"जन्म-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी | |रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी | ||
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+ | |संग्रह=पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी | ||
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+ | <poem> | ||
+ | चंपावति जो रूप सँवारी । पदमावति चाहै औतारी ॥ | ||
+ | भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी ॥ | ||
+ | सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ ॥ | ||
+ | प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई ॥ | ||
+ | पुनि वह जोति मातु-घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई ॥ | ||
+ | जस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू ॥ | ||
+ | जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया ॥ | ||
− | + | सोने मँदिर सँवारहिं औ चंदन सब लीप । | |
+ | दिया जो मनि सिवलोक महँ उपना सिंघलदीप ॥1॥ | ||
+ | भए दस मास पूरि भइ घरी । पदमावति कन्या औतरी ॥ | ||
+ | जानौ सूर किरिन-हुति काढी । सुरुज-कला घाटि, वह बाढी ॥ | ||
+ | भा निसि महँ दिन कर परकासू । सब उजियार भएउ कविलासू ॥ | ||
+ | इते रूप मूरति परगटी । पूनौ ससी छीन होइ घटी ॥ | ||
+ | घटतहि घटत अमावस भई । दिन दुइ लाज गाडि भुइँ गई ॥ | ||
+ | पुनि जो उठी दुइज होइ नई । निहकलंक ससि विधि निरमई ॥ | ||
+ | पदुमगंध बेधा जग बासा । भौंर पतंग भए चहुँ पासा ॥ | ||
− | + | इते रूप भै कन्या जेहिं सरि पूज न कोइ । | |
− | भै | + | धनि सो देस रुपवंता जहाँ जन्म अस होइ ॥2॥ |
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− | + | भै छठि राति छठीं सुख मानी । रइस कूद सौं रैनि बिहानी ॥ | |
− | + | भा विहान पंडित सब आए । काढि पुरान जनम अरथाए ॥ | |
+ | उत्तिम घरी जनम भा तासू । चाँद उआ भूइँ, दिपा अकासू ॥ | ||
+ | कन्यारासि उदय जग कीया । पदमावती नाम अस दीया ॥ | ||
+ | सूर प्रसंसै भएउ फिरीरा । किरिन जामि, उपना नग हीरा ॥ | ||
+ | तेहि तें अधिक पदारथ करा । रतन जोग उपना निरमरा ॥ | ||
+ | सिंहलदीप भए औतारू । जंबूदीप जाइ जमबारू ॥ | ||
− | + | राम अजुध्या ऊपने लछन बतीसो संग । | |
− | + | रावन रूप सौं भूलिहि दीपक जैस पतंग ॥3॥ | |
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− | + | कहेन्हि जनमपत्री जो लिखी । देइ असीस बहुरे जोतिषी ॥ | |
− | + | पाँच बरस महँ भय सो बारी । कीन्ह पुरान पढै बैसारी ॥ | |
+ | भै पदमावति पंडित गुनी । चहूँ खंड के राजन्ह सुनी ॥ | ||
+ | सिंघलदीप राजघर बारी । महा सुरुप दई औतारी ॥ | ||
+ | एक पदमिनी औ पंडित पढी । दहुँ केहि जोग गोसाईं गढी ॥ | ||
+ | जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी । सो असि पाव पढी औ लोनी ॥ | ||
+ | सात दीप के बर जो ओनाहीं । उत्तर पावहिं, फिरि फिरि जाहीं ॥ | ||
− | + | राजा कहै गरब कै अहौं इंद्र सिवलोक । | |
− | + | सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरोक ॥4॥ | |
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− | + | बारह बरस माहँ भै रानी । राजै सुना सँजोग सयानी ॥ | |
− | + | सात खंड धौराहर तासू । सो पदमिनि कहँ दीन्ह निवासू ॥ | |
+ | औ दीन्ही सँग सखी सहेली । जो सँग करैं रहसि रस-केली ॥ | ||
+ | सबै नवल पिउ संग न सोईं । कँवल पास जनु बिगीस कोईं ॥ | ||
+ | सुआ एक पदमावति ठाऊँ । महा पँडित हीरामन नाऊँ ॥ | ||
+ | दई दीन्ह पंखिहि अस जोती । नैन रतन, मुख मानिक मोती ॥ | ||
+ | कंचन बरन सुआ अति लोना । मानहुँ मिला सोहागहिं सोना ॥ | ||
− | + | रहहिं एक सँग दोउ, पढहिं सासतर वेद । | |
− | + | बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद ॥5॥ | |
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− | एक | + | |
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− | + | भै उनंत पदमावति बारी । रचि रचि विधि सब कला सँवारी ॥ | |
− | + | जग बेधा तेहि अंग-सुबासा । भँवर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥ | |
+ | बेनी नाग मलयागिरि पैठी । ससि माथे होइ दूइज बैठी ॥ | ||
+ | भौंह धनुक साधे सर फेरै । नयन कुरंग भूलि जनु हेरै ॥ | ||
+ | नासिक कीर, कँवल मुख सोहा । पदमिनि रूप देखि जग मोहा ॥ | ||
+ | मानिक अधर, दसन जनु हीरा । हिय हुलसे कुच कनक-गँभीरा ॥ | ||
+ | केहरि लंक, गवन गज हारे । सुरनर देखि माथ भुइँ धारे ॥ | ||
− | + | जग कोइ दीठि न आवै आछहि नैन अकास । | |
− | + | जोगि जती संन्यासी तप साधहि तेहि आस ॥6॥ | |
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− | + | एक दिवस पदमावति रानी । हीरामन तइँ कहा सयानी ॥ | |
− | + | सुनु हीरामन कहौं बुझाई । दिन दिन मदन सतावै आई ॥ | |
+ | पिता हमार न चालै बाता । त्रसहि बोलि सकै नहिं माता ॥ | ||
+ | देस देस के बर मोहि आवहिं । पिता हमार न आँख लगावहिं ॥ | ||
+ | जोबन मोर भयउ जस गंगा । देइ देइ हम्ह लाग अनंगा ॥ | ||
+ | हीरामन तब कहा बुझाई । विधि कर लिखा मेटि नहिं जाई ॥ | ||
+ | अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा । तोहि जोग बर मिलै नरेसा ॥ | ||
− | + | जौ लगि मैं फिरि आवौं मन चित धरहु निवारि । | |
− | + | सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा विचारि ॥7॥ | |
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− | + | राजन सुना दीठी भै आना । बुधि जो देहि सँग सुआ सयाना ॥ | |
− | + | भएउ रजायसु मारहु सूआ । सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ ॥ | |
+ | सत्रु सुआ के नाऊ बारी । सुनि धाए जस धाव मँजारी ॥ | ||
+ | तब लगि रानी सुआ छपावा । जब लगि ब्याध न आवै पावा ॥ | ||
+ | पिता क आयसु माथे मोरे । कहहु जाय विनवौ कर जोरे ॥ | ||
+ | पंखि न कोई होइ सुजानू । जानै भृगुति कि जान उडानू ॥ | ||
+ | सुआ जो पढै पढाए बैना । तेहि कत बुधि जेहि हिये न नैना ॥ | ||
− | + | मानिक मोती देखि वह हिये न ज्ञान करेइ । | |
− | + | दारिउँ दाख जानि कै अवहिं ठोर भरि लेइ ॥8॥ | |
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− | + | वै तौ फिरे उतर अस पावा । बिनवा सुआ हिये डर खावा ॥ | |
− | + | रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ । होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ ॥ | |
+ | मोतिहिं मलिन जो होइ गइ कला । पुनि सो पानि कहाँ निरमला ? ॥ | ||
+ | ठाकुर अंत चहै जेहि मारा । तेहि सेवक कर कहाँ उबारा ?॥ | ||
+ | जेहि घर काल-मजारी नाचा । पंखहि पाउँ जीउ नहिं बाँचा ॥ | ||
+ | मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा । जौ पूछहि देइ जाइ न लेखा ॥ | ||
+ | जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा । यह पछिताव चल्यों बिनु सेवा ॥ | ||
− | + | मारै सोइ निसोगा, डरै न अपने दोस । | |
− | + | केरा केलि करै का जौं भा बैरि परोस ॥9॥ | |
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− | + | रानी उतर दीन्ह कै माया । जौ जिउ जाउ रहै किमि काया ? ॥ | |
− | + | हीरामन ! तू प्रान परेवा । धोख न लाग करत तोहिं सेवा ॥ | |
+ | तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं । पींजर हिये घालि कै राखौं ॥ | ||
+ | हौं मानुस, तू पंखि पियारा । धरन क प्रीति तहाँ केइ मारा ? ॥ | ||
+ | का सौ प्रीति तन माँह बिलाई ?। सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई ॥ | ||
+ | प्रीति मार लै हियै न सोचू । ओहि पंथ भल होइ कि पोचू ॥ | ||
+ | प्रीति-पहार-भार जो काँधा । सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधा ॥ | ||
− | + | सुअटा रहै खुरुक जिउ, अबहिं काल सो आव । | |
− | + | सत्रु अहै जो करिया कबहुँ सो बोरे नाव ॥10॥ | |
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− | + | (1) उपना = उत्पन्न हुआ । | |
− | + | (2) बिहान = सबेरा । फिरीरा-भएऊ = फिरेरे के समान चक्कर लगाता हुआ । रतन = राजा रतनसेन की ओर लक्ष्य है । निरमरा = निर्मल । जमबारू = यमद्वार । | |
− | + | (4) बेसारि दीन्ह = बैठा दिया । बरोक =(बर+रोक) बरच्छा । कोंई = कुमुदिनी । | |
− | + | (8) मजारी = मार्जारी, बिल्ली । | |
− | + | (9) पानि = आब, आभा; चमक । जेंवा =खाया । बैरि = बेर का पेड । उनंत = ओनंत, भार से झुकी (यौवन के), `बारी' शब्द के कुमारी और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है । | |
− | + | (10) आँखौं = (सं0 आकांक्षा) चाहती हूँ, अथवा कहती हूँ,। करिया = कर्णधार, मल्लाह ।</poem> | |
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− | और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है । | + | |
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− | (10) आँखौं = (सं0 आकांक्षा) चाहती हूँ, अथवा कहती हूँ,। करिया = कर्णधार, मल्लाह । | + |
17:40, 27 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण
चंपावति जो रूप सँवारी । पदमावति चाहै औतारी ॥
भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी ॥
सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ ॥
प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई ॥
पुनि वह जोति मातु-घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई ॥
जस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू ॥
जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया ॥
सोने मँदिर सँवारहिं औ चंदन सब लीप ।
दिया जो मनि सिवलोक महँ उपना सिंघलदीप ॥1॥
भए दस मास पूरि भइ घरी । पदमावति कन्या औतरी ॥
जानौ सूर किरिन-हुति काढी । सुरुज-कला घाटि, वह बाढी ॥
भा निसि महँ दिन कर परकासू । सब उजियार भएउ कविलासू ॥
इते रूप मूरति परगटी । पूनौ ससी छीन होइ घटी ॥
घटतहि घटत अमावस भई । दिन दुइ लाज गाडि भुइँ गई ॥
पुनि जो उठी दुइज होइ नई । निहकलंक ससि विधि निरमई ॥
पदुमगंध बेधा जग बासा । भौंर पतंग भए चहुँ पासा ॥
इते रूप भै कन्या जेहिं सरि पूज न कोइ ।
धनि सो देस रुपवंता जहाँ जन्म अस होइ ॥2॥
भै छठि राति छठीं सुख मानी । रइस कूद सौं रैनि बिहानी ॥
भा विहान पंडित सब आए । काढि पुरान जनम अरथाए ॥
उत्तिम घरी जनम भा तासू । चाँद उआ भूइँ, दिपा अकासू ॥
कन्यारासि उदय जग कीया । पदमावती नाम अस दीया ॥
सूर प्रसंसै भएउ फिरीरा । किरिन जामि, उपना नग हीरा ॥
तेहि तें अधिक पदारथ करा । रतन जोग उपना निरमरा ॥
सिंहलदीप भए औतारू । जंबूदीप जाइ जमबारू ॥
राम अजुध्या ऊपने लछन बतीसो संग ।
रावन रूप सौं भूलिहि दीपक जैस पतंग ॥3॥
कहेन्हि जनमपत्री जो लिखी । देइ असीस बहुरे जोतिषी ॥
पाँच बरस महँ भय सो बारी । कीन्ह पुरान पढै बैसारी ॥
भै पदमावति पंडित गुनी । चहूँ खंड के राजन्ह सुनी ॥
सिंघलदीप राजघर बारी । महा सुरुप दई औतारी ॥
एक पदमिनी औ पंडित पढी । दहुँ केहि जोग गोसाईं गढी ॥
जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी । सो असि पाव पढी औ लोनी ॥
सात दीप के बर जो ओनाहीं । उत्तर पावहिं, फिरि फिरि जाहीं ॥
राजा कहै गरब कै अहौं इंद्र सिवलोक ।
सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरोक ॥4॥
बारह बरस माहँ भै रानी । राजै सुना सँजोग सयानी ॥
सात खंड धौराहर तासू । सो पदमिनि कहँ दीन्ह निवासू ॥
औ दीन्ही सँग सखी सहेली । जो सँग करैं रहसि रस-केली ॥
सबै नवल पिउ संग न सोईं । कँवल पास जनु बिगीस कोईं ॥
सुआ एक पदमावति ठाऊँ । महा पँडित हीरामन नाऊँ ॥
दई दीन्ह पंखिहि अस जोती । नैन रतन, मुख मानिक मोती ॥
कंचन बरन सुआ अति लोना । मानहुँ मिला सोहागहिं सोना ॥
रहहिं एक सँग दोउ, पढहिं सासतर वेद ।
बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद ॥5॥
भै उनंत पदमावति बारी । रचि रचि विधि सब कला सँवारी ॥
जग बेधा तेहि अंग-सुबासा । भँवर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
बेनी नाग मलयागिरि पैठी । ससि माथे होइ दूइज बैठी ॥
भौंह धनुक साधे सर फेरै । नयन कुरंग भूलि जनु हेरै ॥
नासिक कीर, कँवल मुख सोहा । पदमिनि रूप देखि जग मोहा ॥
मानिक अधर, दसन जनु हीरा । हिय हुलसे कुच कनक-गँभीरा ॥
केहरि लंक, गवन गज हारे । सुरनर देखि माथ भुइँ धारे ॥
जग कोइ दीठि न आवै आछहि नैन अकास ।
जोगि जती संन्यासी तप साधहि तेहि आस ॥6॥
एक दिवस पदमावति रानी । हीरामन तइँ कहा सयानी ॥
सुनु हीरामन कहौं बुझाई । दिन दिन मदन सतावै आई ॥
पिता हमार न चालै बाता । त्रसहि बोलि सकै नहिं माता ॥
देस देस के बर मोहि आवहिं । पिता हमार न आँख लगावहिं ॥
जोबन मोर भयउ जस गंगा । देइ देइ हम्ह लाग अनंगा ॥
हीरामन तब कहा बुझाई । विधि कर लिखा मेटि नहिं जाई ॥
अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा । तोहि जोग बर मिलै नरेसा ॥
जौ लगि मैं फिरि आवौं मन चित धरहु निवारि ।
सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा विचारि ॥7॥
राजन सुना दीठी भै आना । बुधि जो देहि सँग सुआ सयाना ॥
भएउ रजायसु मारहु सूआ । सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ ॥
सत्रु सुआ के नाऊ बारी । सुनि धाए जस धाव मँजारी ॥
तब लगि रानी सुआ छपावा । जब लगि ब्याध न आवै पावा ॥
पिता क आयसु माथे मोरे । कहहु जाय विनवौ कर जोरे ॥
पंखि न कोई होइ सुजानू । जानै भृगुति कि जान उडानू ॥
सुआ जो पढै पढाए बैना । तेहि कत बुधि जेहि हिये न नैना ॥
मानिक मोती देखि वह हिये न ज्ञान करेइ ।
दारिउँ दाख जानि कै अवहिं ठोर भरि लेइ ॥8॥
वै तौ फिरे उतर अस पावा । बिनवा सुआ हिये डर खावा ॥
रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ । होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ ॥
मोतिहिं मलिन जो होइ गइ कला । पुनि सो पानि कहाँ निरमला ? ॥
ठाकुर अंत चहै जेहि मारा । तेहि सेवक कर कहाँ उबारा ?॥
जेहि घर काल-मजारी नाचा । पंखहि पाउँ जीउ नहिं बाँचा ॥
मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा । जौ पूछहि देइ जाइ न लेखा ॥
जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा । यह पछिताव चल्यों बिनु सेवा ॥
मारै सोइ निसोगा, डरै न अपने दोस ।
केरा केलि करै का जौं भा बैरि परोस ॥9॥
रानी उतर दीन्ह कै माया । जौ जिउ जाउ रहै किमि काया ? ॥
हीरामन ! तू प्रान परेवा । धोख न लाग करत तोहिं सेवा ॥
तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं । पींजर हिये घालि कै राखौं ॥
हौं मानुस, तू पंखि पियारा । धरन क प्रीति तहाँ केइ मारा ? ॥
का सौ प्रीति तन माँह बिलाई ?। सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई ॥
प्रीति मार लै हियै न सोचू । ओहि पंथ भल होइ कि पोचू ॥
प्रीति-पहार-भार जो काँधा । सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधा ॥
सुअटा रहै खुरुक जिउ, अबहिं काल सो आव ।
सत्रु अहै जो करिया कबहुँ सो बोरे नाव ॥10॥
(1) उपना = उत्पन्न हुआ ।
(2) बिहान = सबेरा । फिरीरा-भएऊ = फिरेरे के समान चक्कर लगाता हुआ । रतन = राजा रतनसेन की ओर लक्ष्य है । निरमरा = निर्मल । जमबारू = यमद्वार ।
(4) बेसारि दीन्ह = बैठा दिया । बरोक =(बर+रोक) बरच्छा । कोंई = कुमुदिनी ।
(8) मजारी = मार्जारी, बिल्ली ।
(9) पानि = आब, आभा; चमक । जेंवा =खाया । बैरि = बेर का पेड । उनंत = ओनंत, भार से झुकी (यौवन के), `बारी' शब्द के कुमारी और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है ।
(10) आँखौं = (सं0 आकांक्षा) चाहती हूँ, अथवा कहती हूँ,। करिया = कर्णधार, मल्लाह ।