"घरेलू स्त्री / ममता व्यास" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 28: | पंक्ति 28: | ||
और कितनी ही कविताएं सो गयी तकिये से चिपक कर | और कितनी ही कविताएं सो गयी तकिये से चिपक कर | ||
− | + | कड़ाही में कभी हलवा नहीं जला... | |
जलती रही कविता धीरे धीरे | जलती रही कविता धीरे धीरे | ||
जैसे दूध के साथ उफन गए कितने अहसास भीगे से | जैसे दूध के साथ उफन गए कितने अहसास भीगे से |
23:31, 3 जून 2015 के समय का अवतरण
जिन्दगी को ही कविता माना उसने
जब जैसी, जिस रूप में मिली
खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना...
वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम
लेकिन उसे आता है रिश्तों को गढऩा और पकाना
घर की दरारों में कब भरनी है चुपके से भरावन
जानती है वह...
तुम कविता के लिए बहाने तलाशते हो
वो किसी भी बहाने से रच लेती है कविता
तुम शोर मचाते हो एक कविता लिखकर
वो ज़िन्दगी लिख कर भी ख़ामोश रहती है
रातभर जागकर जब तुम इतरा रहे होते हो
किसी एक कविता के जन्म पर
वो सारी रात दिनभर लिखी कविताओं का हिसाब करती है
कितनी कविताएं सब्जी के साथ कट गईं
कितनी ही प्याज के बहाने बह गईं
और कितनी ही कविताएं सो गयी तकिये से चिपक कर
कड़ाही में कभी हलवा नहीं जला...
जलती रही कविता धीरे धीरे
जैसे दूध के साथ उफन गए कितने अहसास भीगे से
हर दिन आँखों से बहकर गालों पे बनती
और होठों के किनारों पर दम तोड़ती है कविता
तुम इसे जादू कहोगे
हाँ सही है, क्योंकि यह इस पल है
अगले पल नहीं होगी
अभी चमकी है अगले पल भस्म होगी
रात के बचे खाने से सुबह नया व्यंजन बनाना
पिछली रात के दर्द से नयी कविता बना लेना
आता है उसे...
और तुम कहते हो
उस घरेलू स्त्री को कविता की समझ नहीं!