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"रहीम दोहावली - 5" के अवतरणों में अंतर

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उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान । <BR/>
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सावन दिन मनभावन, करत पयान ॥ 401 ॥ <BR/><BR/>
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रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय।
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पसु खर खात सवादसों, गुर गुलियाए खाय॥241॥
  
समुझति सुमुखि सयानी, बादर झूम । <BR/>
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रहिमन रिस को छाँड़ि कै, करौ गरीबी भेस।
बिरहिन के हिय भभतक, तिनकी धूम ॥ 402 ॥ <BR/><BR/>
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मीठो बोलो नै चलो, सबै तुम्‍हारो देस।1242॥
  
उलहे नये अंकुरवा, बिन बलवीर । <BR/>
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रहिमन रिस सहि तजत नहीं, बड़े प्रीति की पौरि।
मानहु मदन महिप के, बिन पर तीर ॥ 403 ॥ <BR/><BR/>
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मूकन मारत आवई, नींद बिचारी दौरी॥243॥
  
सुगमहि गातहि गारन, जारन देह । <BR/>
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रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
अगम महा अति पारन, सुघर सनेह ॥ 404 ॥ <BR/><BR/>
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भीति आप पै डारि कै, सबै पियावै तोय॥244॥
  
मनमोहन तुव मुरति, बेरिझबार । <BR/>
+
रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय।
बिन पियान मुहि बनिहै, सकल विचार ॥ 405 ॥ <BR/><BR/>
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राग सुनत पय पिअत हू, साँप सहज धरि खाय॥245॥
  
झूमि-झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह । <BR/>
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रहिमन वहाँ न जाइये, जहाँ कपट को हेत।
त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरसत देह ॥ 406 ॥ <BR/><BR/>
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हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत॥2461।
झूँठी झूँठी सौंहे, हरि नित खात । <BR/>
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फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात ॥ 407 ॥ <BR/><BR/>
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डोलत त्रिबिध मरुतवा, सुखद सुढार । <BR/>
+
रहिमन वित्‍त अधर्म को, जरत न लागै बार।
हरि बिन लागब सजनी, जिमि तरवार ॥ 408 ॥ <BR/><BR/>
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चोरी करी होरी रची, भई तनिक में छार॥247॥
  
कहियो पथिक संदेसवा, गहि के पाय । <BR/>
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रहिमन विद्या बुद्धि नहिं, नहीं धरम, जस, दान।
मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय ॥ 409 ॥ <BR/><BR/>
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भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिनु पूँछ बिषान॥248॥
  
जबते आयौ सजनी, मास असाढ़ । <BR/>
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रहिमन बिपदाहू भली, जो थोरे दिन होय।
जानी सखि वा तिन के, हिम की गाढ़ ॥ 410 ॥ <BR/><BR/>
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हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥249॥
  
मनमोहन बिन तिय के, हिय दुख बाढ़ । <BR/>
+
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
आये नन्द दिठनवा, लगत असाढ़ ॥ 411 ॥ <BR/><BR/>
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उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं॥250॥
  
वेद पुरान बखानत, अधम उधार । <BR/>
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रहिमन सीधी चाल सों, प्‍यादा होत वजीर।
केहि कारन करूनानिधि, करत विचार ॥ 412 ॥ <BR/><BR/>
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फरजी साह न हुइ सकै, गति टेढ़ी तासीर॥251॥
  
लगत असाढ़ कहत हो, चलन किसोंर । <BR/>
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रहिमन सुधि सबतें भली, लगै जो बारंबार।
घन घुमड़े चहुँ औरन, नाचत मोर ॥ 413 ॥ <BR/><BR/>
+
बिछुरे मानुष फिरि मिलें, यहै जान अवतार॥252॥
  
लखि पावस ॠतु सजनी, पिय परदेस । <BR/>
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रहिमन सो न कछू गनै, जासों, लागे नैन।
गहन लग्यौ अबलनि पै, धनुष सुरेस ॥ 414 ॥ <BR/><BR/>
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सहि के सोच बेसाहियो, गयो हाथ को चैन॥253॥
  
बिरह बढ्यौ सखि अंगन, बढ्यौ चवाव । <BR/>
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राम नाम जान्‍यो नहीं, भइ पूजा में हानि।
करयो निठुर नन्दनन्दन, कौन कुदाव ॥ 415 ॥ <BR/><BR/>
+
कहि रहीम क्‍यों मानिहैं, जम के किंकर कानि॥254॥
  
भज्यो कितौ न जनम भरि, कितनी जाग । <BR/>
+
राम नाम जान्‍यो नहीं, जान्‍यो सदा उपाधि।
संग रहत या तन की, छाँही भाग ॥ 416 ॥ <BR/><BR/>
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कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गँवायो बादि॥255॥
  
भज र मन नन्दनन्दन, विपति बिदार । <BR/>
+
रीति प्रीति सब सों भली, बैर न हित मित गोत।
गोपी-जन-मन-रंजन, परम उदार ॥ 417 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत॥256॥
जदपि बसत हैं सजनी, लाखन लोग । <BR/>
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हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग ॥ 418 ॥ <BR/><BR/>
+
  
जदपि भई जल पूरित, छितव सुआस । <BR/>
+
रूप, कथा, पद, चारु, पट, कंचन, दोहा, लाल।
स्वाति बूँद बिन चातक, मरत-पियास ॥ 419 ॥ <BR/><BR/>
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ज्‍यों ज्‍यों निरखत सूक्ष्‍मगति, मोल रहीम बिसाल॥257॥
  
देखन ही को निसदिन, तरफत देह । <BR/>
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रूप बिलोकि रहीम तहँ, जहँ जहँ मन लगि जाय।
यही होत मधुसूदन, पूरन नेह ॥ 420 ॥ <BR/><BR/>
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थाके ताकहिं आप बहु, लेत छौड़ाय छोड़ाय॥258॥
  
कब तें देखत सजनी, बरसत मेह । <BR/>
+
रोल बिगाड़े राज नै, मोल बिगाड़े माल।
गनत न चढ़े अटन पै, सने सनेह ॥ 421 ॥ <BR/><BR/>
+
सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल॥259॥
  
विरह विथा तें लखियत, मरिबौं झूरि । <BR/>
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लालन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माँहिं।
जो नहिं मिलिहै मोहन, जीवन मूरि ॥ 422 ॥ <BR/><BR/>
+
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं॥260॥
  
उधौं भलौ न कहनौ, कछु पर पूठि । <BR/>
+
लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन।
साँचे ते भे झूठे, साँची झूठि ॥ 423 ॥ <BR/><BR/>
+
पद कर काटि बनारसी, पहुँचे मगरु स्‍थान॥261॥
  
भादों निस अँधियरिया, घर अँधियार । <BR/>
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लोहे की न लोहार का, रहिमन कही विचार।
बिसरयो सुघर बटोही, शिव आगार ॥ 424 ॥ <BR/><BR/>
+
जो हनि मारे सीस में, ताही की तलवार॥262॥
  
हौं लखिहौ री सजनी, चौथ मयंक । <BR/>
+
बरु रहीम कानन भलो, बास करिय फल भोग।
देखों केहि बिधि हरि सों, लगत कलंक ॥ 425 ॥ <BR/><BR/>
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बंधु मध्‍य धनहीन ह्वै बसिबो उचित न योग॥263॥
  
इन बातन कछु होत न, कहो हजार । <BR/>
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बहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत।
सबही तैं हँसि बोलत, नन्दकुमार ॥ 426 ॥ <BR/><BR/>
+
घटत घटत रहिमन घटै, ज्‍यों कर लीन्‍हें रेत॥264॥
  
कहा छलत को ऊधौ, दै परतीति । <BR/>
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बिधना यह जिय जानि कै, सेसहि दिये न कान।
सपनेहूं नहिं बिसरै, मोहनि-मीति ॥ 427 ॥ <BR/><BR/>
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धरा मेरु सब डोलि हैं, तानसेन के तान॥265॥
  
बन उपवन गिरि सरिता, जिती कठोर । <BR/>
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बिरह रूप धन तम भयो, अवधि आस उद्योत।
लगत देह से बिछुरे, नन्द किसोर ॥ 428 ॥ <BR/><BR/>
+
ज्‍यों रहीम भादों निसा, चमकि जात खद्योत॥266॥
भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि । <BR/>
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कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि ॥ 429 ॥ <BR/><BR/>
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अदिहि-ते सब छुटगो, जग व्यौहार । <BR/>
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वे रहीम नर धन्‍य हैं, पर उपकारी अंग।
ऊधो अब न तिनौं भरि, रही उधार ॥ 430 ॥ <BR/><BR/>
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बाँटनेवारे को लगे, ज्‍यों मेंहदी को रंग॥267॥
  
घेर रह्यौ दिन रतियाँ, विरह बलाय । <BR/>
+
सदा नगारा कूच का, बाजत आठों जाम।
मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय ॥ 431 ॥ <BR/><BR/>
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रहिमन या जग आइ कै, को करि रहा मुकाम॥268॥
  
नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं । <BR/>
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सब को सब कोऊ करै, कै सलाम कै राम।
होत विटपहू नागौ, फागुन माहि ॥ 432 ॥ <BR/><BR/>
+
हित रहीम तब जानिए, जब कछु अटकै काम॥269॥
  
सहज हँसोई बातें, होत चवाइ । <BR/>
+
सबै कहावै लसकरी, सब लसकर कहँ जाय।
मोहन कों तन सजनी, दै समुझाइ ॥ 433 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन सेल्‍ह जोई सहै, सो जागीरैं खाय॥270॥
  
ज्यों चौरसी लख में, मानुष देह । <BR/>
+
समय दसा कुल देखि कै, सबै करत सनमान।
त्योंही दुर्लभ जग में, सहज सनेह ॥ 434 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान॥271॥
  
मानुष तन अति दुर्लभ, सहजहि पाय । <BR/>
+
समय परे ओछे बचन, सब के सहै रहीम।
हरि-भजि कर संत संगति, कह्यौ जताय ॥ 435 ॥ <BR/><BR/>
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सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम॥272॥
  
अति अदभुत छबि- सागर, मोहन-गात । <BR/>
+
समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय।
देखत ही सखि बूड़त, दृग-जलजात ॥ 436 ॥ <BR/><BR/>
+
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछिताय॥273॥
  
निरमोंही अति झूँठौ, साँवर गात । <BR/>
+
समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक।
चुभ्यौ रहत चित कौधौं, जानि न जात ॥ 437 ॥ <BR/><BR/>
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चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक॥274॥
  
बिन देखें कल नाहिन, यह अखियान । <BR/>
+
सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम।
पल-पल कटत कलप सों, अहो सुजान ॥ 438 ॥ <BR/><BR/>
+
पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम॥275॥
  
जब तब मोहन झूठी, सौंहें खात । <BR/>
+
सर सूखे पच्‍छी उड़ै, औरे सरन समाहिं।
इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात ॥ 439 ॥ <BR/><BR/>
+
दीन मीन बिन पच्‍छ के, कहु र‍हीम कहँ जाहिं॥276॥
ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन प्रान । <BR/>
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ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान ॥ 440 ॥ <BR/><BR/>
+
  
मोहि मीत बिन देखें, छिन न सुहात । <BR/>
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स्‍वारथ रचन रहीम सब, औगुनहू जग माँहि।
पल पल भरि भरि उलझत, दृग जल जात ॥ 441 ॥ <BR/><BR/>
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बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छाँहि॥277॥
  
जब तें बिछरे मितवा, कहु कस चैन । <BR/>
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स्‍वासह तुरिय उच्‍चरै, तिय है निहचल चित्‍त।
रहत भरयौ हिय साँसन, आँसुन नैन ॥ 442 ॥ <BR/><BR/>
+
पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्‍त॥278॥
  
कैसे जावत कोऊ, दूरि बसाय । <BR/>
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साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान।
पल अन्तरहूं सजनी, रह्यो न जाय ॥ 443 ॥ <BR/><BR/>
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रहिमन साँचै सूर को, बैरी करै बखान॥279॥
  
जान कहत हो ऊधौ, अवधि बताइ । <BR/>
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सौदा करो सो करि चलौ, रहिमन याही बाट।
अवधि अवधि-लौं दुस्तर, परत लखाइ ॥ 444 ॥ <BR/><BR/>
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फिर सौदा पैहो नहीं, दूरी जान है बाट॥280॥
  
मिलनि न बनि है भाखत, इन इक टूक । <BR/>
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संतत संपति जानि कै, सब को सब कुछ देत।
भये सुनत ही हिय के, अगनित टूक ॥ 445 ॥ <BR/><BR/>
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दीनबंधु बिनु दीन की, को रहीम सुधि लेत॥281॥
  
गये हरि हरि सजनी, बिहँसि कछूक । <BR/>
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संपति भरम गँवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं।
तबते लगनि अगनि की, उठत भभूक ॥ 446 ॥ <BR/><BR/>
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ज्‍यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं माहिं॥282॥
  
होरी पूजत सजनी, जुर नर नारि । <BR/>
+
ससि की सीतल चाँदनी, सुंदर, सबहिं सुहाय।
जरि-बिन जानहु जिय में, दई दवारि ॥ 447 ॥ <BR/><BR/>
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लगे चोर चित में लटी, घटी रहीम मन आय॥283॥
  
दिस बिदसान करत ज्यों, कोयल कू । <BR/>
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ससि, सुकेस, साहस, सलिल, मान सनेह रहीम।
चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय में हूक ॥ 448 ॥ <BR/><BR/>
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बढ़त बढ़त बढ़ि जात हैं, घटत घटत घटि सीम॥284॥
  
जबते मोहन बिछुरे, कछु सुधि नाहिं । <BR/>
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सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक।
रहे प्रान परि पलकनि, दृग मग माहिं ॥ 449 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन तेहि रबि को कहा, जो घटि लखै उलूक॥285॥
  
उझिक उझिक चित दिन दिन, हेरत द्वार । <BR/>
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हरि रहीम ऐसी करी, ज्‍यों कमान सर पूर।
जब ते बिछुरे सजनी, नेन्द्कुमार ॥ 450 ॥ <BR/><BR/>
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खैंचि अपनी ओर को, डारि दियो पुनि दूर॥286॥
मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान । <BR/>
+
हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन ॥ 451 ॥ <BR/><BR/>
+
  
जक न परत बिन हेरे, सखिन सरोस । <BR/>
+
हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर।
हरि न मिलत बसि नेरे, यह अफसोस ॥ 452 ॥ <BR/><BR/>
+
जब डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर॥287॥
  
चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय । <BR/>
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हित रहीम इतऊ करै, जाकी जिती बिसात।
बिन देखे निस बासर, तरफत जाय ॥ 453 ॥ <BR/><BR/>
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नहिं यह रहै न वह रहै, रहै कहन को बात॥288॥
  
तुम सब भाँतिन चतुरे, यह कल बात । <BR/>
+
होत कृपा जो बड़ेन की सो कदाचि घटि जाय।
होरि के त्यौहारन, पीहर जात ॥ 454 ॥ <BR/><BR/>
+
तौ रहीम मरिबो भलो, यह दुख सहो न जाय॥289॥
  
और कहा हरि कहिये, चनि यह नेह । <BR/>
+
होय न जाकी छाँह ढिग, फल रहीम अति दूर।
देखन ही को निसदिन, तरफत देह ॥ 455 ॥ <BR/><BR/>
+
बढ़िहू सो बिनु काज ही, जैसे तार खजूर॥290॥
  
जब तें बिछुरे मोहन, भूख न प्यास । <BR/>
+
'''सोरठा'''
बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास ॥ 456 ॥ <BR/><BR/>
+
  
अन्तरग्त हिय बेधत, छेदत प्रान । <BR/>
+
ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अँगार ज्‍यों।
विष सम परम सबन तें, लोचन बान ॥ 457 ॥ <BR/><BR/>
+
तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै॥291॥
  
गली अँधेदी मिल कै, रहि चुपचाप । <BR/>
+
रहिमन कीन्‍हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं।
बरजोरी मनमोहन, करत मिलाप ॥ 458 ॥ <BR/><BR/>
+
जिनके अगनित मीत, हमैं गीरबन को गनै॥292॥
  
सास ननद गुरु पुरजन, रहे रिसाय । <BR/>
+
रहिमन जग की रीति, मैं देख्‍यो रस ऊख में।
मोहन हू अस निसरे, हे सखि हाय ॥ 459 ॥ <BR/><BR/>
+
ताहू में परतीति, जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं॥293॥
  
उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज । <BR/>
+
जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस।
ऊधो तुमहू कहियो, धनि बृजराज ॥ 460 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में॥294॥
  
जिहिके लिये जगत में, बजै निसान । <BR/>
+
रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं।
तिहिं-ते करे अबोलन, कौन सयान ॥ 461 ॥ <BR/><BR/>
+
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं॥295॥
रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर । <BR/>
+
जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर ॥ 462 ॥ <BR/><BR/>
+
  
विरहिन को सब भाखत, अब जनि रोय । <BR/>
+
रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्‍यों तिरै।
पीर पराई जानै, तब कहु कोय ॥ 463 ॥ <BR/><BR/>
+
पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै॥296॥
  
सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर । <BR/>
+
रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु।
बौरी बाँझ न जानै, ब्यावर पीर ॥ 464 ॥ <BR/><BR/>
+
बरु विष देय, बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥297॥
  
लखि मोहन की बंसी, बंसी जान । <BR/>
+
बिंदु मों सिंधु समान को अचरज कासों कहै।
लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान ॥ 465 ॥ <BR/><BR/>
+
हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें॥298॥
  
तै चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ । <BR/>
+
चूल्‍हा दीन्‍हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो।
याहीं तें दुचती सी, परत लखाई ॥ 466 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन उतरे पार, भर झोंकि सब भार में॥299॥
 
+
</poem>
मी गुजरद है दिलरा, बे दिलदार । <BR/>
+
इक इक साअत हमचूँ, साल हजार ॥ 467 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
नव नागर पद परसी, फूलत जौन । <BR/>
+
मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन ॥ 468 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति । <BR/>
+
सुनहू श्याम की सजनी, का परतीति ॥ 469 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
नृप जोगी सब जानत, होत बयार । <BR/>
+
संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार ॥ 470 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
मोहन जीवन प्यारे, कस हित कीन । <BR/>
+
दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन ॥ 471 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस । <BR/>
+
दीनबन्धु दुख टारन, कौसलधीस ॥ 472 ॥ <BR/><BR/>
+
गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार । <BR/>
+
बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार ॥ 473 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
दिलबर जद बर जिगरम, तीर निगाह । <BR/>
+
तपीदा जाँ भी आयद, हरदम आह ॥ 474 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
लोग लुगाई हिलमिल, खेतल फाग । <BR/>
+
परयौ उड़ावन मौकौं, सब दिन काग ॥ 475 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
मो जिय कोरी सिगरी, ननद जिठानि । <BR/>
+
भई स्याम सों तब तें, तनक पिछानि ॥ 476 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
होत विकल अनलेखै, सुधर कहाय । <BR/>
+
को सुख पावत सजनी, नेह लगाय ॥ 477 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
अहो सुधाधर प्यारे, नेह निचोर । <BR/>
+
देखन ही कों तरसे, नैन चकोर ॥ 478 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
आँखिन देखत सबही, कहत सुधारि । <BR/>
+
पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि ॥ 479 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
पथिक आय पनघटवा, कहता पियाव । <BR/>
+
पैया परों ननदिया, फेरि कहाव ॥ 480 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
या झर में घर घर में, मदन हिलोर । <BR/>
+
पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर ॥ 481 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि । <BR/>
+
हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि ॥ 482 ॥ <BR/><BR/>
+

13:23, 11 जून 2015 के समय का अवतरण

रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय।
पसु खर खात सवादसों, गुर गुलियाए खाय॥241॥

रहिमन रिस को छाँड़ि कै, करौ गरीबी भेस।
मीठो बोलो नै चलो, सबै तुम्‍हारो देस।1242॥

रहिमन रिस सहि तजत नहीं, बड़े प्रीति की पौरि।
मूकन मारत आवई, नींद बिचारी दौरी॥243॥

रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
भीति आप पै डारि कै, सबै पियावै तोय॥244॥

रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय।
राग सुनत पय पिअत हू, साँप सहज धरि खाय॥245॥

रहिमन वहाँ न जाइये, जहाँ कपट को हेत।
हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत॥2461।

रहिमन वित्‍त अधर्म को, जरत न लागै बार।
चोरी करी होरी रची, भई तनिक में छार॥247॥

रहिमन विद्या बुद्धि नहिं, नहीं धरम, जस, दान।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिनु पूँछ बिषान॥248॥

रहिमन बिपदाहू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥249॥

रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं॥250॥

रहिमन सीधी चाल सों, प्‍यादा होत वजीर।
फरजी साह न हुइ सकै, गति टेढ़ी तासीर॥251॥

रहिमन सुधि सबतें भली, लगै जो बारंबार।
बिछुरे मानुष फिरि मिलें, यहै जान अवतार॥252॥

रहिमन सो न कछू गनै, जासों, लागे नैन।
सहि के सोच बेसाहियो, गयो हाथ को चैन॥253॥

राम नाम जान्‍यो नहीं, भइ पूजा में हानि।
कहि रहीम क्‍यों मानिहैं, जम के किंकर कानि॥254॥

राम नाम जान्‍यो नहीं, जान्‍यो सदा उपाधि।
कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गँवायो बादि॥255॥

रीति प्रीति सब सों भली, बैर न हित मित गोत।
रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत॥256॥

रूप, कथा, पद, चारु, पट, कंचन, दोहा, लाल।
ज्‍यों ज्‍यों निरखत सूक्ष्‍मगति, मोल रहीम बिसाल॥257॥

रूप बिलोकि रहीम तहँ, जहँ जहँ मन लगि जाय।
थाके ताकहिं आप बहु, लेत छौड़ाय छोड़ाय॥258॥

रोल बिगाड़े राज नै, मोल बिगाड़े माल।
सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल॥259॥

लालन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माँहिं।
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं॥260॥

लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन।
पद कर काटि बनारसी, पहुँचे मगरु स्‍थान॥261॥

लोहे की न लोहार का, रहिमन कही विचार।
जो हनि मारे सीस में, ताही की तलवार॥262॥

बरु रहीम कानन भलो, बास करिय फल भोग।
बंधु मध्‍य धनहीन ह्वै बसिबो उचित न योग॥263॥

बहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत।
घटत घटत रहिमन घटै, ज्‍यों कर लीन्‍हें रेत॥264॥

बिधना यह जिय जानि कै, सेसहि दिये न कान।
धरा मेरु सब डोलि हैं, तानसेन के तान॥265॥

बिरह रूप धन तम भयो, अवधि आस उद्योत।
ज्‍यों रहीम भादों निसा, चमकि जात खद्योत॥266॥

वे रहीम नर धन्‍य हैं, पर उपकारी अंग।
बाँटनेवारे को लगे, ज्‍यों मेंहदी को रंग॥267॥

सदा नगारा कूच का, बाजत आठों जाम।
रहिमन या जग आइ कै, को करि रहा मुकाम॥268॥

सब को सब कोऊ करै, कै सलाम कै राम।
हित रहीम तब जानिए, जब कछु अटकै काम॥269॥

सबै कहावै लसकरी, सब लसकर कहँ जाय।
रहिमन सेल्‍ह जोई सहै, सो जागीरैं खाय॥270॥

समय दसा कुल देखि कै, सबै करत सनमान।
रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान॥271॥

समय परे ओछे बचन, सब के सहै रहीम।
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम॥272॥

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछिताय॥273॥

समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक।
चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक॥274॥

सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम।
पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम॥275॥

सर सूखे पच्‍छी उड़ै, औरे सरन समाहिं।
दीन मीन बिन पच्‍छ के, कहु र‍हीम कहँ जाहिं॥276॥

स्‍वारथ रचन रहीम सब, औगुनहू जग माँहि।
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छाँहि॥277॥

स्‍वासह तुरिय उच्‍चरै, तिय है निहचल चित्‍त।
पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्‍त॥278॥

साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान।
रहिमन साँचै सूर को, बैरी करै बखान॥279॥

सौदा करो सो करि चलौ, रहिमन याही बाट।
फिर सौदा पैहो नहीं, दूरी जान है बाट॥280॥

संतत संपति जानि कै, सब को सब कुछ देत।
दीनबंधु बिनु दीन की, को रहीम सुधि लेत॥281॥

संपति भरम गँवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्‍यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं माहिं॥282॥

ससि की सीतल चाँदनी, सुंदर, सबहिं सुहाय।
लगे चोर चित में लटी, घटी रहीम मन आय॥283॥

ससि, सुकेस, साहस, सलिल, मान सनेह रहीम।
बढ़त बढ़त बढ़ि जात हैं, घटत घटत घटि सीम॥284॥

सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक।
रहिमन तेहि रबि को कहा, जो घटि लखै उलूक॥285॥

हरि रहीम ऐसी करी, ज्‍यों कमान सर पूर।
खैंचि अपनी ओर को, डारि दियो पुनि दूर॥286॥

हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर।
जब डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर॥287॥

हित रहीम इतऊ करै, जाकी जिती बिसात।
नहिं यह रहै न वह रहै, रहै कहन को बात॥288॥

होत कृपा जो बड़ेन की सो कदाचि घटि जाय।
तौ रहीम मरिबो भलो, यह दुख सहो न जाय॥289॥

होय न जाकी छाँह ढिग, फल रहीम अति दूर।
बढ़िहू सो बिनु काज ही, जैसे तार खजूर॥290॥

सोरठा

ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अँगार ज्‍यों।
तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै॥291॥

रहिमन कीन्‍हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं।
जिनके अगनित मीत, हमैं गीरबन को गनै॥292॥

रहिमन जग की रीति, मैं देख्‍यो रस ऊख में।
ताहू में परतीति, जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं॥293॥

जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में॥294॥

रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं॥295॥

रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्‍यों तिरै।
पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै॥296॥

रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु।
बरु विष देय, बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥297॥

बिंदु मों सिंधु समान को अचरज कासों कहै।
हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें॥298॥

चूल्‍हा दीन्‍हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो।
रहिमन उतरे पार, भर झोंकि सब भार में॥299॥