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जखन पूर्णिमेक साँझमे
चन्द्रमा भ’ गेल अछि छथि पीयर आ वक्रबक्रआब नहि फोलि क’ फोलिक’ राखूअप्पन मोनक दुआर ! हे स्वप्न-सम्भवा संभवा कामिनी,आब एहि घर आँगनमे आनागतक -आङनमे अनागतक प्रतीक्षाजुनि करू , जुनि करू...अहिपनक फूल-पात-लता बनि जाएतजायतगहुँमन साँपगहुमन साप,कोनो देवता नहि क’ सकताए सकताह अहाँक प्राण-रक्षापाबनिक रति पावनिक राति बीति जाएत जायत पूजा-विहीन !परिणय विहीनः-विहीन! ''(मिथिला मिहिर: 5.12.65)''
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