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"जन्म-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी" के अवतरणों में अंतर

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चंपावति जो रूप सँवारी । पदमावति चाहै औतारी ॥
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भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी ॥
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सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ ॥
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प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई ॥
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पुनि वह जोति मातु-घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई ॥
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जस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू ॥
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जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया ॥
  
चंपावति जो रूप सँवारी पदमावति चाहै औतारी ॥<br>
+
सोने मँदिर सँवारहिं औ चंदन सब लीप
भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी ॥<br>
+
दिया जो मनि सिवलोक महँ उपना सिंघलदीप ॥1॥
सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ ॥<br>
+
प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई ॥<br>
+
पुनि वह जोति मातु-घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई ॥<br>
+
जस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू ॥<br>
+
जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया ॥<br><br>
+
  
सोने मँदिर सँवारहिं औ चंदन सब लीप <br>
+
भए दस मास पूरि भइ घरी । पदमावति कन्या औतरी ॥
दिया जो मनि सिवलोक महँ उपना सिंघलदीप ॥1॥<br><br>
+
जानौ सूर किरिन-हुति काढी । सुरुज-कला घाटि, वह बाढी ॥
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भा निसि महँ दिन कर परकासू । सब उजियार भएउ कविलासू ॥
 +
इते रूप मूरति परगटी पूनौ ससी छीन होइ घटी ॥
 +
घटतहि घटत अमावस भई । दिन दुइ लाज गाडि भुइँ गई ॥
 +
पुनि जो उठी दुइज होइ नई । निहकलंक ससि विधि निरमई ॥
 +
पदुमगंध बेधा जग बासा । भौंर पतंग भए चहुँ पासा ॥
  
भए दस मास पूरि भइ घरी । पदमावति कन्या औतरी ॥<br>
+
इते रूप भै कन्या जेहिं सरि पूज न कोइ
जानौ सूर किरिन-हुति काढी । सुरुज-कला घाटि, वह बाढी ॥<br>
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धनि सो देस रुपवंता जहाँ जन्म अस होइ ॥2॥
भा निसि महँ दिन कर परकासू । सब उजियार भएउ कविलासू ॥<br>
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इते रूप मूरति परगटी पूनौ ससी छीन होइ घटी ॥<br>
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घटतहि घटत अमावस भई । दिन दुइ लाज गाडि भुइँ गई ॥<br>
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पुनि जो उठी दुइज होइ नई । निहकलंक ससि विधि निरमई ॥<br>
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पदुमगंध बेधा जग बासा । भौंर पतंग भए चहुँ पासा ॥<br><br>
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इते रूप भै कन्या जेहिं सरि पूज न कोइ <br>
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भै छठि राति छठीं सुख मानी रइस कूद सौं रैनि बिहानी ॥
धनि सो देस रुपवंता जहाँ जन्म अस होइ ॥2॥<br><br>
+
भा विहान पंडित सब आए । काढि पुरान जनम अरथाए ॥
 +
उत्तिम घरी जनम भा तासू । चाँद उआ भूइँ, दिपा अकासू ॥
 +
कन्यारासि उदय जग कीया । पदमावती नाम अस दीया ॥
 +
सूर प्रसंसै भएउ फिरीरा । किरिन जामि, उपना नग हीरा ॥
 +
तेहि तें अधिक पदारथ करा । रतन जोग उपना निरमरा ॥
 +
सिंहलदीप भए औतारू । जंबूदीप जाइ जमबारू ॥
  
भै छठि राति छठीं सुख मानी रइस कूद सौं रैनि बिहानी ॥<br>
+
राम अजुध्या ऊपने लछन बतीसो संग
भा विहान पंडित सब आए । काढि पुरान जनम अरथाए ॥<br>
+
रावन रूप सौं भूलिहि दीपक जैस पतंग ॥3॥
उत्तिम घरी जनम भा तासू । चाँद उआ भूइँ, दिपा अकासू ॥<br>
+
कन्यारासि उदय जग कीया । पदमावती नाम अस दीया ॥<br>
+
सूर प्रसंसै भएउ फिरीरा । किरिन जामि, उपना नग हीरा ॥<br>
+
तेहि तें अधिक पदारथ करा । रतन जोग उपना निरमरा ॥<br>
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सिंहलदीप भए औतारू । जंबूदीप जाइ जमबारू ॥<br><br>
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राम अजुध्या ऊपने लछन बतीसो संग <br>
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कहेन्हि जनमपत्री जो लिखी देइ असीस बहुरे जोतिषी ॥
रावन रूप सौं भूलिहि दीपक जैस पतंग ॥3॥<br><br>
+
पाँच बरस महँ भय सो बारी । कीन्ह पुरान पढै बैसारी ॥
 +
भै पदमावति पंडित गुनी । चहूँ खंड के राजन्ह सुनी ॥
 +
सिंघलदीप राजघर बारी । महा सुरुप दई औतारी ॥
 +
एक पदमिनी औ पंडित पढी । दहुँ केहि जोग गोसाईं गढी ॥
 +
जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी । सो असि पाव पढी औ लोनी ॥
 +
सात दीप के बर जो ओनाहीं । उत्तर पावहिं, फिरि फिरि जाहीं ॥
  
कहेन्हि जनमपत्री जो लिखी देइ असीस बहुरे जोतिषी ॥<br>
+
राजा कहै गरब कै अहौं इंद्र सिवलोक
पाँच बरस महँ भय सो बारी । कीन्ह पुरान पढै बैसारी ॥<br>
+
सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरोक ॥4॥
भै पदमावति पंडित गुनी । चहूँ खंड के राजन्ह सुनी ॥<br>
+
सिंघलदीप राजघर बारी । महा सुरुप दई औतारी ॥<br>
+
एक पदमिनी औ पंडित पढी । दहुँ केहि जोग गोसाईं गढी ॥<br>
+
जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी । सो असि पाव पढी औ लोनी ॥<br>
+
सात दीप के बर जो ओनाहीं । उत्तर पावहिं, फिरि फिरि जाहीं ॥<br><br>
+
  
राजा कहै गरब कै अहौं इंद्र सिवलोक <br>
+
बारह बरस माहँ भै रानी राजै सुना सँजोग सयानी ॥
सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरोक ॥4॥<br><br>
+
सात खंड धौराहर तासू । सो पदमिनि कहँ दीन्ह निवासू ॥
 +
औ दीन्ही सँग सखी सहेली । जो सँग करैं रहसि रस-केली ॥
 +
सबै नवल पिउ संग न सोईं । कँवल पास जनु बिगीस कोईं ॥
 +
सुआ एक पदमावति ठाऊँ । महा पँडित हीरामन नाऊँ ॥
 +
दई दीन्ह पंखिहि अस जोती । नैन रतन, मुख मानिक मोती ॥
 +
कंचन बरन सुआ अति लोना । मानहुँ मिला सोहागहिं सोना ॥
  
बारह बरस माहँ भै रानी । राजै सुना सँजोग सयानी ॥<br>
+
रहहिं एक सँग दोउ, पढहिं सासतर वेद
सात खंड धौराहर तासू । सो पदमिनि कहँ दीन्ह निवासू ॥<br>
+
बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद ॥5॥
औ दीन्ही सँग सखी सहेली जो सँग करैं रहसि रस-केली ॥<br>
+
सबै नवल पिउ संग न सोईं । कँवल पास जनु बिगीस कोईं ॥<br>
+
सुआ एक पदमावति ठाऊँ । महा पँडित हीरामन नाऊँ ॥<br>
+
दई दीन्ह पंखिहि अस जोती । नैन रतन, मुख मानिक मोती ॥<br>
+
कंचन बरन सुआ अति लोना । मानहुँ मिला सोहागहिं सोना ॥<br><br>
+
  
रहहिं एक सँग दोउ, पढहिं सासतर वेद <br>
+
भै उनंत पदमावति बारी । रचि रचि विधि सब कला सँवारी ॥
बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद ॥5॥<br><br>
+
जग बेधा तेहि अंग-सुबासा । भँवर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
 +
बेनी नाग मलयागिरि पैठी । ससि माथे होइ दूइज बैठी ॥
 +
भौंह धनुक साधे सर फेरै । नयन कुरंग भूलि जनु हेरै ॥
 +
नासिक कीर, कँवल मुख सोहा पदमिनि रूप देखि जग मोहा ॥
 +
मानिक अधर, दसन जनु हीरा । हिय हुलसे कुच कनक-गँभीरा ॥
 +
केहरि लंक, गवन गज हारे । सुरनर देखि माथ भुइँ धारे ॥
  
भै उनंत पदमावति बारी रचि रचि विधि सब कला सँवारी ॥<br>
+
जग कोइ दीठि न आवै आछहि नैन अकास
जग बेधा तेहि अंग-सुबासा । भँवर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥<br>
+
जोगि जती संन्यासी तप साधहि तेहि आस ॥6॥
बेनी नाग मलयागिरि पैठी । ससि माथे होइ दूइज बैठी ॥<br>
+
भौंह धनुक साधे सर फेरै । नयन कुरंग भूलि जनु हेरै ॥<br>
+
नासिक कीर, कँवल मुख सोहा । पदमिनि रूप देखि जग मोहा ॥<br>
+
मानिक अधर, दसन जनु हीरा । हिय हुलसे कुच कनक-गँभीरा ॥<br>
+
केहरि लंक, गवन गज हारे । सुरनर देखि माथ भुइँ धारे ॥<br><br>
+
  
जग कोइ दीठि आवै आछहि नैन अकास <br>
+
एक दिवस पदमावति रानी । हीरामन तइँ कहा सयानी ॥
जोगि जती संन्यासी तप साधहि तेहि आस ॥6॥<br><br>
+
सुनु हीरामन कहौं बुझाई । दिन दिन मदन सतावै आई ॥
 +
पिता हमार चालै बाता त्रसहि बोलि सकै नहिं माता ॥
 +
देस देस के बर मोहि आवहिं । पिता हमार न आँख लगावहिं ॥
 +
जोबन मोर भयउ जस गंगा । देइ देइ हम्ह लाग अनंगा ॥
 +
हीरामन तब कहा बुझाई । विधि कर लिखा मेटि नहिं जाई ॥
 +
अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा । तोहि जोग बर मिलै नरेसा ॥
  
एक दिवस पदमावति रानी हीरामन तइँ कहा सयानी ॥<br>
+
जौ लगि मैं फिरि आवौं मन चित धरहु निवारि
सुनु हीरामन कहौं बुझाई । दिन दिन मदन सतावै आई ॥<br>
+
सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा विचारि ॥7॥
पिता हमार न चालै बाता । त्रसहि बोलि सकै नहिं माता ॥<br>
+
देस देस के बर मोहि आवहिं । पिता हमार न आँख लगावहिं ॥<br>
+
जोबन मोर भयउ जस गंगा । देइ देइ हम्ह लाग अनंगा ॥<br>
+
हीरामन तब कहा बुझाई । विधि कर लिखा मेटि नहिं जाई ॥<br>
+
अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा । तोहि जोग बर मिलै नरेसा ॥<br><br>
+
  
जौ लगि मैं फिरि आवौं मन चित धरहु निवारि <br>
+
राजन सुना दीठी भै आना । बुधि जो देहि सँग सुआ सयाना ॥
सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा विचारि ॥7॥<br><br>
+
भएउ रजायसु मारहु सूआ । सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ ॥
 +
सत्रु सुआ के नाऊ बारी । सुनि धाए जस धाव मँजारी ॥
 +
तब लगि रानी सुआ छपावा जब लगि ब्याध न आवै पावा ॥
 +
पिता क आयसु माथे मोरे । कहहु जाय विनवौ कर जोरे ॥
 +
पंखि न कोई होइ सुजानू । जानै भृगुति कि जान उडानू ॥
 +
सुआ जो पढै पढाए बैना । तेहि कत बुधि जेहि हिये न नैना ॥
  
राजन सुना दीठी भै आना । बुधि जो देहि सँग सुआ सयाना ॥<br>
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मानिक मोती देखि वह हिये ज्ञान करेइ
भएउ रजायसु मारहु सूआ । सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ ॥<br>
+
दारिउँ दाख जानि कै अवहिं ठोर भरि लेइ ॥8॥
सत्रु सुआ के नाऊ बारी । सुनि धाए जस धाव मँजारी ॥<br>
+
तब लगि रानी सुआ छपावा । जब लगि ब्याध आवै पावा ॥<br>
+
पिता क आयसु माथे मोरे कहहु जाय विनवौ कर जोरे ॥<br>
+
पंखि न कोई होइ सुजानू । जानै भृगुति कि जान उडानू ॥<br>
+
सुआ जो पढै पढाए बैना । तेहि कत बुधि जेहि हिये न नैना ॥<br><br>
+
  
मानिक मोती देखि वह हिये न ज्ञान करेइ <br>
+
वै तौ फिरे उतर अस पावा । बिनवा सुआ हिये डर खावा ॥
दारिउँ दाख जानि कै अवहिं ठोर भरि लेइ ॥8॥<br><br>
+
रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ ॥
 +
मोतिहिं मलिन जो होइ गइ कला । पुनि सो पानि कहाँ निरमला ? ॥
 +
ठाकुर अंत चहै जेहि मारा । तेहि सेवक कर कहाँ उबारा ?॥
 +
जेहि घर काल-मजारी नाचा । पंखहि पाउँ जीउ नहिं बाँचा ॥
 +
मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा । जौ पूछहि देइ जाइ न लेखा ॥
 +
जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा । यह पछिताव चल्यों बिनु सेवा ॥
  
वै तौ फिरे उतर अस पावा बिनवा सुआ हिये डर खावा ॥<br>
+
मारै सोइ निसोगा, डरै न अपने दोस
रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ । होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ ॥<br>
+
केरा केलि करै का जौं भा बैरि परोस ॥9॥
मोतिहिं मलिन जो होइ गइ कला । पुनि सो पानि कहाँ निरमला ? ॥<br>
+
ठाकुर अंत चहै जेहि मारा । तेहि सेवक कर कहाँ उबारा ?॥<br>
+
जेहि घर काल-मजारी नाचा । पंखहि पाउँ जीउ नहिं बाँचा ॥<br>
+
मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा । जौ पूछहि देइ जाइ न लेखा ॥<br>
+
जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा । यह पछिताव चल्यों बिनु सेवा ॥<br><br>
+
  
मारै सोइ निसोगा, डरै अपने दोस <br>
+
रानी उतर दीन्ह कै माया । जौ जिउ जाउ रहै किमि काया ? ॥
केरा केलि करै का जौं भा बैरि परोस ॥9॥<br><br>
+
हीरामन ! तू प्रान परेवा । धोख लाग करत तोहिं सेवा ॥
 +
तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं पींजर हिये घालि कै राखौं ॥
 +
हौं मानुस, तू पंखि पियारा । धरन क प्रीति तहाँ केइ मारा ? ॥
 +
का सौ प्रीति तन माँह बिलाई ?। सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई ॥
 +
प्रीति मार लै हियै न सोचू । ओहि पंथ भल होइ कि पोचू ॥
 +
प्रीति-पहार-भार जो काँधा । सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधा ॥
  
रानी उतर दीन्ह कै माया । जौ जिउ जाउ रहै किमि काया ? ॥<br>
+
सुअटा रहै खुरुक जिउ, अबहिं काल सो आव ।  
हीरामन ! तू प्रान परेवा । धोख न लाग करत तोहिं सेवा ॥<br>
+
सत्रु अहै जो करिया कबहुँ सो बोरे नाव ॥10॥
तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं । पींजर हिये घालि कै राखौं ॥<br>
+
हौं मानुस, तू पंखि पियारा धरन क प्रीति तहाँ केइ मारा ? ॥<br>
+
का सौ प्रीति तन माँह बिलाई ?। सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई ॥<br>
+
प्रीति मार लै हियै न सोचू । ओहि पंथ भल होइ कि पोचू ॥<br>
+
प्रीति-पहार-भार जो काँधा । सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधा ॥<br><br>
+
  
सुअटा रहै खुरुक जिउ, अबहिं काल सो आव । <br>
 
सत्रु अहै जो करिया कबहुँ सो बोरे नाव ॥10॥<br><br>
 
  
 
+
(1) उपना = उत्पन्न हुआ ।
 
+
(2) बिहान = सबेरा । फिरीरा-भएऊ = फिरेरे के समान चक्कर लगाता हुआ । रतन = राजा रतनसेन की ओर लक्ष्य है । निरमरा = निर्मल । जमबारू = यमद्वार ।
(1) उपना = उत्पन्न हुआ ।  
+
(4) बेसारि दीन्ह = बैठा दिया । बरोक =(बर+रोक) बरच्छा । कोंई = कुमुदिनी ।
 
+
(8) मजारी = मार्जारी, बिल्ली ।
(2) बिहान = सबेरा । फिरीरा-भएऊ = फिरेरे के समान चक्कर  
+
(9) पानि = आब, आभा; चमक । जेंवा =खाया । बैरि = बेर का पेड । उनंत = ओनंत, भार से झुकी (यौवन के), `बारी' शब्द के कुमारी और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है ।
लगाता हुआ । रतन = राजा रतनसेन की ओर लक्ष्य है । निरमरा = निर्मल ।
+
(10) आँखौं = (सं0 आकांक्षा) चाहती हूँ, अथवा कहती हूँ,। करिया = कर्णधार, मल्लाह ।</poem>
जमबारू = यमद्वार ।  
+
 
+
(4) बेसारि दीन्ह = बैठा दिया । बरोक =(बर+रोक) बरच्छा ।
+
कोंई = कुमुदिनी ।  
+
 
+
(8) मजारी = मार्जारी, बिल्ली ।  
+
 
+
(9) पानि = आब, आभा; चमक । जेंवा =खाया ।
+
बैरि = बेर का पेड । उनंत = ओनंत, भार से झुकी (यौवन के), `बारी' शब्द के कुमारी
+
और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है ।
+
 
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(10) आँखौं = (सं0 आकांक्षा) चाहती हूँ, अथवा कहती हूँ,। करिया = कर्णधार, मल्लाह ।
+

17:40, 27 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण

चंपावति जो रूप सँवारी । पदमावति चाहै औतारी ॥
भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी ॥
सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ ॥
प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई ॥
पुनि वह जोति मातु-घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई ॥
जस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू ॥
जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया ॥

सोने मँदिर सँवारहिं औ चंदन सब लीप ।
दिया जो मनि सिवलोक महँ उपना सिंघलदीप ॥1॥

भए दस मास पूरि भइ घरी । पदमावति कन्या औतरी ॥
जानौ सूर किरिन-हुति काढी । सुरुज-कला घाटि, वह बाढी ॥
भा निसि महँ दिन कर परकासू । सब उजियार भएउ कविलासू ॥
इते रूप मूरति परगटी । पूनौ ससी छीन होइ घटी ॥
घटतहि घटत अमावस भई । दिन दुइ लाज गाडि भुइँ गई ॥
पुनि जो उठी दुइज होइ नई । निहकलंक ससि विधि निरमई ॥
पदुमगंध बेधा जग बासा । भौंर पतंग भए चहुँ पासा ॥

इते रूप भै कन्या जेहिं सरि पूज न कोइ ।
धनि सो देस रुपवंता जहाँ जन्म अस होइ ॥2॥

भै छठि राति छठीं सुख मानी । रइस कूद सौं रैनि बिहानी ॥
भा विहान पंडित सब आए । काढि पुरान जनम अरथाए ॥
उत्तिम घरी जनम भा तासू । चाँद उआ भूइँ, दिपा अकासू ॥
कन्यारासि उदय जग कीया । पदमावती नाम अस दीया ॥
सूर प्रसंसै भएउ फिरीरा । किरिन जामि, उपना नग हीरा ॥
तेहि तें अधिक पदारथ करा । रतन जोग उपना निरमरा ॥
सिंहलदीप भए औतारू । जंबूदीप जाइ जमबारू ॥

राम अजुध्या ऊपने लछन बतीसो संग ।
रावन रूप सौं भूलिहि दीपक जैस पतंग ॥3॥

कहेन्हि जनमपत्री जो लिखी । देइ असीस बहुरे जोतिषी ॥
पाँच बरस महँ भय सो बारी । कीन्ह पुरान पढै बैसारी ॥
भै पदमावति पंडित गुनी । चहूँ खंड के राजन्ह सुनी ॥
सिंघलदीप राजघर बारी । महा सुरुप दई औतारी ॥
एक पदमिनी औ पंडित पढी । दहुँ केहि जोग गोसाईं गढी ॥
जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी । सो असि पाव पढी औ लोनी ॥
सात दीप के बर जो ओनाहीं । उत्तर पावहिं, फिरि फिरि जाहीं ॥

राजा कहै गरब कै अहौं इंद्र सिवलोक ।
सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरोक ॥4॥

बारह बरस माहँ भै रानी । राजै सुना सँजोग सयानी ॥
सात खंड धौराहर तासू । सो पदमिनि कहँ दीन्ह निवासू ॥
औ दीन्ही सँग सखी सहेली । जो सँग करैं रहसि रस-केली ॥
सबै नवल पिउ संग न सोईं । कँवल पास जनु बिगीस कोईं ॥
सुआ एक पदमावति ठाऊँ । महा पँडित हीरामन नाऊँ ॥
दई दीन्ह पंखिहि अस जोती । नैन रतन, मुख मानिक मोती ॥
कंचन बरन सुआ अति लोना । मानहुँ मिला सोहागहिं सोना ॥

रहहिं एक सँग दोउ, पढहिं सासतर वेद ।
बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद ॥5॥

भै उनंत पदमावति बारी । रचि रचि विधि सब कला सँवारी ॥
जग बेधा तेहि अंग-सुबासा । भँवर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
बेनी नाग मलयागिरि पैठी । ससि माथे होइ दूइज बैठी ॥
भौंह धनुक साधे सर फेरै । नयन कुरंग भूलि जनु हेरै ॥
नासिक कीर, कँवल मुख सोहा । पदमिनि रूप देखि जग मोहा ॥
मानिक अधर, दसन जनु हीरा । हिय हुलसे कुच कनक-गँभीरा ॥
केहरि लंक, गवन गज हारे । सुरनर देखि माथ भुइँ धारे ॥

जग कोइ दीठि न आवै आछहि नैन अकास ।
जोगि जती संन्यासी तप साधहि तेहि आस ॥6॥

एक दिवस पदमावति रानी । हीरामन तइँ कहा सयानी ॥
सुनु हीरामन कहौं बुझाई । दिन दिन मदन सतावै आई ॥
पिता हमार न चालै बाता । त्रसहि बोलि सकै नहिं माता ॥
देस देस के बर मोहि आवहिं । पिता हमार न आँख लगावहिं ॥
जोबन मोर भयउ जस गंगा । देइ देइ हम्ह लाग अनंगा ॥
हीरामन तब कहा बुझाई । विधि कर लिखा मेटि नहिं जाई ॥
अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा । तोहि जोग बर मिलै नरेसा ॥

जौ लगि मैं फिरि आवौं मन चित धरहु निवारि ।
सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा विचारि ॥7॥

राजन सुना दीठी भै आना । बुधि जो देहि सँग सुआ सयाना ॥
भएउ रजायसु मारहु सूआ । सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ ॥
सत्रु सुआ के नाऊ बारी । सुनि धाए जस धाव मँजारी ॥
तब लगि रानी सुआ छपावा । जब लगि ब्याध न आवै पावा ॥
पिता क आयसु माथे मोरे । कहहु जाय विनवौ कर जोरे ॥
पंखि न कोई होइ सुजानू । जानै भृगुति कि जान उडानू ॥
सुआ जो पढै पढाए बैना । तेहि कत बुधि जेहि हिये न नैना ॥

मानिक मोती देखि वह हिये न ज्ञान करेइ ।
दारिउँ दाख जानि कै अवहिं ठोर भरि लेइ ॥8॥

वै तौ फिरे उतर अस पावा । बिनवा सुआ हिये डर खावा ॥
रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ । होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ ॥
मोतिहिं मलिन जो होइ गइ कला । पुनि सो पानि कहाँ निरमला ? ॥
ठाकुर अंत चहै जेहि मारा । तेहि सेवक कर कहाँ उबारा ?॥
जेहि घर काल-मजारी नाचा । पंखहि पाउँ जीउ नहिं बाँचा ॥
मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा । जौ पूछहि देइ जाइ न लेखा ॥
जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा । यह पछिताव चल्यों बिनु सेवा ॥

मारै सोइ निसोगा, डरै न अपने दोस ।
केरा केलि करै का जौं भा बैरि परोस ॥9॥

रानी उतर दीन्ह कै माया । जौ जिउ जाउ रहै किमि काया ? ॥
हीरामन ! तू प्रान परेवा । धोख न लाग करत तोहिं सेवा ॥
तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं । पींजर हिये घालि कै राखौं ॥
हौं मानुस, तू पंखि पियारा । धरन क प्रीति तहाँ केइ मारा ? ॥
का सौ प्रीति तन माँह बिलाई ?। सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई ॥
प्रीति मार लै हियै न सोचू । ओहि पंथ भल होइ कि पोचू ॥
प्रीति-पहार-भार जो काँधा । सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधा ॥

सुअटा रहै खुरुक जिउ, अबहिं काल सो आव ।
सत्रु अहै जो करिया कबहुँ सो बोरे नाव ॥10॥


(1) उपना = उत्पन्न हुआ ।
(2) बिहान = सबेरा । फिरीरा-भएऊ = फिरेरे के समान चक्कर लगाता हुआ । रतन = राजा रतनसेन की ओर लक्ष्य है । निरमरा = निर्मल । जमबारू = यमद्वार ।
(4) बेसारि दीन्ह = बैठा दिया । बरोक =(बर+रोक) बरच्छा । कोंई = कुमुदिनी ।
(8) मजारी = मार्जारी, बिल्ली ।
(9) पानि = आब, आभा; चमक । जेंवा =खाया । बैरि = बेर का पेड । उनंत = ओनंत, भार से झुकी (यौवन के), `बारी' शब्द के कुमारी और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है ।
(10) आँखौं = (सं0 आकांक्षा) चाहती हूँ, अथवा कहती हूँ,। करिया = कर्णधार, मल्लाह ।