सो तैसई देखा ॥
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धनि सो दीप जहँ दीपक-बारी । औ पदमिनि जो दई सँवारी ॥
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सात दीप बरनै सब लोगू । एकौ दीप न ओहि सरि जोगू ॥
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दियादीप नहिं तस उँजियारा । सरनदीप सर होइ न पारा ॥
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जंबूदीप कहौं तस नाहीं । लंकदीप सरि पूज न छाहीं ॥
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दीप गभस्थल आरन परा । दीप महुस्थल मानुस-हरा ॥
  
'''मुखपृष्ठ: [[पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी]]'''
+
सब संसार परथमैं आए सातौं दीप ।
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एक दीप नहिं उत्तिम सिंघलदीप समीप ॥1॥
  
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ग्रंध्रबसेन सुगंध नरेसू । सो राजा, वह ताकर देसू ॥
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लंका सुना जो रावन राजू । तेहु चाहि बड ताकर साजू ॥
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छप्पन कोटि कटक दल साजा । सबै छत्रपति औ गढ -राजा ॥
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सोरह सहस घोड घोडसारा । स्यामकरन अरु बाँक तुखारा ॥
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सात सहस हस्ती सिंघली । जनु कबिलास एरावत बली ॥
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अस्वपतिक-सिरमोर कहावै । गजपतीक आँकुस-गज नावै ॥
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नरपतीक कहँ और नरिंदू ?। भूपतीक जग दूसर इंदू ॥
  
सिंघलदीप कथा अब गावौं औ सो पदमिनी बरनि सुनावौं ॥<br>
+
ऐस चक्कवै राजा चहूँ खंड भय होइ
निरमल दरपन भाँति बिसेखा । जौ जेहि रूप सो तैसई देखा ॥<br>
+
सबै आइ सिर नावहिं सरबरि करै कोइ ॥2॥
धनि सो दीप जहँ दीपक-बारी । औ पदमिनि जो दई सँवारी ॥<br>
+
सात दीप बरनै सब लोगू । एकौ दीप ओहि सरि जोगू ॥<br>
+
दियादीप नहिं तस उँजियारा । सरनदीप सर होइ न पारा ॥<br>
+
जंबूदीप कहौं तस नाहीं । लंकदीप सरि पूज न छाहीं ॥<br>
+
दीप गभस्थल आरन परा । दीप महुस्थल मानुस-हरा ॥<br><br>
+
  
सब संसार परथमैं आए सातौं दीप ।<br>
+
जबहि दीप नियरावा जाई जनु कबिलास नियर भा आई ॥
एक दीप नहिं उत्तिम सिंघलदीप समीप ॥1॥<br><br>
+
घन अमराउ लाग चहुँ पासा । उठा भूमि हुत लागि अकासा ॥
 +
तरिवर सबै मलयगिरि लाई । भइ जग छाँह रैनि होइ आई ॥
 +
मलय-समीर सोहावन छाहाँ । जेठ जाड लागै तेहि माहाँ ॥
 +
ओही छाँह रैनि होइ आवै । हरियर सबै अकास देखावै ॥
 +
पथिक जो पहुँचै सहि कै घामू । दुख बिसरै, सुख होइ बिसरामू ॥
 +
जेइ वह पाई छाँह अनूपा । फिरि नहिं आइ सहै यह धूपा ॥
  
ग्रंध्रबसेन सुगंध नरेसू । सो राजा, वह ताकर देसू ॥<br>
+
अस अमराउ सघन घन, बरनि न पारौं अंत
लंका सुना जो रावन राजू तेहु चाहि बड ताकर साजू ॥<br>
+
फूलै फरै छवौ ऋतु , जानहु सदा बसंत ॥3॥
छप्पन कोटि कटक दल साजा । सबै छत्रपति औ गढ -राजा ॥<br>
+
सोरह सहस घोड घोडसारा । स्यामकरन अरु बाँक तुखारा ॥<br>
+
सात सहस हस्ती सिंघली । जनु कबिलास एरावत बली ॥<br>
+
अस्वपतिक-सिरमोर कहावै । गजपतीक आँकुस-गज नावै ॥<br>
+
नरपतीक कहँ और नरिंदू ?। भूपतीक जग दूसर इंदू ॥<br><br>
+
  
ऐस चक्कवै राजा चहूँ खंड भय होइ <br>
+
फरै आँब अति सघन सोहाए औ जस फरे अधिक सिर नाए ॥
सबै आइ सिर नावहिं सरबरि करै न कोइ ॥2॥<br><br>
+
कटहर डार पींड सन पाके । बडहर, सो अनूप अति ताके ॥
 +
खिरनी पाकि खाँड अस मीठी । जामुन पाकि भँवर अति डीठी ॥
 +
नरियर फरे फरी फरहरी । फुरै जानु इंद्रासन पुरी ॥
 +
पुनि महुआ चुअ अधिक मिठासू । मधु जस मीठ, पुहुप जस बासू ॥
 +
और खजहजा अनबन नाऊँ । देखा सब राउन-अमराऊ ॥
 +
लाग सबै जस अमृत साखा । रहै लोभाइ सोइ जो चाखा ॥
  
जबहि दीप नियरावा जाई जनु कबिलास नियर भा आई ॥<br>
+
लवग सुपारी जायफल सब फर फरे अपूर
घन अमराउ लाग चहुँ पासा । उठा भूमि हुत लागि अकासा ॥<br>
+
आसपास घन इमिली औ घन तार खजूर ॥4॥
तरिवर सबै मलयगिरि लाई । भइ जग छाँह रैनि होइ आई ॥<br>
+
मलय-समीर सोहावन छाहाँ । जेठ जाड लागै तेहि माहाँ ॥<br>
+
ओही छाँह रैनि होइ आवै । हरियर सबै अकास देखावै ॥<br>
+
पथिक जो पहुँचै सहि कै घामू । दुख बिसरै, सुख होइ बिसरामू ॥<br>
+
जेइ वह पाई छाँह अनूपा । फिरि नहिं आइ सहै यह धूपा ॥<br><br>
+
  
अस अमराउ सघन घन, बरनि न पारौं अंत <br>
+
बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाखा करहिं हुलास देखि कै साखा ॥
फूलै फरै छवौ ऋतु , जानहु सदा बसंत ॥3॥<br><br>
+
भोर होत बोलहिं चुहुचूही । बोलहिं पाँडुक "एकै तूही"" ॥
 +
सारौं सुआ जो रहचह करही । कुरहिं परेवा औ करबरहीं ॥
 +
"पीव पीव"कर लाग पपीहा । "तुही तुही" कर गडुरी जीहा ॥
 +
`कुहू कुहू' करि कोइल राखा । औ भिंगराज बोल बहु भाखा ॥
 +
`दही दही' करि महरि पुकारा । हारिल बिनवै आपन हारा ॥
 +
कुहुकहिं मोर सोहावन लागा । होइ कुराहर बोलहि कागा ॥
  
फरै आँब अति सघन सोहाए औ जस फरे अधिक सिर नाए ॥<br>
+
जावत पंखी जगत के भरि बैठे अमराउँ
कटहर डार पींड सन पाके । बडहर, सो अनूप अति ताके ॥<br>
+
आपनि आपनि भाषा लेहिं दई कर नाउँ ॥5॥
खिरनी पाकि खाँड अस मीठी । जामुन पाकि भँवर अति डीठी ॥<br>
+
नरियर फरे फरी फरहरी । फुरै जानु इंद्रासन पुरी ॥<br>
+
पुनि महुआ चुअ अधिक मिठासू । मधु जस मीठ, पुहुप जस बासू ॥<br>
+
और खजहजा अनबन नाऊँ । देखा सब राउन-अमराऊ ॥<br>
+
लाग सबै जस अमृत साखा । रहै लोभाइ सोइ जो चाखा ॥<br><br>
+
  
लवग सुपारी जायफल सब फर फरे अपूर <br>
+
पैग पैग पर कुआँ बावरी साजी बैठक और पाँवरी ॥
आसपास घन इमिली घन तार खजूर ॥4॥<br><br>
+
और कुंड बहु ठावहिं ठाऊँ। सब तीरथ तिन्ह के नाऊँ ॥
 +
मठ मंडप चहुँ पास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे ॥
 +
कोइ सु ऋषीसुर, कोइ सन्यासी । कोई रामजती बिसवासी ॥
 +
कोई ब्रह्मचार पथ लागे । कोइ सो दिगंबर बिचरहिं नाँगे ॥
 +
कोई सु महेसुर जंगम जती । कोइ एक परखै देबी सती ॥
 +
कोई सुरसती कोई जोगी । निरास पथ बैठ बियोगी ॥
  
बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाखा करहिं हुलास देखि कै साखा ॥<br>
+
सेवरा, खेवरा, बानपर, सिध, साधक, अवधूत
भोर होत बोलहिं चुहुचूही । बोलहिं पाँडुक "एकै तूही"" ॥<br>
+
आसन मारे बैट सब जारि आतमा भूत ॥6॥
सारौं सुआ जो रहचह करही । कुरहिं परेवा औ करबरहीं ॥<br>
+
"पीव पीव"कर लाग पपीहा । "तुही तुही" कर गडुरी जीहा ॥<br>
+
`कुहू कुहू' करि कोइल राखा । औ भिंगराज बोल बहु भाखा ॥<br>
+
`दही दही' करि महरि पुकारा । हारिल बिनवै आपन हारा ॥<br>
+
कुहुकहिं मोर सोहावन लागा । होइ कुराहर बोलहि कागा ॥<br><br>
+
  
जावत पंखी जगत के भरि बैठे अमराउँ <br>
+
मानसरोदक बरनौं काहा भरा समुद अस अति अवगाहा ॥
आपनि आपनि भाषा लेहिं दई कर नाउँ ॥5॥<br><br>
+
पानि मोती अस निरमल तासू । अमृत आनि कपूर सुबासू ॥
 +
लंकदीप कै सिला अनाई । बाँधा सरवर घाट बनाई ॥
 +
खँड खँड सीढी भईं गरेरी । उतरहिं चढहिं लोग चहुँ फेरी ॥
 +
फूला कँवल रहा होइ राता । सहस सहस पखुरिन कर छाता ॥
 +
उलथहिं सीफ , मोति उतराहीं । चुगहिं हंस औ केलि कराहीं ॥
 +
खनि पतार पानी तहँ काढा । छीरसमुद निकसा हुत बाढा ॥
  
पैग पैग पर कुआँ बावरी साजी बैठक और पाँवरी ॥<br>
+
ऊपर पाल चहूँ दिसि अमृत-फल सब रूख ।  
और कुंड बहु ठावहिं ठाऊँ। सब तीरथ तिन्ह के नाऊँ ॥<br>
+
देखि रूप सरवर कै गै पियास भूख ॥7॥
मठ मंडप चहुँ पास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे ॥<br>
+
कोइ सु ऋषीसुर, कोइ सन्यासी । कोई रामजती बिसवासी ॥<br>
+
कोई ब्रह्मचार पथ लागे । कोइ सो दिगंबर बिचरहिं नाँगे ॥<br>
+
कोई सु महेसुर जंगम जती । कोइ एक परखै देबी सती ॥<br>
+
कोई सुरसती कोई जोगी । निरास पथ बैठ बियोगी ॥<br><br>
+
  
सेवरा, खेवरा, बानपर, सिध, साधक, अवधूत <br>
+
पानि भरै आवहिं पनिहारी । रूप सुरूप पदमिनी नारी ॥
आसन मारे बैट सब जारि आतमा भूत ॥6॥<br><br>
+
पदुमगंध तिन्ह अंग बसाहीं । भँवर लागि तिन्ह सँग फिराहीं ॥
 +
लंक-सिंघिनी, सारँगनैनी हंसगामिनी कोकिलबैनी ॥
 +
आवहिं झुंड सो पाँतिहिं पाँती । गवन सोहाइ सु भाँतिहिं भाँती ॥
 +
कनक कलस मुखचंद दिपाहीं । रहस केलि सन आवहिं जाहीं ॥
 +
जा सहुँ वै हेरैं चख नारी ।बाँक नैन जनु हनहिं कटारी ॥
 +
केस मेघावर सिर ता पाईं । चमकहिं दसन बीजु कै नाईं ॥
  
मानसरोदक बरनौं काहा भरा समुद अस अति अवगाहा ॥<br>
+
माथे कनक गागरी आवहिं रूप अनूप
पानि मोती अस निरमल तासू । अमृत आनि कपूर सुबासू ॥<br>
+
जेहि के अस पनहारी सो रानी केहि रूप ॥8॥
लंकदीप कै सिला अनाई । बाँधा सरवर घाट बनाई ॥<br>
+
खँड खँड सीढी भईं गरेरी । उतरहिं चढहिं लोग चहुँ फेरी ॥<br>
+
फूला कँवल रहा होइ राता । सहस सहस पखुरिन कर छाता ॥<br>
+
उलथहिं सीफ , मोति उतराहीं । चुगहिं हंस औ केलि कराहीं ॥<br>
+
खनि पतार पानी तहँ काढा । छीरसमुद निकसा हुत बाढा ॥<br><br>
+
  
ऊपर पाल चहूँ दिसि अमृत-फल सब रूख <br>
+
ताल तलाव बरनि नहिं जाहीं सूझै वार पार किछु नाहीं ॥
देखि रूप सरवर कै गै पियास औ भूख ॥7॥<br><br>
+
फूले कुमुद सेत उजियारे । मानहुँ उए गगन महँ तारे ॥
 +
उतरहिं मेघ चढहि लेइ पानी चमकहिं मच्छ बीजु कै बानी ॥
 +
पौंरहि पंख सुसंगहिं संगा । सेत पीत राते बहु रंगा ॥
 +
चकई चकवा केलि कराहीं । निसि के बिछोह, दिनहिं मिलि जाहीं ॥
 +
कुररहिं सारस करहिं हुलासा । जीवन मरन सो एकहिं पासा ॥
 +
बोलहिं सोन ढेक बगलेदी । रही अबोल मीन जल-भेदी ॥
  
पानि भरै आवहिं पनिहारी रूप सुरूप पदमिनी नारी ॥<br>
+
नग अमोल तेहि तालहिं दिनहिं बरहिं जस दीप
पदुमगंध तिन्ह अंग बसाहीं । भँवर लागि तिन्ह सँग फिराहीं ॥<br>
+
जो मरजिया होइ तहँ सो पावै वह सीप ॥9॥
लंक-सिंघिनी, सारँगनैनी । हंसगामिनी कोकिलबैनी ॥<br>
+
आवहिं झुंड सो पाँतिहिं पाँती । गवन सोहाइ सु भाँतिहिं भाँती ॥<br>
+
कनक कलस मुखचंद दिपाहीं । रहस केलि सन आवहिं जाहीं ॥<br>
+
जा सहुँ वै हेरैं चख नारी ।बाँक नैन जनु हनहिं कटारी ॥<br>
+
केस मेघावर सिर ता पाईं । चमकहिं दसन बीजु कै नाईं ॥<br><br>
+
  
माथे कनक गागरी आवहिं रूप अनूप <br>
+
आस-पास बहु अमृत बारी फरीं अपूर होइ रखवारी ॥
जेहि के अस पनहारी सो रानी केहि रूप ॥8॥<br><br>
+
नारग नीबू सुरँग जंभीरा । औ बदाम बहु भेद अँजीरा ॥
 +
गलगल तुरज सदाफर फरे । नारँग अति राते रस भरे ॥
 +
किसमिस सेव फरे नौ पाता । दारिउँ दाख देखि मन राता ॥
 +
लागि सुहाई हरफारयोरी । उनै रही केरा कै घौरी ॥
 +
फरे तूत कमरख औ न्योजी । रायकरौंदा बेर चिरौंजी ॥
 +
संगतरा व छुहारा दीठे । और खजहजा खाटे मीठे ॥
  
ताल तलाव बरनि नहिं जाहीं सूझै वार पार किछु नाहीं ॥<br>
+
पानि देहिं खँडवानी कुवहिं खाँड बहु मेलि
फूले कुमुद सेत उजियारे । मानहुँ उए गगन महँ तारे ॥<br>
+
लागी घरी ग्हट कै सीचहिं अमृतबेल ॥10॥
उतरहिं मेघ चढहि लेइ पानी चमकहिं मच्छ बीजु कै बानी ॥<br>
+
पौंरहि पंख सुसंगहिं संगा । सेत पीत राते बहु रंगा ॥<br>
+
चकई चकवा केलि कराहीं । निसि के बिछोह, दिनहिं मिलि जाहीं ॥<br>
+
कुररहिं सारस करहिं हुलासा । जीवन मरन सो एकहिं पासा ॥<br>
+
बोलहिं सोन ढेक बगलेदी । रही अबोल मीन जल-भेदी ॥<br><br>
+
  
नग अमोल तेहि तालहिं दिनहिं बरहिं जस दीप <br>
+
पुनि फुलवारि लागि चहुँ पासा बिरिछ बेधि चंदन भइ बासा ॥
जो मरजिया होइ तहँ सो पावै वह सीप ॥9॥<br><br>
+
बहुत फूल फूलीं घनबेली । केवडा चंपा कुंद चमेली ॥
 +
सुरँग गुलाल कदम और कूजा । सुगँध बकौरी गंध्रब पूजा ॥
 +
जाही जूही बगुचन लावा । पुहुप सुदरसन लाग सुहावा ॥
 +
नागेसर सदबरग नेवारी । औ सिंगारहार फुलवारी ॥
 +
सोनजरद फूलीं सेवती । रूपमंजरी और मालती ॥
 +
मौलसिरी बेइलि औ करना । सबै फूल फूले बहुबरना ॥
  
आस-पास बहु अमृत बारी फरीं अपूर होइ रखवारी ॥<br>
+
तेहिं सिर फूल चढहिं वै जेहि माथे मनि-भाग ।  
नारग नीबू सुरँग जंभीरा । औ बदाम बहु भेद अँजीरा ॥<br>
+
आछहिं सदा सुगंध बहु जनु बसंत फाग ॥11॥
गलगल तुरज सदाफर फरे । नारँग अति राते रस भरे ॥<br>
+
किसमिस सेव फरे नौ पाता । दारिउँ दाख देखि मन राता ॥ <br>
+
लागि सुहाई हरफारयोरी । उनै रही केरा कै घौरी ॥<br>
+
फरे तूत कमरख न्योजी । रायकरौंदा बेर चिरौंजी ॥<br>
+
संगतरा व छुहारा दीठे । और खजहजा खाटे मीठे ॥<br><br>
+
  
पानि देहिं खँडवानी कुवहिं खाँड बहु मेलि <br>
+
सिंगलनगर देखु पुनि बसा धनि राजा अस जे कै दसा ॥
लागी घरी ग्हट कै सीचहिं अमृतबेल ॥10॥<br><br>
+
ऊँची पौरी ऊँच अवासा । जनु कैलास इंद्र कर वासा ॥
 +
राव रंक सब घर घर सुखी । जो दीखै सौ हँसता-मुखी ॥
 +
रचि रचि साजे चंदन चौरा । पोतें अगर मेद औ गौरा ॥
 +
सब चौपारहि चंदन खभा । ओंठँघि सभासद बैठे सभा ॥
 +
मनहुँ सभा देवतन्ह कर जुरी । परी दीठि इंद्रासन पुरी ॥
 +
सबै गुनी औ पंडित ज्ञाता । संसकिरित सबके मुख बाता ॥
  
पुनि फुलवारि लागि चहुँ पासा बिरिछ बेधि चंदन भइ बासा ॥<br>
+
अस कै मंदिर सँवारे जनु सिवलोक अनूप
बहुत फूल फूलीं घनबेली । केवडा चंपा कुंद चमेली ॥<br>
+
घर घर नारि पदमिनी मोहहिं दरसन-रूप ॥12॥
सुरँग गुलाल कदम और कूजा । सुगँध बकौरी गंध्रब पूजा ॥<br>
+
जाही जूही बगुचन लावा । पुहुप सुदरसन लाग सुहावा ॥<br>
+
नागेसर सदबरग नेवारी । औ सिंगारहार फुलवारी ॥<br>
+
सोनजरद फूलीं सेवती । रूपमंजरी और मालती ॥<br>
+
मौलसिरी बेइलि औ करना । सबै फूल फूले बहुबरना ॥<br><br>
+
  
तेहिं सिर फूल चढहिं वै जेहि माथे मनि-भाग <br>
+
पुनि देखी सिंघल फै हाटा नवो निद्धि लछिमी सब बाटा ॥
आछहिं सदा सुगंध बहु जनु बसंत फाग ॥11॥<br><br>
+
कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी । बैठ महाजन सिंघलदीपी ॥
 +
रचहिं हथौडा रूपन ढारी । चित्र कटाव अनेक सवारी ॥
 +
सोन रूप भल भयऊ पसारा । धवल सिरीं पोतहिं घर बारा ॥
 +
रतन पदारथ मानिक मोती । हीरा लाल सो अनबन जोती ॥
 +
कपूर बेना कस्तूरी । चंदन अगर रहा भरपूरी ॥
 +
जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा । ता कहँ आन हाट कित लाहा ?॥
  
सिंगलनगर देखु पुनि बसा धनि राजा अस जे कै दसा ॥<br>
+
कोई करै बेसाहिनी, काहू केर बिकाइ
ऊँची पौरी ऊँच अवासा । जनु कैलास इंद्र कर वासा ॥ <br>
+
कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गवाइ ॥13॥
राव रंक सब घर घर सुखी । जो दीखै सौ हँसता-मुखी ॥<br>
+
रचि रचि साजे चंदन चौरा । पोतें अगर मेद औ गौरा ॥<br>
+
सब चौपारहि चंदन खभा । ओंठँघि सभासद बैठे सभा ॥<br>
+
मनहुँ सभा देवतन्ह कर जुरी । परी दीठि इंद्रासन पुरी ॥<br>
+
सबै गुनी औ पंडित ज्ञाता । संसकिरित सबके मुख बाता ॥<br><br>
+
  
अस कै मंदिर सँवारे जनु सिवलोक अनूप <br>
+
पुनि सिंगारहाट भल देसा किए सिंगार बैठीं तहँ बेसा ॥
घर घर नारि पदमिनी मोहहिं दरसन-रूप ॥12॥<br><br>
+
मुख तमोल तन चीर कुसुंभी । कानन कनक जडाऊ खुंभी ॥
 +
हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं । नर मोहहिं सुनि, पैग न जाहीं ॥
 +
भौंह धनुष, तिन्ह नैन अहेरी । मारहिं बान सान सौं फेरी ॥
 +
अलक कपोल डोल हँसि देहीं । लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं ॥
 +
कुच कंचुक जानौ जुग सारी । अंचल देहिं सुभावहिं ढारी ॥
 +
केत खिलार हारि तेहि पासा । हाथ झारि उठि चलहिं निरासा ॥
  
पुनि देखी सिंघल फै हाटा नवो निद्धि लछिमी सब बाटा ॥<br>
+
चेटक लाइ हरहिं मन जब लहि होइ गथ फेंट
कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी । बैठ महाजन सिंघलदीपी ॥<br>
+
साँठ नाठि उटि भए बटाऊ, ना पहिचान भेंट ॥14॥
रचहिं हथौडा रूपन ढारी । चित्र कटाव अनेक सवारी ॥<br>
+
सोन रूप भल भयऊ पसारा । धवल सिरीं पोतहिं घर बारा ॥<br>
+
रतन पदारथ मानिक मोती । हीरा लाल सो अनबन जोती ॥<br>
+
औ कपूर बेना कस्तूरी । चंदन अगर रहा भरपूरी ॥<br>
+
जिन्ह एहि हाट लीन्ह बेसाहा । ता कहँ आन हाट कित लाहा ?॥<br><br>
+
  
कोई करै बेसाहिनी, काहू केर बिकाइ <br>
+
लेइ के फूल बैठि फुलहारी पान अपूरब धरे सँवारी ॥
कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गवाइ ॥13॥<br><br>
+
सोंधा सबै बैठ ले गाँधी । फूल कपूर खिरौरी बाँधी ॥
 +
कतहूँ पंडित पढँहिं पुरानू । धरमपंथ कर करहिं बखानू ॥
 +
कतहूँ कथा कहै किछु कोई । कतहूँ नाच-कूद भल होई ॥
 +
कतहुँ चिरहँटा पंखी लावा । कतहूँ पखंडी काठ नचावा ॥
 +
कतहूँ नाद सबद होइ भला । कतहूँ नाटक चेटक-कला ॥
 +
कतहुँ काहु ठगविद्या लाई । कतहुँ लेहिं मानुष बौराई ॥
  
पुनि सिंगारहाट भल देसा किए सिंगार बैठीं तहँ बेसा ॥<br>
+
चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच
मुख तमोल तन चीर कुसुंभी । कानन कनक जडाऊ खुंभी ॥<br>
+
जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच ॥15॥
हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं । नर मोहहिं सुनि, पैग न जाहीं ॥<br>
+
भौंह धनुष, तिन्ह नैन अहेरी । मारहिं बान सान सौं फेरी ॥<br>
+
अलक कपोल डोल हँसि देहीं । लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं ॥<br>
+
कुच कंचुक जानौ जुग सारी । अंचल देहिं सुभावहिं ढारी ॥<br>
+
केत खिलार हारि तेहि पासा । हाथ झारि उठि चलहिं निरासा ॥<br><br>
+
  
चेटक लाइ हरहिं मन जब लहि होइ गथ फेंट <br>
+
पुनि आए सिंघल गढ पासा का बरनौं जनु लाग अकासा ॥
साँठ नाठि उटि भए बटाऊ, ना पहिचान भेंट ॥14॥<br><br>
+
तरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी । ऊपर इंद्र लोक पर दीठी ॥
 +
परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका । काँपै जाँघ, जाइ नहिं झाँका ॥
 +
अगम असूझ देखि डर खाई । परै सो सपत-पतारहिं जाई ॥
 +
नव पौरी बाँकी, नवखंडा । नवौ जो चढे जाइ बरम्हंडा ॥
 +
कंचन कोट जरे नग सीसा । नखतहिं भरी बीजु जनु दीसा ॥
 +
लंका चाहि ऊँच गढ ताका । निरखि जाइ, दीठि तन थाका ॥
  
लेइ के फूल बैठि फुलहारी पान अपूरब धरे सँवारी ॥<br>
+
हिय न समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ सुमेर
सोंधा सबै बैठ ले गाँधी । फूल कपूर खिरौरी बाँधी ॥<br>
+
कहँ लगि कहौं ऊँचाई, कहँ लगि बरनौं फेर ॥16॥
कतहूँ पंडित पढँहिं पुरानू । धरमपंथ कर करहिं बखानू ॥<br>
+
कतहूँ कथा कहै किछु कोई । कतहूँ नाच-कूद भल होई ॥<br>
+
कतहुँ चिरहँटा पंखी लावा । कतहूँ पखंडी काठ नचावा ॥<br>
+
कतहूँ नाद सबद होइ भला । कतहूँ नाटक चेटक-कला ॥<br>
+
कतहुँ काहु ठगविद्या लाई । कतहुँ लेहिं मानुष बौराई ॥<br><br>
+
  
चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच <br>
+
निति गढ बाँचि चलै ससि सूरू नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू ॥
जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच ॥15॥<br><br>
+
पौरी नवौ बज्र कै साजी । सहस सहस तहँ बैठे पाजी ॥
 +
फिरहिं पाँच कोतवार सुभौंरी । काँपै पावैं चपत वह पौरी ॥
 +
पौरहि पौरि सिंह गढि काढे । डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढे ॥
 +
बहुबिधान वै नाहर गढे । जनु गाजहिं, चाहहिं सिर चढे ॥
 +
टारहिं पूँछ, पसारहिं जीहा । कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा ॥
 +
कनक सिला गढि सीढी लाई । जगमगाहि गढ ऊपर ताइ ॥
  
पुनि आए सिंघल गढ पासा । का बरनौं जनु लाग अकासा ॥<br>
+
नवौं खंड नव पौरी , औ तहँ बज्र-केवार
तरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी । ऊपर इंद्र लोक पर दीठी ॥<br>
+
चारि बसेरे सौं चढै, सत सौं उतरे पार ॥17॥
परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका । काँपै जाँघ, जाइ नहिं झाँका ॥<br>
+
अगम असूझ देखि डर खाई । परै सो सपत-पतारहिं जाई ॥<br>
+
नव पौरी बाँकी, नवखंडा नवौ जो चढे जाइ बरम्हंडा ॥<br>
+
कंचन कोट जरे नग सीसा । नखतहिं भरी बीजु जनु दीसा ॥<br>
+
लंका चाहि ऊँच गढ ताका । निरखि न जाइ, दीठि तन थाका ॥<br><br>
+
  
हिय समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ सुमेर <br>
+
नव पौरी पर दसवँ दुवारा । तेहि पर बाज राज-घरियारा ॥
कहँ लगि कहौं ऊँचाई, कहँ लगि बरनौं फेर ॥16॥<br><br>
+
घरी सो बैठि गनै घरियारी । पहर सो आपनि बारी ॥
 +
जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा । घरी घरी घरियार पुकारा ॥
 +
परा जो डाँड जगत सब डाँडा । का निचिंत माटी कर भाँडा ?॥
 +
तुम्ह तेहि चाक चढे हौ काँचे । आएहु रहै थिर होइ बाँचे ॥
 +
घरी जो भरी घटी तुम्ह आऊ का निचिंत होइ सोउ बटाऊ ?॥
 +
पहरहिं पहर गजर निति होई । हिया बजर, मन जाग न सोई ॥
  
निति गढ बाँचि चलै ससि सूरू । नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू ॥<br>
+
मुहमद जीवन-जल भरन, रहँट-घरी कै रीति
पौरी नवौ बज्र कै साजी सहस सहस तहँ बैठे पाजी ॥<br>
+
घरी जो आई ज्यों भरी , ढरी,जनम गा बीति ॥18॥
फिरहिं पाँच कोतवार सुभौंरी । काँपै पावैं चपत वह पौरी ॥<br>
+
पौरहि पौरि सिंह गढि काढे । डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढे ॥<br>
+
बहुबिधान वै नाहर गढे । जनु गाजहिं, चाहहिं सिर चढे ॥<br>
+
टारहिं पूँछ, पसारहिं जीहा । कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा ॥<br>
+
कनक सिला गढि सीढी लाई । जगमगाहि गढ ऊपर ताइ ॥<br><br>
+
  
नवौं खंड नव पौरी , औ तहँ बज्र-केवार <br>
+
गढ पर नीर खीर दुइ नदी । पनिहारी जैसे दुरपदी ॥
चारि बसेरे सौं चढै, सत सौं उतरे पार ॥17॥ <br><br>
+
और कुंड एक मोतीचूरू । पानी अमृत, कीच कपूरु ॥
 +
ओहि क पानि राजा पै पीया । बिरिध होइ नहिं जौ लहि जीया ॥
 +
कंचन-बिरछि एक तेहि पासा जस कलपतरु इंद्र-कविलासा ॥
 +
मूल पतार, सरग ओहि साखा । अमरबेलि को पाव, को चाखा ?॥
 +
चाँद पात औ फूल तराईं । होइ उजियार नगर जहँ ताई ॥
 +
वह फल पावै तप करि कोई । बिरधि खाइ तौ जोबन होई ॥
  
नव पौरी पर दसवँ दुवारा तेहि पर बाज राज-घरियारा ॥<br>
+
राजा भए भिखारी सुनि वह अमृत भोग
घरी सो बैठि गनै घरियारी । पहर सो आपनि बारी ॥<br>
+
जेइ पावा सो अमर भा, ना किछु व्याधि रोग ॥19॥
जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा । घरी घरी घरियार पुकारा ॥<br>
+
परा जो डाँड जगत सब डाँडा । का निचिंत माटी कर भाँडा ?॥<br>
+
तुम्ह तेहि चाक चढे हौ काँचे । आएहु रहै न थिर होइ बाँचे ॥<br>
+
घरी जो भरी घटी तुम्ह आऊ । का निचिंत होइ सोउ बटाऊ ?॥ <br>
+
पहरहिं पहर गजर निति होई । हिया बजर, मन जाग सोई ॥ <br><br>
+
  
मुहमद जीवन-जल भरन, रहँट-घरी कै रीति <br>
+
गढ पर बसहिं झारि गढपती । असुपति, गजपति, भू-नर-पती ॥
घरी जो आई ज्यों भरी , ढरी,जनम गा बीति ॥18॥<br><br>
+
सब धौराहर सोने साजा अपने अपने घर सब राजा ॥
 +
रूपवंत धनवंत सभागे । परस पखान पौरि तिन्ह लागे ॥
 +
भोग-विलास सदा सब माना । दुख चिंता कोइ जनम न जाना ॥
 +
मँदिर मँदिर सब के चौपारी । बैठि कुँवर सब खेलहिं सारी ॥
 +
पासा ढरहिं खेल भल होई । खडगदान सरि पूज न कोई ॥
 +
भाँट बरनि कहि कीरति भली । पावहिं हस्ति घोड सिंघली ॥
  
गढ पर नीर खीर दुइ नदी । पनिहारी जैसे दुरपदी ॥<br>
+
मँदिर मँदिर फुलवारी, चोवा चंदन बास
और कुंड एक मोतीचूरू । पानी अमृत, कीच कपूरु ॥<br>
+
निसि दिन रहै बसंत तहँ छवौ ऋतु बारह मास ॥20॥
ओहि क पानि राजा पै पीया बिरिध होइ नहिं जौ लहि जीया ॥<br>
+
कंचन-बिरछि एक तेहि पासा । जस कलपतरु इंद्र-कविलासा ॥<br>
+
मूल पतार, सरग ओहि साखा । अमरबेलि को पाव, को चाखा ?॥<br>
+
चाँद पात औ फूल तराईं । होइ उजियार नगर जहँ ताई ॥<br>
+
वह फल पावै तप करि कोई । बिरधि खाइ तौ जोबन होई ॥<br><br>
+
  
राजा भए भिखारी सुनि वह अमृत भोग <br>
+
पुनि चलि देखा राज-दुआरा मानुष फिरहिं पाइ नहिं बारा ॥
जेइ पावा सो अमर भा, ना किछु व्याधि न रोग ॥19॥<br><br>
+
हस्ति सिंघली बाँधे बारा । जनु सजीव सब ठाढ पहारा ॥
 +
कौनौ सेत, पीत रतनारे । कौनौं हरे, धूम औ कारे ॥
 +
बरनहिं बरन गगन जस मेघा । औ तिन्ह गगन पीठी जनु ठेघा ॥
 +
सिंघल के बरनौं सिंघली । एक एक चाहि एक एक बली ॥
 +
गिरि पहार वै पैगहि पेलहिं । बिरिछ उचारि डारि मुख मेलहिं ॥
 +
माते तेइ सब गरजहिं बाँधे । निसि दिन रहहिं महाउत काँधे ॥
  
गढ पर बसहिं झारि गढपती । असुपति, गजपति, भू-नर-पती ॥<br>
+
धरती भार न अगवै, पाँव धरत उठ हालि
सब धौराहर सोने साजा अपने अपने घर सब राजा ॥<br>
+
कुरुम टुटै, भुइँ फाटै तिन हस्तिन के चालि ॥21॥
रूपवंत धनवंत सभागे । परस पखान पौरि तिन्ह लागे ॥<br>
+
भोग-विलास सदा सब माना । दुख चिंता कोइ जनम न जाना ॥<br>
+
मँदिर मँदिर सब के चौपारी । बैठि कुँवर सब खेलहिं सारी ॥<br>
+
पासा ढरहिं खेल भल होई । खडगदान सरि पूज न कोई ॥<br>
+
भाँट बरनि कहि कीरति भली । पावहिं हस्ति घोड सिंघली ॥<br><br>
+
  
मँदिर मँदिर फुलवारी, चोवा चंदन बास <br>
+
पुनि बाँधे रजबार तुरंगा । का बरनौं जस उन्हकै रंगा ॥
निसि दिन रहै बसंत तहँ छवौ ऋतु बारह मास ॥20॥<br><br>
+
लील, समंद चाल जग जाने हाँसुल, भौंर, गियाह बखाने ॥
 +
हरे, कुरंग, महुअ बहु भाँती । गरर, कोकाह, बुलाह सु पाँती ॥
 +
तीख तुखार चाँड औ बाँके । सँचरहिं पौरि ताज बिनु हाँके ॥
 +
मन तें अगमन डोलहिं बागा । लेत उसास गगन सिर लागा ॥
 +
पौन-समान समुद पर धावहिं । बूड न पाँव, पार होइ आवहिं ॥
 +
थिर न रहहिं, रिस लोह चबाहीं । भाँजहिं पूँछ, सीस उपराहीं ॥
  
पुनि चलि देखा राज-दुआरा । मानुष फिरहिं पाइ नहिं बारा ॥<br>
+
अस तुखार सब देखे जनु मन के रथवाह
हस्ति सिंघली बाँधे बारा । जनु सजीव सब ठाढ पहारा ॥<br>
+
नैन-पलक पहुँचावहिं जहँ पहुँचा कोइ चाह ॥22॥
कौनौ सेत, पीत रतनारे । कौनौं हरे, धूम औ कारे ॥<br>
+
बरनहिं बरन गगन जस मेघा । औ तिन्ह गगन पीठी जनु ठेघा ॥<br>
+
सिंघल के बरनौं सिंघली एक एक चाहि एक एक बली ॥<br>
+
गिरि पहार वै पैगहि पेलहिं । बिरिछ उचारि डारि मुख मेलहिं ॥<br>
+
माते तेइ सब गरजहिं बाँधे । निसि दिन रहहिं महाउत काँधे ॥<br><br>
+
  
धरती भार न अगवै, पाँव धरत उठ हालि <br>
+
राजसभा पुनि देख बईठी इंद्रसभा जनु परि गै डीठी ॥
कुरुम टुटै, भुइँ फाटै तिन हस्तिन के चालि ॥21॥<br><br>
+
धनि राजा असि सभा सँवारी । जानहु फूलि रही फुलवारी ॥
 +
मुकुट बाँधि सब बैठे राजा । दर निसान नित जिन्हके बाजा ॥
 +
रूपवंत, मनि दिपै लिलाटा । माथे छात, बैठ सब पाटा ॥
 +
मानहुँ कँवल सरोवर फूले । सभा क रूप देखि मन भूले ॥
 +
पान कपूर मेद कस्तूरी । सुगँध बास भरि रही अपूरी ॥
 +
माँझ ऊँच इंद्रासन साजा । गंध्रबसेन बैठ तहँ राजा ॥
  
पुनि बाँधे रजबार तुरंगा । का बरनौं जस उन्हकै रंगा ॥<br>
+
छत्र गगन लगि ताकर, सूर तवै जस आप
लील, समंद चाल जग जाने हाँसुल, भौंर, गियाह बखाने ॥<br>
+
सभा कँवल अस बिगसै, माथे बड परताप ॥23॥
हरे, कुरंग, महुअ बहु भाँती । गरर, कोकाह, बुलाह सु पाँती ॥<br>
+
तीख तुखार चाँड औ बाँके । सँचरहिं पौरि ताज बिनु हाँके ॥<br>
+
मन तें अगमन डोलहिं बागा । लेत उसास गगन सिर लागा ॥<br>
+
पौन-समान समुद पर धावहिं । बूड न पाँव, पार होइ आवहिं ॥<br>
+
थिर न रहहिं, रिस लोह चबाहीं । भाँजहिं पूँछ, सीस उपराहीं ॥<br><br>
+
  
अस तुखार सब देखे जनु मन के रथवाह <br>
+
साजा राजमंदिर कैलासू । सोने कर सब धरति अकासू ॥
नैन-पलक पहुँचावहिं जहँ पहुँचा कोइ चाह ॥22॥<br><br>
+
सात खंड धौराहर साजा । उहै सँवारि सकै अस राजा ॥
 +
हीरा ईंट, कपूर गिलावा । औ नग लाइ सरग लै लावा ॥
 +
जावत सबै उरेह उरेहे । भाँति भाँति नग लाग उबेहे ॥
 +
भाव कटाव सब अनबत भाँती चित्र कोरि कै पाँतिहिं पाँती ॥
 +
लाग खंभ-मनि-मानिक जरे । निसि दिन रहहिं दीप जनु बरे ॥
 +
देखि धौरहर कर उँजियारा । छपि गए चाँद सुरुज औ तारा ॥
  
राजसभा पुनि देख बईठी इंद्रसभा जनु परि गै डीठी ॥<br>
+
सुना सात बैकुंठ जस तस साजे खँड सात
धनि राजा असि सभा सँवारी । जानहु फूलि रही फुलवारी ॥<br>
+
बेहर बेहर भाव तस खंड खंड उपरात ॥24॥
मुकुट बाँधि सब बैठे राजा । दर निसान नित जिन्हके बाजा ॥<br>
+
रूपवंत, मनि दिपै लिलाटा । माथे छात, बैठ सब पाटा ॥<br>
+
मानहुँ कँवल सरोवर फूले । सभा क रूप देखि मन भूले ॥<br>
+
पान कपूर मेद कस्तूरी । सुगँध बास भरि रही अपूरी ॥<br>
+
माँझ ऊँच इंद्रासन साजा । गंध्रबसेन बैठ तहँ राजा ॥<br><br>
+
  
छत्र गगन लगि ताकर, सूर तवै जस आप <br>
+
वरनों राजमंदिर रनिवासू जनु अछरीन्ह भरा कविलासू ॥
सभा कँवल अस बिगसै, माथे बड परताप ॥23॥<br><br>
+
सोरह सहस पदमिनी रानी । एक एक तें रूप बखानी ॥
 +
अतिसुरूप औ अति सुकुवाँरी । पान फूल के रहहिं अधारी ॥
 +
तिन्ह ऊपर चंपावति रानी । महा सुरूप पाट-परधानी ॥
 +
पाट बैठि रह किए सिंगारू । सब रानी ओहि करहिं जोहारू ॥
 +
निति नौरंग सुरंगम सोई । प्रथम बैस नहिं सरवरि कोई ॥
 +
सकल दीप महँ जेती रानी । तिन्ह महँ दीपक बारह-बानी ॥
  
साजा राजमंदिर कैलासू । सोने कर सब धरति अकासू ॥<br>
+
कुँवर बतीसो-लच्छनी अस सब माँ अनूप ।
सात खंड धौराहर साजा । उहै सँवारि सकै अस राजा ॥<br>
+
जावत सिंघलदीप के सबै बखानैं रूप ॥25॥
हीरा ईंट, कपूर गिलावा । औ नग लाइ सरग लै लावा ॥<br>
+
जावत सबै उरेह उरेहे । भाँति भाँति नग लाग उबेहे ॥<br>
+
भाव कटाव सब अनबत भाँती । चित्र कोरि कै पाँतिहिं पाँती ॥<br>
+
लाग खंभ-मनि-मानिक जरे । निसि दिन रहहिं दीप जनु बरे ॥<br>
+
देखि धौरहर कर उँजियारा । छपि गए चाँद सुरुज औ तारा ॥<br><br>
+
 
+
सुना सात बैकुंठ जस तस साजे खँड सात ।<br>
+
बेहर बेहर भाव तस खंड खंड उपरात ॥24॥<br><br>
+
 
+
वरनों राजमंदिर रनिवासू । जनु अछरीन्ह भरा कविलासू ॥ <br>
+
सोरह सहस पदमिनी रानी । एक एक तें रूप बखानी ॥<br>
+
अतिसुरूप औ अति सुकुवाँरी । पान फूल के रहहिं अधारी ॥<br>
+
तिन्ह ऊपर चंपावति रानी । महा सुरूप पाट-परधानी ॥<br>
+
पाट बैठि रह किए सिंगारू । सब रानी ओहि करहिं जोहारू ॥<br>
+
निति नौरंग सुरंगम सोई । प्रथम बैस नहिं सरवरि कोई ॥<br>
+
सकल दीप महँ जेती रानी । तिन्ह महँ दीपक बारह-बानी ॥<br><br>
+
 
+
कुँवर बतीसो-लच्छनी अस सब माँ अनूप ।<br>
+
जावत सिंघलदीप के सबै बखानैं रूप ॥25॥<br><br>
+
 
+
(1) बारी = बाला, स्त्री । सरनदीप-अरबवाले लंका को सरनदीप कहते थे । भूगोलल का ठीक
+
ज्ञान न होने के कारण कवि ने स्वर्णदीप और सिंहल को भिन्न भिन्न द्वीप माना है ।
+
हरा = शून्य
+
 
+
(2) तुखार =तुषार देश का घोडा । इंदू =इंद्र । चाहि = अपेक्षा (बढकर)
+
बनिस्बत। कविलास = स्वर्ग ।
+
  
 +
(1) बारी = बाला, स्त्री । सरनदीप-अरबवाले लंका को सरनदीप कहते थे । भूगोलल का ठीक ज्ञान न होने के कारण कवि ने स्वर्णदीप और सिंहल को भिन्न भिन्न द्वीप माना है । हरा = शून्य
 +
(2) तुखार =तुषार देश का घोडा । इंदू =इंद्र । चाहि = अपेक्षा (बढकर) बनिस्बत। कविलास = स्वर्ग ।
 
(3) भूमि हुत = पृथ्वी से (लेकर) लागि = तक ।
 
(3) भूमि हुत = पृथ्वी से (लेकर) लागि = तक ।
 
+
(4) पींड = जड के पास की पेडी । फुरै = सचमुच । खजहजा = खाने के फल । अनबन =भिन्न भिन्न
(4) पींड = जड के पास की पेडी । फुरै = सचमुच । खजहजा = खाने के फल । अनबन =भिन्न
+
(5) चुहचूही =एक छोटी चिडिया जिसे फूल सुँघनी भी कहते हैं । सारौं = सारिका, मैना । महरि = महोख से मिलती जुलती एक छोटी चिडिया जिसे ग्वालिन और अहीरिन भी कहते हैं । हारा = हाल, अथवा लाचारी, दीनता ।
भिन्न  
+
(6) पैग पैग पर = कदम कदम पर । पाँवरी = सीढी । ब्रह्मचार = ब्रह्मचर्य । सुरसती = सरस्वती (दसनामियों में ) खेवरा = सेवडों का एक भेद ।
 
+
(7) भईं = घूमी हैं । गरेरी = चक्करदार । पाल = ऊँचा बाँध या किनारा, भीटा ।
(5) चुहचूही =एक छोटी चिडिया जिसे फूल सुँघनी भी कहते हैं । सारौं = सारिका,  
+
मैना । महरि = महोख से मिलती जुलती एक छोटी चिडिया जिसे ग्वालिन और अहीरिन भी कहते  
+
हैं । हारा = हाल, अथवा लाचारी, दीनता ।  
+
 
+
(6) पैग पैग पर = कदम कदम पर ।  
+
पाँवरी = सीढी । ब्रह्मचार = ब्रह्मचर्य । सुरसती = सरस्वती (दसनामियों में ) खेवरा = सेवडों  
+
का एक भेद ।  
+
 
+
(7) भईं = घूमी हैं । गरेरी = चक्करदार । पाल = ऊँचा बाँध या किनारा,  
+
भीटा ।  
+
 
+
 
(8) मेघावर = बादल की घटा । ता पाईं = पैर तक । बीजु - बिजली ।
 
(8) मेघावर = बादल की घटा । ता पाईं = पैर तक । बीजु - बिजली ।
 
+
(9) बानी = वर्ण, रंग, चमक । सोन,ढेक, बग, लेदी = ताल की चिडिया । मरजिया = जान जोखिम में डालकर विकट स्थानों से व्यापार की वस्तुएँ लानेवाले, जीवकिया, जैसे, गोता खोर ।
(9) बानी = वर्ण, रंग, चमक । सोन,ढेक, बग, लेदी = ताल की चिडिया । मरजिया = जान
+
(10) हरफार््योरी = लवली । न्योजी = लीची । खँडवानी =काँड का रस ।
जोखिम में डालकर विकट स्थानों से व्यापार की वस्तुएँ लानेवाले, जीवकिया, जैसे, गोता
+
(11) कूजा = कुब्जक । पहाडी या जंगली गुलाब जिसके फूल सफेद होते हैं ।घनबेली =बेला की एक जाति । नागेसर = नागकेसर । बकौरी = बकावली । बगुचा = (गट्ठा) ढेर, राशि । सिंगार-हार = हरिसिंगार । शेफालिका ।
खोर ।  
+
(12) मेद = मेदा एक सुगंधित जड । गौरा = गोरोचन । ओठँवि = पीठ टिकाकर ।
 
+
(13) कुहकुहँ = कुंकुम, केसर । धवल = सफेदी । सिरी = श्री, रोली, लाल बुकनी । बेना =खस वा गंधबेन । बेसाहनी = खरीद ।
(10) हरफार््योरी = लवली । न्योजी = लीची । खँडवानी =काँड का रस ।  
+
(14) बेसा = वेश्या । खुंभी = कान में पहनने का एक गहना, लौंग या कील । सारी = सारि, पासा । गथ = पूँजी ।
 
+
(15) साँठ =पूँजी । नाठि = नष्ट हुई । सोंधा = सुगंध द्रव्य । गाँधी = गंधी । खिरौरी = केवडा देकर बाँधी हुई या कत्थे की टिकिया । चिरहँटा = बहेलिया । पखंडी = कठपुतलीवाला ।
(11) कूजा = कुब्जक । पहाडी या जंगली गुलाब जिसके फूल सफेद होते हैं ।घनबेली =बेला
+
की एक जाति । नागेसर = नागकेसर । बकौरी = बकावली । बगुचा = (गट्ठा) ढेर, राशि ।
+
सिंगार-हार = हरिसिंगार । शेफालिका ।
+
 
+
(12) मेद = मेदा एक सुगंधित जड । गौरा = गोरोचन । ओठँवि = पीठ टिकाकर ।  
+
 
+
(13) कुहकुहँ = कुंकुम, केसर । धवल = सफेदी । सिरी = श्री, रोली, लाल बुकनी । बेना =खस  
+
वा गंधबेन । बेसाहनी = खरीद ।  
+
 
+
(14) बेसा = वेश्या । खुंभी = कान में पहनने का एक  
+
गहना, लौंग या कील । सारी = सारि, पासा ।  
+
गथ = पूँजी ।  
+
 
+
(15) साँठ =पूँजी । नाठि = नष्ट हुई ।
+
सोंधा = सुगंध द्रव्य । गाँधी = गंधी । खिरौरी = केवडा देकर बाँधी हुई या कत्थे की  
+
टिकिया । चिरहँटा = बहेलिया । पखंडी = कठपुतलीवाला ।  
+
 
+
 
(16) करिन्ह = दिग्गजों ।
 
(16) करिन्ह = दिग्गजों ।
 
+
(17) पाजी = पैदल सिपाही । कोतवार । कोटपाल, कोतवाल । गुंजरि लीहा = गरज कर लिया । (18) बसेरा = टिकान ।
(17) पाजी = पैदल सिपाही । कोतवार । कोटपाल, कोतवाल । गुंजरि लीहा = गरज कर लिया ।
+
(19) रहँट-घरी =रहट में लगा छोटा घडा । घरियार = घंटा । घरी भरी = घडी पूरी हुई (पुराने समय में समय जानने के लिये पानी भरी नाँद में एक घडिया या कटोरा महीन महीन छेद करके तैरा दिया जाता था । जब पानी भर जाने पर घडिया डूब जाती थी तब एक घडी का बीतना माना जाता था ।
(18) बसेरा = टिकान ।  
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(19) रहँट-घरी =रहट में लगा छोटा घडा । घरियार = घंटा ।
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घरी भरी = घडी पूरी हुई (पुराने समय में समय जानने के लिये पानी भरी नाँद में एक  
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घडिया या कटोरा महीन महीन छेद करके तैरा दिया जाता था । जब पानी भर जाने पर घडिया  
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डूब जाती थी तब एक घडी का बीतना माना जाता था ।  
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(20) परस पखान = स्पर्शमणि, पारस पत्थर । सारी =पासा ।
 
(20) परस पखान = स्पर्शमणि, पारस पत्थर । सारी =पासा ।
 
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(20) झारि = बिल्कुल या समूह । सरि पूज = बराबरी को पहुँचता है । खडगदान =तलवार चलाना ।
(20) झारि = बिल्कुल या समूह । सरि पूज = बराबरी को पहुँचता है । खडगदान =तलवार  
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चलाना ।  
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(21) बारा = द्वार । ठेघा = सहारा दिया । अँगवै = शरीर पर सहती है ।
 
(21) बारा = द्वार । ठेघा = सहारा दिया । अँगवै = शरीर पर सहती है ।
 
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(22) रजबार = राजद्वार । समंद = बादामी रंग का घोडा । हँसुल = कुम्मैत हिनाई, मेहँदी के रंग का और पैर कुछ काले । भौंर = मुश्की । कियाह = ताड के पके फल के रंग का । हरे = सब्जा । कुरंग = लाख के रंग का या नीला कुम्मेत । महुअ = महुए के रंग का गरर = लाल और सफेद मिले रोएँ का, गर्रा । कोकाह = सफेद रंग का । बुलाह = बुल्लाह, गर्दन और पूँछ के बाल पीले । ताजा - ताजियाना, चाबुक । अगमन = आगे । तुखार = तुषार देश के घोडे, यहाँ घोडे ।
(22) रजबार = राजद्वार । समंद = बादामी रंग का घोडा । हँसुल = कुम्मैत हिनाई,  
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(23) दर =दरवाजा । मेद =मेदा, एक प्रकार की सुगंधित जड । तवै = तपता है
मेहँदी के रंग का और पैर कुछ काले । भौंर = मुश्की । कियाह = ताड के पके फल के रंग  
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(24) उरेह = चित्र । उबेहे =चुनेहुए, बीछे हुए । कोरिकै = खोद कर । बेहर बेहर = अलग अलग ।
का । हरे = सब्जा । कुरंग = लाख के रंग का या नीला कुम्मेत । महुअ = महुए के रंग का  
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गरर = लाल और सफेद मिले रोएँ का, गर्रा । कोकाह = सफेद रंग का । बुलाह = बुल्लाह,  
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गर्दन और पूँछ के बाल पीले । ताजा - ताजियाना, चाबुक । अगमन = आगे । तुखार = तुषार  
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देश के घोडे, यहाँ घोडे ।
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(23) दर =दरवाजा । मेद =मेदा, एक प्रकार की सुगंधित जड । तवै = तपता है  
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(24) उरेह = चित्र । उबेहे =चुनेहुए, बीछे हुए । कोरिकै = खोद कर । बेहर बेहर = अलग अलग ।  
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(25) बारह-बानी = द्वादशवर्णी, सूर्य्य की तरह चमकनेवाली ।
 
(25) बारह-बानी = द्वादशवर्णी, सूर्य्य की तरह चमकनेवाली ।
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17:12, 27 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण

सिंघलदीप कथा अब गावौं । औ सो पदमिनी बरनि सुनावौं ॥
निरमल दरपन भाँति बिसेखा । जौ जेहि रूप सो तैसई देखा ॥
धनि सो दीप जहँ दीपक-बारी । औ पदमिनि जो दई सँवारी ॥
सात दीप बरनै सब लोगू । एकौ दीप न ओहि सरि जोगू ॥
दियादीप नहिं तस उँजियारा । सरनदीप सर होइ न पारा ॥
जंबूदीप कहौं तस नाहीं । लंकदीप सरि पूज न छाहीं ॥
दीप गभस्थल आरन परा । दीप महुस्थल मानुस-हरा ॥

सब संसार परथमैं आए सातौं दीप ।
एक दीप नहिं उत्तिम सिंघलदीप समीप ॥1॥

ग्रंध्रबसेन सुगंध नरेसू । सो राजा, वह ताकर देसू ॥
लंका सुना जो रावन राजू । तेहु चाहि बड ताकर साजू ॥
छप्पन कोटि कटक दल साजा । सबै छत्रपति औ गढ -राजा ॥
सोरह सहस घोड घोडसारा । स्यामकरन अरु बाँक तुखारा ॥
सात सहस हस्ती सिंघली । जनु कबिलास एरावत बली ॥
अस्वपतिक-सिरमोर कहावै । गजपतीक आँकुस-गज नावै ॥
नरपतीक कहँ और नरिंदू ?। भूपतीक जग दूसर इंदू ॥

ऐस चक्कवै राजा चहूँ खंड भय होइ ।
सबै आइ सिर नावहिं सरबरि करै न कोइ ॥2॥

जबहि दीप नियरावा जाई । जनु कबिलास नियर भा आई ॥
घन अमराउ लाग चहुँ पासा । उठा भूमि हुत लागि अकासा ॥
तरिवर सबै मलयगिरि लाई । भइ जग छाँह रैनि होइ आई ॥
मलय-समीर सोहावन छाहाँ । जेठ जाड लागै तेहि माहाँ ॥
ओही छाँह रैनि होइ आवै । हरियर सबै अकास देखावै ॥
पथिक जो पहुँचै सहि कै घामू । दुख बिसरै, सुख होइ बिसरामू ॥
जेइ वह पाई छाँह अनूपा । फिरि नहिं आइ सहै यह धूपा ॥

अस अमराउ सघन घन, बरनि न पारौं अंत ।
फूलै फरै छवौ ऋतु , जानहु सदा बसंत ॥3॥

फरै आँब अति सघन सोहाए । औ जस फरे अधिक सिर नाए ॥
कटहर डार पींड सन पाके । बडहर, सो अनूप अति ताके ॥
खिरनी पाकि खाँड अस मीठी । जामुन पाकि भँवर अति डीठी ॥
नरियर फरे फरी फरहरी । फुरै जानु इंद्रासन पुरी ॥
पुनि महुआ चुअ अधिक मिठासू । मधु जस मीठ, पुहुप जस बासू ॥
और खजहजा अनबन नाऊँ । देखा सब राउन-अमराऊ ॥
लाग सबै जस अमृत साखा । रहै लोभाइ सोइ जो चाखा ॥

लवग सुपारी जायफल सब फर फरे अपूर ।
आसपास घन इमिली औ घन तार खजूर ॥4॥

बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाखा । करहिं हुलास देखि कै साखा ॥
भोर होत बोलहिं चुहुचूही । बोलहिं पाँडुक "एकै तूही"" ॥
सारौं सुआ जो रहचह करही । कुरहिं परेवा औ करबरहीं ॥
"पीव पीव"कर लाग पपीहा । "तुही तुही" कर गडुरी जीहा ॥
`कुहू कुहू' करि कोइल राखा । औ भिंगराज बोल बहु भाखा ॥
`दही दही' करि महरि पुकारा । हारिल बिनवै आपन हारा ॥
कुहुकहिं मोर सोहावन लागा । होइ कुराहर बोलहि कागा ॥

जावत पंखी जगत के भरि बैठे अमराउँ ।
आपनि आपनि भाषा लेहिं दई कर नाउँ ॥5॥

पैग पैग पर कुआँ बावरी । साजी बैठक और पाँवरी ॥
और कुंड बहु ठावहिं ठाऊँ। औ सब तीरथ तिन्ह के नाऊँ ॥
मठ मंडप चहुँ पास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे ॥
कोइ सु ऋषीसुर, कोइ सन्यासी । कोई रामजती बिसवासी ॥
कोई ब्रह्मचार पथ लागे । कोइ सो दिगंबर बिचरहिं नाँगे ॥
कोई सु महेसुर जंगम जती । कोइ एक परखै देबी सती ॥
कोई सुरसती कोई जोगी । निरास पथ बैठ बियोगी ॥

सेवरा, खेवरा, बानपर, सिध, साधक, अवधूत ।
आसन मारे बैट सब जारि आतमा भूत ॥6॥

मानसरोदक बरनौं काहा । भरा समुद अस अति अवगाहा ॥
पानि मोती अस निरमल तासू । अमृत आनि कपूर सुबासू ॥
लंकदीप कै सिला अनाई । बाँधा सरवर घाट बनाई ॥
खँड खँड सीढी भईं गरेरी । उतरहिं चढहिं लोग चहुँ फेरी ॥
फूला कँवल रहा होइ राता । सहस सहस पखुरिन कर छाता ॥
उलथहिं सीफ , मोति उतराहीं । चुगहिं हंस औ केलि कराहीं ॥
खनि पतार पानी तहँ काढा । छीरसमुद निकसा हुत बाढा ॥

ऊपर पाल चहूँ दिसि अमृत-फल सब रूख ।
देखि रूप सरवर कै गै पियास औ भूख ॥7॥

पानि भरै आवहिं पनिहारी । रूप सुरूप पदमिनी नारी ॥
पदुमगंध तिन्ह अंग बसाहीं । भँवर लागि तिन्ह सँग फिराहीं ॥
लंक-सिंघिनी, सारँगनैनी । हंसगामिनी कोकिलबैनी ॥
आवहिं झुंड सो पाँतिहिं पाँती । गवन सोहाइ सु भाँतिहिं भाँती ॥
कनक कलस मुखचंद दिपाहीं । रहस केलि सन आवहिं जाहीं ॥
जा सहुँ वै हेरैं चख नारी ।बाँक नैन जनु हनहिं कटारी ॥
केस मेघावर सिर ता पाईं । चमकहिं दसन बीजु कै नाईं ॥

माथे कनक गागरी आवहिं रूप अनूप ।
जेहि के अस पनहारी सो रानी केहि रूप ॥8॥

ताल तलाव बरनि नहिं जाहीं । सूझै वार पार किछु नाहीं ॥
फूले कुमुद सेत उजियारे । मानहुँ उए गगन महँ तारे ॥
उतरहिं मेघ चढहि लेइ पानी चमकहिं मच्छ बीजु कै बानी ॥
पौंरहि पंख सुसंगहिं संगा । सेत पीत राते बहु रंगा ॥
चकई चकवा केलि कराहीं । निसि के बिछोह, दिनहिं मिलि जाहीं ॥
कुररहिं सारस करहिं हुलासा । जीवन मरन सो एकहिं पासा ॥
बोलहिं सोन ढेक बगलेदी । रही अबोल मीन जल-भेदी ॥

नग अमोल तेहि तालहिं दिनहिं बरहिं जस दीप ।
जो मरजिया होइ तहँ सो पावै वह सीप ॥9॥

आस-पास बहु अमृत बारी । फरीं अपूर होइ रखवारी ॥
नारग नीबू सुरँग जंभीरा । औ बदाम बहु भेद अँजीरा ॥
गलगल तुरज सदाफर फरे । नारँग अति राते रस भरे ॥
किसमिस सेव फरे नौ पाता । दारिउँ दाख देखि मन राता ॥
लागि सुहाई हरफारयोरी । उनै रही केरा कै घौरी ॥
फरे तूत कमरख औ न्योजी । रायकरौंदा बेर चिरौंजी ॥
संगतरा व छुहारा दीठे । और खजहजा खाटे मीठे ॥

पानि देहिं खँडवानी कुवहिं खाँड बहु मेलि ।
लागी घरी ग्हट कै सीचहिं अमृतबेल ॥10॥

पुनि फुलवारि लागि चहुँ पासा । बिरिछ बेधि चंदन भइ बासा ॥
बहुत फूल फूलीं घनबेली । केवडा चंपा कुंद चमेली ॥
सुरँग गुलाल कदम और कूजा । सुगँध बकौरी गंध्रब पूजा ॥
जाही जूही बगुचन लावा । पुहुप सुदरसन लाग सुहावा ॥
नागेसर सदबरग नेवारी । औ सिंगारहार फुलवारी ॥
सोनजरद फूलीं सेवती । रूपमंजरी और मालती ॥
मौलसिरी बेइलि औ करना । सबै फूल फूले बहुबरना ॥

तेहिं सिर फूल चढहिं वै जेहि माथे मनि-भाग ।
आछहिं सदा सुगंध बहु जनु बसंत औ फाग ॥11॥

सिंगलनगर देखु पुनि बसा । धनि राजा अस जे कै दसा ॥
ऊँची पौरी ऊँच अवासा । जनु कैलास इंद्र कर वासा ॥
राव रंक सब घर घर सुखी । जो दीखै सौ हँसता-मुखी ॥
रचि रचि साजे चंदन चौरा । पोतें अगर मेद औ गौरा ॥
सब चौपारहि चंदन खभा । ओंठँघि सभासद बैठे सभा ॥
मनहुँ सभा देवतन्ह कर जुरी । परी दीठि इंद्रासन पुरी ॥
सबै गुनी औ पंडित ज्ञाता । संसकिरित सबके मुख बाता ॥

अस कै मंदिर सँवारे जनु सिवलोक अनूप ।
घर घर नारि पदमिनी मोहहिं दरसन-रूप ॥12॥

पुनि देखी सिंघल फै हाटा । नवो निद्धि लछिमी सब बाटा ॥
कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी । बैठ महाजन सिंघलदीपी ॥
रचहिं हथौडा रूपन ढारी । चित्र कटाव अनेक सवारी ॥
सोन रूप भल भयऊ पसारा । धवल सिरीं पोतहिं घर बारा ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हीरा लाल सो अनबन जोती ॥
औ कपूर बेना कस्तूरी । चंदन अगर रहा भरपूरी ॥
जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा । ता कहँ आन हाट कित लाहा ?॥

कोई करै बेसाहिनी, काहू केर बिकाइ ।
कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गवाइ ॥13॥

पुनि सिंगारहाट भल देसा । किए सिंगार बैठीं तहँ बेसा ॥
मुख तमोल तन चीर कुसुंभी । कानन कनक जडाऊ खुंभी ॥
हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं । नर मोहहिं सुनि, पैग न जाहीं ॥
भौंह धनुष, तिन्ह नैन अहेरी । मारहिं बान सान सौं फेरी ॥
अलक कपोल डोल हँसि देहीं । लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं ॥
कुच कंचुक जानौ जुग सारी । अंचल देहिं सुभावहिं ढारी ॥
केत खिलार हारि तेहि पासा । हाथ झारि उठि चलहिं निरासा ॥

चेटक लाइ हरहिं मन जब लहि होइ गथ फेंट ।
साँठ नाठि उटि भए बटाऊ, ना पहिचान न भेंट ॥14॥

लेइ के फूल बैठि फुलहारी । पान अपूरब धरे सँवारी ॥
सोंधा सबै बैठ ले गाँधी । फूल कपूर खिरौरी बाँधी ॥
कतहूँ पंडित पढँहिं पुरानू । धरमपंथ कर करहिं बखानू ॥
कतहूँ कथा कहै किछु कोई । कतहूँ नाच-कूद भल होई ॥
कतहुँ चिरहँटा पंखी लावा । कतहूँ पखंडी काठ नचावा ॥
कतहूँ नाद सबद होइ भला । कतहूँ नाटक चेटक-कला ॥
कतहुँ काहु ठगविद्या लाई । कतहुँ लेहिं मानुष बौराई ॥

चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच ।
जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच ॥15॥

पुनि आए सिंघल गढ पासा । का बरनौं जनु लाग अकासा ॥
तरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी । ऊपर इंद्र लोक पर दीठी ॥
परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका । काँपै जाँघ, जाइ नहिं झाँका ॥
अगम असूझ देखि डर खाई । परै सो सपत-पतारहिं जाई ॥
नव पौरी बाँकी, नवखंडा । नवौ जो चढे जाइ बरम्हंडा ॥
कंचन कोट जरे नग सीसा । नखतहिं भरी बीजु जनु दीसा ॥
लंका चाहि ऊँच गढ ताका । निरखि न जाइ, दीठि तन थाका ॥

हिय न समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ सुमेर ।
कहँ लगि कहौं ऊँचाई, कहँ लगि बरनौं फेर ॥16॥

निति गढ बाँचि चलै ससि सूरू । नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू ॥
पौरी नवौ बज्र कै साजी । सहस सहस तहँ बैठे पाजी ॥
फिरहिं पाँच कोतवार सुभौंरी । काँपै पावैं चपत वह पौरी ॥
पौरहि पौरि सिंह गढि काढे । डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढे ॥
बहुबिधान वै नाहर गढे । जनु गाजहिं, चाहहिं सिर चढे ॥
टारहिं पूँछ, पसारहिं जीहा । कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा ॥
कनक सिला गढि सीढी लाई । जगमगाहि गढ ऊपर ताइ ॥

नवौं खंड नव पौरी , औ तहँ बज्र-केवार ।
चारि बसेरे सौं चढै, सत सौं उतरे पार ॥17॥

नव पौरी पर दसवँ दुवारा । तेहि पर बाज राज-घरियारा ॥
घरी सो बैठि गनै घरियारी । पहर सो आपनि बारी ॥
जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा । घरी घरी घरियार पुकारा ॥
परा जो डाँड जगत सब डाँडा । का निचिंत माटी कर भाँडा ?॥
तुम्ह तेहि चाक चढे हौ काँचे । आएहु रहै न थिर होइ बाँचे ॥
घरी जो भरी घटी तुम्ह आऊ । का निचिंत होइ सोउ बटाऊ ?॥
पहरहिं पहर गजर निति होई । हिया बजर, मन जाग न सोई ॥

मुहमद जीवन-जल भरन, रहँट-घरी कै रीति ।
घरी जो आई ज्यों भरी , ढरी,जनम गा बीति ॥18॥

गढ पर नीर खीर दुइ नदी । पनिहारी जैसे दुरपदी ॥
और कुंड एक मोतीचूरू । पानी अमृत, कीच कपूरु ॥
ओहि क पानि राजा पै पीया । बिरिध होइ नहिं जौ लहि जीया ॥
कंचन-बिरछि एक तेहि पासा । जस कलपतरु इंद्र-कविलासा ॥
मूल पतार, सरग ओहि साखा । अमरबेलि को पाव, को चाखा ?॥
चाँद पात औ फूल तराईं । होइ उजियार नगर जहँ ताई ॥
वह फल पावै तप करि कोई । बिरधि खाइ तौ जोबन होई ॥

राजा भए भिखारी सुनि वह अमृत भोग ।
जेइ पावा सो अमर भा, ना किछु व्याधि न रोग ॥19॥

गढ पर बसहिं झारि गढपती । असुपति, गजपति, भू-नर-पती ॥
सब धौराहर सोने साजा । अपने अपने घर सब राजा ॥
रूपवंत धनवंत सभागे । परस पखान पौरि तिन्ह लागे ॥
भोग-विलास सदा सब माना । दुख चिंता कोइ जनम न जाना ॥
मँदिर मँदिर सब के चौपारी । बैठि कुँवर सब खेलहिं सारी ॥
पासा ढरहिं खेल भल होई । खडगदान सरि पूज न कोई ॥
भाँट बरनि कहि कीरति भली । पावहिं हस्ति घोड सिंघली ॥

मँदिर मँदिर फुलवारी, चोवा चंदन बास ।
निसि दिन रहै बसंत तहँ छवौ ऋतु बारह मास ॥20॥

पुनि चलि देखा राज-दुआरा । मानुष फिरहिं पाइ नहिं बारा ॥
हस्ति सिंघली बाँधे बारा । जनु सजीव सब ठाढ पहारा ॥
कौनौ सेत, पीत रतनारे । कौनौं हरे, धूम औ कारे ॥
बरनहिं बरन गगन जस मेघा । औ तिन्ह गगन पीठी जनु ठेघा ॥
सिंघल के बरनौं सिंघली । एक एक चाहि एक एक बली ॥
गिरि पहार वै पैगहि पेलहिं । बिरिछ उचारि डारि मुख मेलहिं ॥
माते तेइ सब गरजहिं बाँधे । निसि दिन रहहिं महाउत काँधे ॥

धरती भार न अगवै, पाँव धरत उठ हालि ।
कुरुम टुटै, भुइँ फाटै तिन हस्तिन के चालि ॥21॥

पुनि बाँधे रजबार तुरंगा । का बरनौं जस उन्हकै रंगा ॥
लील, समंद चाल जग जाने । हाँसुल, भौंर, गियाह बखाने ॥
हरे, कुरंग, महुअ बहु भाँती । गरर, कोकाह, बुलाह सु पाँती ॥
तीख तुखार चाँड औ बाँके । सँचरहिं पौरि ताज बिनु हाँके ॥
मन तें अगमन डोलहिं बागा । लेत उसास गगन सिर लागा ॥
पौन-समान समुद पर धावहिं । बूड न पाँव, पार होइ आवहिं ॥
थिर न रहहिं, रिस लोह चबाहीं । भाँजहिं पूँछ, सीस उपराहीं ॥

अस तुखार सब देखे जनु मन के रथवाह ।
नैन-पलक पहुँचावहिं जहँ पहुँचा कोइ चाह ॥22॥

राजसभा पुनि देख बईठी । इंद्रसभा जनु परि गै डीठी ॥
धनि राजा असि सभा सँवारी । जानहु फूलि रही फुलवारी ॥
मुकुट बाँधि सब बैठे राजा । दर निसान नित जिन्हके बाजा ॥
रूपवंत, मनि दिपै लिलाटा । माथे छात, बैठ सब पाटा ॥
मानहुँ कँवल सरोवर फूले । सभा क रूप देखि मन भूले ॥
पान कपूर मेद कस्तूरी । सुगँध बास भरि रही अपूरी ॥
माँझ ऊँच इंद्रासन साजा । गंध्रबसेन बैठ तहँ राजा ॥

छत्र गगन लगि ताकर, सूर तवै जस आप ।
सभा कँवल अस बिगसै, माथे बड परताप ॥23॥

साजा राजमंदिर कैलासू । सोने कर सब धरति अकासू ॥
सात खंड धौराहर साजा । उहै सँवारि सकै अस राजा ॥
हीरा ईंट, कपूर गिलावा । औ नग लाइ सरग लै लावा ॥
जावत सबै उरेह उरेहे । भाँति भाँति नग लाग उबेहे ॥
भाव कटाव सब अनबत भाँती । चित्र कोरि कै पाँतिहिं पाँती ॥
लाग खंभ-मनि-मानिक जरे । निसि दिन रहहिं दीप जनु बरे ॥
देखि धौरहर कर उँजियारा । छपि गए चाँद सुरुज औ तारा ॥

सुना सात बैकुंठ जस तस साजे खँड सात ।
बेहर बेहर भाव तस खंड खंड उपरात ॥24॥

वरनों राजमंदिर रनिवासू । जनु अछरीन्ह भरा कविलासू ॥
सोरह सहस पदमिनी रानी । एक एक तें रूप बखानी ॥
अतिसुरूप औ अति सुकुवाँरी । पान फूल के रहहिं अधारी ॥
तिन्ह ऊपर चंपावति रानी । महा सुरूप पाट-परधानी ॥
पाट बैठि रह किए सिंगारू । सब रानी ओहि करहिं जोहारू ॥
निति नौरंग सुरंगम सोई । प्रथम बैस नहिं सरवरि कोई ॥
सकल दीप महँ जेती रानी । तिन्ह महँ दीपक बारह-बानी ॥

कुँवर बतीसो-लच्छनी अस सब माँ अनूप ।
जावत सिंघलदीप के सबै बखानैं रूप ॥25॥

(1) बारी = बाला, स्त्री । सरनदीप-अरबवाले लंका को सरनदीप कहते थे । भूगोलल का ठीक ज्ञान न होने के कारण कवि ने स्वर्णदीप और सिंहल को भिन्न भिन्न द्वीप माना है । हरा = शून्य
(2) तुखार =तुषार देश का घोडा । इंदू =इंद्र । चाहि = अपेक्षा (बढकर) बनिस्बत। कविलास = स्वर्ग ।
(3) भूमि हुत = पृथ्वी से (लेकर) लागि = तक ।
(4) पींड = जड के पास की पेडी । फुरै = सचमुच । खजहजा = खाने के फल । अनबन =भिन्न भिन्न
(5) चुहचूही =एक छोटी चिडिया जिसे फूल सुँघनी भी कहते हैं । सारौं = सारिका, मैना । महरि = महोख से मिलती जुलती एक छोटी चिडिया जिसे ग्वालिन और अहीरिन भी कहते हैं । हारा = हाल, अथवा लाचारी, दीनता ।
(6) पैग पैग पर = कदम कदम पर । पाँवरी = सीढी । ब्रह्मचार = ब्रह्मचर्य । सुरसती = सरस्वती (दसनामियों में ) खेवरा = सेवडों का एक भेद ।
(7) भईं = घूमी हैं । गरेरी = चक्करदार । पाल = ऊँचा बाँध या किनारा, भीटा ।
(8) मेघावर = बादल की घटा । ता पाईं = पैर तक । बीजु - बिजली ।
(9) बानी = वर्ण, रंग, चमक । सोन,ढेक, बग, लेदी = ताल की चिडिया । मरजिया = जान जोखिम में डालकर विकट स्थानों से व्यापार की वस्तुएँ लानेवाले, जीवकिया, जैसे, गोता खोर ।
(10) हरफार््योरी = लवली । न्योजी = लीची । खँडवानी =काँड का रस ।
(11) कूजा = कुब्जक । पहाडी या जंगली गुलाब जिसके फूल सफेद होते हैं ।घनबेली =बेला की एक जाति । नागेसर = नागकेसर । बकौरी = बकावली । बगुचा = (गट्ठा) ढेर, राशि । सिंगार-हार = हरिसिंगार । शेफालिका ।
(12) मेद = मेदा एक सुगंधित जड । गौरा = गोरोचन । ओठँवि = पीठ टिकाकर ।
(13) कुहकुहँ = कुंकुम, केसर । धवल = सफेदी । सिरी = श्री, रोली, लाल बुकनी । बेना =खस वा गंधबेन । बेसाहनी = खरीद ।
(14) बेसा = वेश्या । खुंभी = कान में पहनने का एक गहना, लौंग या कील । सारी = सारि, पासा । गथ = पूँजी ।
(15) साँठ =पूँजी । नाठि = नष्ट हुई । सोंधा = सुगंध द्रव्य । गाँधी = गंधी । खिरौरी = केवडा देकर बाँधी हुई या कत्थे की टिकिया । चिरहँटा = बहेलिया । पखंडी = कठपुतलीवाला ।
(16) करिन्ह = दिग्गजों ।
(17) पाजी = पैदल सिपाही । कोतवार । कोटपाल, कोतवाल । गुंजरि लीहा = गरज कर लिया । (18) बसेरा = टिकान ।
(19) रहँट-घरी =रहट में लगा छोटा घडा । घरियार = घंटा । घरी भरी = घडी पूरी हुई (पुराने समय में समय जानने के लिये पानी भरी नाँद में एक घडिया या कटोरा महीन महीन छेद करके तैरा दिया जाता था । जब पानी भर जाने पर घडिया डूब जाती थी तब एक घडी का बीतना माना जाता था ।
(20) परस पखान = स्पर्शमणि, पारस पत्थर । सारी =पासा ।
(20) झारि = बिल्कुल या समूह । सरि पूज = बराबरी को पहुँचता है । खडगदान =तलवार चलाना ।
(21) बारा = द्वार । ठेघा = सहारा दिया । अँगवै = शरीर पर सहती है ।
(22) रजबार = राजद्वार । समंद = बादामी रंग का घोडा । हँसुल = कुम्मैत हिनाई, मेहँदी के रंग का और पैर कुछ काले । भौंर = मुश्की । कियाह = ताड के पके फल के रंग का । हरे = सब्जा । कुरंग = लाख के रंग का या नीला कुम्मेत । महुअ = महुए के रंग का गरर = लाल और सफेद मिले रोएँ का, गर्रा । कोकाह = सफेद रंग का । बुलाह = बुल्लाह, गर्दन और पूँछ के बाल पीले । ताजा - ताजियाना, चाबुक । अगमन = आगे । तुखार = तुषार देश के घोडे, यहाँ घोडे ।
(23) दर =दरवाजा । मेद =मेदा, एक प्रकार की सुगंधित जड । तवै = तपता है
(24) उरेह = चित्र । उबेहे =चुनेहुए, बीछे हुए । कोरिकै = खोद कर । बेहर बेहर = अलग अलग ।
(25) बारह-बानी = द्वादशवर्णी, सूर्य्य की तरह चमकनेवाली ।