"रहीम दोहावली - 5" के अवतरणों में अंतर
(New page: उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान । <BR/> सावन दिन मनभावन, करत पयान ॥ 401 ॥ <BR/><...) |
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+ | रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय। | ||
+ | पसु खर खात सवादसों, गुर गुलियाए खाय॥241॥ | ||
− | + | रहिमन रिस को छाँड़ि कै, करौ गरीबी भेस। | |
− | + | मीठो बोलो नै चलो, सबै तुम्हारो देस।1242॥ | |
− | + | रहिमन रिस सहि तजत नहीं, बड़े प्रीति की पौरि। | |
− | + | मूकन मारत आवई, नींद बिचारी दौरी॥243॥ | |
− | + | रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय। | |
− | + | भीति आप पै डारि कै, सबै पियावै तोय॥244॥ | |
− | + | रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय। | |
− | + | राग सुनत पय पिअत हू, साँप सहज धरि खाय॥245॥ | |
− | + | रहिमन वहाँ न जाइये, जहाँ कपट को हेत। | |
− | + | हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत॥2461। | |
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− | + | रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार। | |
− | + | चोरी करी होरी रची, भई तनिक में छार॥247॥ | |
− | + | रहिमन विद्या बुद्धि नहिं, नहीं धरम, जस, दान। | |
− | + | भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिनु पूँछ बिषान॥248॥ | |
− | + | रहिमन बिपदाहू भली, जो थोरे दिन होय। | |
− | + | हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥249॥ | |
− | + | रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं। | |
− | + | उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं॥250॥ | |
− | + | रहिमन सीधी चाल सों, प्यादा होत वजीर। | |
− | + | फरजी साह न हुइ सकै, गति टेढ़ी तासीर॥251॥ | |
− | + | रहिमन सुधि सबतें भली, लगै जो बारंबार। | |
− | + | बिछुरे मानुष फिरि मिलें, यहै जान अवतार॥252॥ | |
− | + | रहिमन सो न कछू गनै, जासों, लागे नैन। | |
− | + | सहि के सोच बेसाहियो, गयो हाथ को चैन॥253॥ | |
− | + | राम नाम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि। | |
− | + | कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकर कानि॥254॥ | |
− | + | राम नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि। | |
− | + | कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गँवायो बादि॥255॥ | |
− | + | रीति प्रीति सब सों भली, बैर न हित मित गोत। | |
− | + | रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत॥256॥ | |
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− | + | रूप, कथा, पद, चारु, पट, कंचन, दोहा, लाल। | |
− | + | ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्मगति, मोल रहीम बिसाल॥257॥ | |
− | + | रूप बिलोकि रहीम तहँ, जहँ जहँ मन लगि जाय। | |
− | + | थाके ताकहिं आप बहु, लेत छौड़ाय छोड़ाय॥258॥ | |
− | + | रोल बिगाड़े राज नै, मोल बिगाड़े माल। | |
− | + | सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल॥259॥ | |
− | + | लालन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माँहिं। | |
− | + | प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं॥260॥ | |
− | + | लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन। | |
− | + | पद कर काटि बनारसी, पहुँचे मगरु स्थान॥261॥ | |
− | + | लोहे की न लोहार का, रहिमन कही विचार। | |
− | + | जो हनि मारे सीस में, ताही की तलवार॥262॥ | |
− | + | बरु रहीम कानन भलो, बास करिय फल भोग। | |
− | + | बंधु मध्य धनहीन ह्वै बसिबो उचित न योग॥263॥ | |
− | + | बहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत। | |
− | + | घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हें रेत॥264॥ | |
− | + | बिधना यह जिय जानि कै, सेसहि दिये न कान। | |
− | + | धरा मेरु सब डोलि हैं, तानसेन के तान॥265॥ | |
− | + | बिरह रूप धन तम भयो, अवधि आस उद्योत। | |
− | + | ज्यों रहीम भादों निसा, चमकि जात खद्योत॥266॥ | |
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− | + | वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग। | |
− | + | बाँटनेवारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग॥267॥ | |
− | + | सदा नगारा कूच का, बाजत आठों जाम। | |
− | + | रहिमन या जग आइ कै, को करि रहा मुकाम॥268॥ | |
− | + | सब को सब कोऊ करै, कै सलाम कै राम। | |
− | + | हित रहीम तब जानिए, जब कछु अटकै काम॥269॥ | |
− | + | सबै कहावै लसकरी, सब लसकर कहँ जाय। | |
− | + | रहिमन सेल्ह जोई सहै, सो जागीरैं खाय॥270॥ | |
− | + | समय दसा कुल देखि कै, सबै करत सनमान। | |
− | + | रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान॥271॥ | |
− | + | समय परे ओछे बचन, सब के सहै रहीम। | |
− | + | सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम॥272॥ | |
− | + | समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय। | |
− | + | सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछिताय॥273॥ | |
− | + | समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक। | |
− | + | चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक॥274॥ | |
− | + | सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम। | |
− | + | पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम॥275॥ | |
− | + | सर सूखे पच्छी उड़ै, औरे सरन समाहिं। | |
− | + | दीन मीन बिन पच्छ के, कहु रहीम कहँ जाहिं॥276॥ | |
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− | + | स्वारथ रचन रहीम सब, औगुनहू जग माँहि। | |
− | + | बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छाँहि॥277॥ | |
− | + | स्वासह तुरिय उच्चरै, तिय है निहचल चित्त। | |
− | + | पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्त॥278॥ | |
− | + | साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान। | |
− | + | रहिमन साँचै सूर को, बैरी करै बखान॥279॥ | |
− | + | सौदा करो सो करि चलौ, रहिमन याही बाट। | |
− | + | फिर सौदा पैहो नहीं, दूरी जान है बाट॥280॥ | |
− | + | संतत संपति जानि कै, सब को सब कुछ देत। | |
− | + | दीनबंधु बिनु दीन की, को रहीम सुधि लेत॥281॥ | |
− | + | संपति भरम गँवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं। | |
− | + | ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं माहिं॥282॥ | |
− | + | ससि की सीतल चाँदनी, सुंदर, सबहिं सुहाय। | |
− | + | लगे चोर चित में लटी, घटी रहीम मन आय॥283॥ | |
− | + | ससि, सुकेस, साहस, सलिल, मान सनेह रहीम। | |
− | + | बढ़त बढ़त बढ़ि जात हैं, घटत घटत घटि सीम॥284॥ | |
− | + | सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक। | |
− | + | रहिमन तेहि रबि को कहा, जो घटि लखै उलूक॥285॥ | |
− | + | हरि रहीम ऐसी करी, ज्यों कमान सर पूर। | |
− | + | खैंचि अपनी ओर को, डारि दियो पुनि दूर॥286॥ | |
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− | + | हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर। | |
− | + | जब डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर॥287॥ | |
− | + | हित रहीम इतऊ करै, जाकी जिती बिसात। | |
− | + | नहिं यह रहै न वह रहै, रहै कहन को बात॥288॥ | |
− | + | होत कृपा जो बड़ेन की सो कदाचि घटि जाय। | |
− | + | तौ रहीम मरिबो भलो, यह दुख सहो न जाय॥289॥ | |
− | + | होय न जाकी छाँह ढिग, फल रहीम अति दूर। | |
− | + | बढ़िहू सो बिनु काज ही, जैसे तार खजूर॥290॥ | |
− | + | '''सोरठा''' | |
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− | + | ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अँगार ज्यों। | |
− | + | तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै॥291॥ | |
− | + | रहिमन कीन्हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं। | |
− | + | जिनके अगनित मीत, हमैं गीरबन को गनै॥292॥ | |
− | + | रहिमन जग की रीति, मैं देख्यो रस ऊख में। | |
− | + | ताहू में परतीति, जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं॥293॥ | |
− | + | जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस। | |
− | + | रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में॥294॥ | |
− | + | रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं। | |
− | + | तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं॥295॥ | |
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− | + | रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै। | |
− | + | पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै॥296॥ | |
− | + | रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु। | |
− | + | बरु विष देय, बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥297॥ | |
− | + | बिंदु मों सिंधु समान को अचरज कासों कहै। | |
− | + | हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें॥298॥ | |
− | + | चूल्हा दीन्हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो। | |
− | + | रहिमन उतरे पार, भर झोंकि सब भार में॥299॥ | |
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13:23, 11 जून 2015 के समय का अवतरण
रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय।
पसु खर खात सवादसों, गुर गुलियाए खाय॥241॥
रहिमन रिस को छाँड़ि कै, करौ गरीबी भेस।
मीठो बोलो नै चलो, सबै तुम्हारो देस।1242॥
रहिमन रिस सहि तजत नहीं, बड़े प्रीति की पौरि।
मूकन मारत आवई, नींद बिचारी दौरी॥243॥
रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
भीति आप पै डारि कै, सबै पियावै तोय॥244॥
रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय।
राग सुनत पय पिअत हू, साँप सहज धरि खाय॥245॥
रहिमन वहाँ न जाइये, जहाँ कपट को हेत।
हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत॥2461।
रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार।
चोरी करी होरी रची, भई तनिक में छार॥247॥
रहिमन विद्या बुद्धि नहिं, नहीं धरम, जस, दान।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिनु पूँछ बिषान॥248॥
रहिमन बिपदाहू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥249॥
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं॥250॥
रहिमन सीधी चाल सों, प्यादा होत वजीर।
फरजी साह न हुइ सकै, गति टेढ़ी तासीर॥251॥
रहिमन सुधि सबतें भली, लगै जो बारंबार।
बिछुरे मानुष फिरि मिलें, यहै जान अवतार॥252॥
रहिमन सो न कछू गनै, जासों, लागे नैन।
सहि के सोच बेसाहियो, गयो हाथ को चैन॥253॥
राम नाम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि।
कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकर कानि॥254॥
राम नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि।
कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गँवायो बादि॥255॥
रीति प्रीति सब सों भली, बैर न हित मित गोत।
रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत॥256॥
रूप, कथा, पद, चारु, पट, कंचन, दोहा, लाल।
ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्मगति, मोल रहीम बिसाल॥257॥
रूप बिलोकि रहीम तहँ, जहँ जहँ मन लगि जाय।
थाके ताकहिं आप बहु, लेत छौड़ाय छोड़ाय॥258॥
रोल बिगाड़े राज नै, मोल बिगाड़े माल।
सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल॥259॥
लालन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माँहिं।
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं॥260॥
लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन।
पद कर काटि बनारसी, पहुँचे मगरु स्थान॥261॥
लोहे की न लोहार का, रहिमन कही विचार।
जो हनि मारे सीस में, ताही की तलवार॥262॥
बरु रहीम कानन भलो, बास करिय फल भोग।
बंधु मध्य धनहीन ह्वै बसिबो उचित न योग॥263॥
बहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत।
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हें रेत॥264॥
बिधना यह जिय जानि कै, सेसहि दिये न कान।
धरा मेरु सब डोलि हैं, तानसेन के तान॥265॥
बिरह रूप धन तम भयो, अवधि आस उद्योत।
ज्यों रहीम भादों निसा, चमकि जात खद्योत॥266॥
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बाँटनेवारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग॥267॥
सदा नगारा कूच का, बाजत आठों जाम।
रहिमन या जग आइ कै, को करि रहा मुकाम॥268॥
सब को सब कोऊ करै, कै सलाम कै राम।
हित रहीम तब जानिए, जब कछु अटकै काम॥269॥
सबै कहावै लसकरी, सब लसकर कहँ जाय।
रहिमन सेल्ह जोई सहै, सो जागीरैं खाय॥270॥
समय दसा कुल देखि कै, सबै करत सनमान।
रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान॥271॥
समय परे ओछे बचन, सब के सहै रहीम।
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम॥272॥
समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछिताय॥273॥
समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक।
चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक॥274॥
सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम।
पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम॥275॥
सर सूखे पच्छी उड़ै, औरे सरन समाहिं।
दीन मीन बिन पच्छ के, कहु रहीम कहँ जाहिं॥276॥
स्वारथ रचन रहीम सब, औगुनहू जग माँहि।
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छाँहि॥277॥
स्वासह तुरिय उच्चरै, तिय है निहचल चित्त।
पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्त॥278॥
साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान।
रहिमन साँचै सूर को, बैरी करै बखान॥279॥
सौदा करो सो करि चलौ, रहिमन याही बाट।
फिर सौदा पैहो नहीं, दूरी जान है बाट॥280॥
संतत संपति जानि कै, सब को सब कुछ देत।
दीनबंधु बिनु दीन की, को रहीम सुधि लेत॥281॥
संपति भरम गँवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं माहिं॥282॥
ससि की सीतल चाँदनी, सुंदर, सबहिं सुहाय।
लगे चोर चित में लटी, घटी रहीम मन आय॥283॥
ससि, सुकेस, साहस, सलिल, मान सनेह रहीम।
बढ़त बढ़त बढ़ि जात हैं, घटत घटत घटि सीम॥284॥
सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक।
रहिमन तेहि रबि को कहा, जो घटि लखै उलूक॥285॥
हरि रहीम ऐसी करी, ज्यों कमान सर पूर।
खैंचि अपनी ओर को, डारि दियो पुनि दूर॥286॥
हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर।
जब डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर॥287॥
हित रहीम इतऊ करै, जाकी जिती बिसात।
नहिं यह रहै न वह रहै, रहै कहन को बात॥288॥
होत कृपा जो बड़ेन की सो कदाचि घटि जाय।
तौ रहीम मरिबो भलो, यह दुख सहो न जाय॥289॥
होय न जाकी छाँह ढिग, फल रहीम अति दूर।
बढ़िहू सो बिनु काज ही, जैसे तार खजूर॥290॥
सोरठा
ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अँगार ज्यों।
तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै॥291॥
रहिमन कीन्हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं।
जिनके अगनित मीत, हमैं गीरबन को गनै॥292॥
रहिमन जग की रीति, मैं देख्यो रस ऊख में।
ताहू में परतीति, जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं॥293॥
जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में॥294॥
रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं॥295॥
रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै।
पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै॥296॥
रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु।
बरु विष देय, बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥297॥
बिंदु मों सिंधु समान को अचरज कासों कहै।
हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें॥298॥
चूल्हा दीन्हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो।
रहिमन उतरे पार, भर झोंकि सब भार में॥299॥