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"दुष्यन्त की प्रेम याचना / संतलाल करुण" के अवतरणों में अंतर

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मैं मील का पत्थर हूँ
+
अहो, मनोरथ-प्रिया!
ज़मीन में आधा गड़ा
+
नहीं तुम ग्रीष्म-ताप से तप्त
आधा ज़िन्दा, आधा मुर्दा
+
काम जो मुझे जलाता है
चल नहीं सकता
+
वही है किए तुम्हें संतप्त।
सिर्फ़ देख सकता हूँ
+
राहगीरों को आते-जाते ।
+
  
मैं कैसे चलूँ
+
आश्रम में है शान्ति
सड़क भटक जाए
+
किन्तु मेरा मन है आक्रान्त
मैं कैसे दौड़ूँ
+
यहाँ के वृक्ष तुम्हारे भ्रात
चौराहा दिशाएँ भूल जाए
+
लता-बेलों की सगी बहना
मेरी किस्म्त में गति कहाँ!
+
तभी हो नव मल्लिका समान
मैं दर निगोड़ा हूँ
+
मधुर यह रूप, मदिर ये नयन
बस एक जगह
+
दे गया मुझे नेत्र-निर्वाण।
निराश्रित ठूँठे गड़े रहना
+
मेरी नियति है ।
+
  
मील का पत्थर होना
+
यही समय है, यही घड़ी है
मुझे बहुत भारी पड़ा
+
गाढ़ रूप आलिंगन का प्रिय!
लोग सरपट चलते चले गए
+
कमल-सुवासित सुखद वायु
चढ़ गए ऊँची-ऊँची मंजिलें
+
मालिनी का तट, यह लताकुंज
मेरे एक इशारे पर
+
कितना अभीप्सु यह प्रांत
लेकिन ठहर गया समय
+
अभीप्सित है इसका एकांत
जैसे मर गया मेरे लिए
+
सुरक्षित यहाँ गहन मधुपान
मेरे मुर्दा गड़े पैरों में
+
जो कितनी तृषा बढ़ाता है
मेरी कोई मंजिल नहीं ।
+
मिलन का राग जगाता है।
  
मैं मील का पत्थर
+
हे, करभोरु! यही समय है
ऐसे नहीं बना
+
यही घड़ी है, छोड़ो भय
क्रूर बारूदों ने तोड़ा
+
कहो, कमलिनी के पत्ते से
अलग कर दिया मुझे
+
पंखा झलकर ठंडी-ठंडी हवा करूँ
मेरी हमज़मीन से
+
या कहो, तुम्हारे कमल सरिस
बेरहम हथौड़े पड़े तन-मन पर
+
इन लाल-लाल चरणों को
माथे पर इबारत डाल
+
अपनी गोद में रख कर
मुझे गाड़ दिया गया सरे-आम ।
+
जिस प्रकार सुख मिले दबाऊँ
 +
पृथु नितम्ब तक धीरे-धीरे।
  
मुझे हर मौसम ने पथराया
+
आज चन्द्र शीतल किरणों से
ठंडी, गर्मी, बरसात सब ने
+
अग्नि-बाण-सा गिरा रहा है
दिल बैठ गया
+
कामदेव फूलों को देखो
दिमाग सुन्न हो गया
+
वज्र-बाण-सा बना रहा है
ख़ून जम गया
+
खींच रहा है ज्यों कानों तक
मैं मील-मील होता गया
+
फेंक रहा है अनल निरंतर
सारे दुख-दर्द सहता रहा
+
छोड़ तुम्हारे चरण प्रिये!
मगर मेरे पथराए सिर पर
+
अब कहीं नहीं है शरण प्रिये!
किसी ने हाथ न रखा ।
+
  
मैं मील का पत्थर हूँ
+
हे पुष्पप्रिया! तुम अनाघ्रात
जहाँ थूक भी देते हैं
+
नख-चिह्न रहित किसलय-जैसी
लोग-बाग मुझ पर
+
ना बींधे गए रत्न सम हो
जहाँ उठा देते हैं टाँग
+
मैं देख रहा हूँ निर्निमेष
कुत्ते तक मेरे ऊपर
+
तुम ललित पदों की रचना हो
वहीं मेरे इशारे पर
+
रूप की राशि अनुपमा हो
अपनी राह तय करती निगाहें
+
भौंहें ऊपर उठी हुई हैं
मुझे सलाम करती हैं।
+
और मेरा अनुराग प्रकट में
 +
छलक रहा हर्षित कपोल पर।
 +
 
 +
दो शिरीष के पुष्प सुष्ठ
 +
मकरंद सहित डंठल वाले
 +
दोनों कानों में कर्णफूल-से
 +
सजे लटकते गालों तक
 +
अधरोष्ठ रस भरे बिम्बा फल
 +
खस का लेप उरोजों पर
 +
कमलपत्र आवरण वक्ष पर
 +
कमलनाल का कंगन ऊपर
 +
खींचता बार-बार है दृष्टि
 +
वक्ष का यह कर्षक विस्तार
 +
सहे कैसे यह वल्कल भार।
 +
 
 +
डाली-सी भुजाएँ हैं कोमल
 +
जैसे है हथेली रक्त कमल
 +
नयनों में हरिणी-सी चितवन
 +
अंगों में फूलों का यौवन
 +
गह्वर त्रिवली में तिरता है
 +
यह कैसा दृष्टि-विहार
 +
कुचों के बीच सुकोमल
 +
शरच्चंद्र-सा कमलनाल का हार।
 +
 
 +
आम्रवृक्ष पर चढ़ती है
 +
माधवी लता संगिनि होकर
 +
गिरती है रत्नाकर में ज्यों
 +
महानदी सर्वस्व लुटाकर
 +
वैसे प्रिय! अब भुजा खोल
 +
कर लो धारण वपुमान प्रखर
 +
प्रिय मुझे पिलाओ अधरामृत
 +
हो जाऊँ अमर पीकर छककर।
 +
 
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जैसे मृगशावक को हे, प्रिय!
 +
दोने में कमलिनी-पातों के
 +
निज कर से नीर पिलाती हो
 +
वैसे अधरोष्ठ पत्र करके
 +
सुरतोत्सव का ले सुरा-पात्र
 +
मधु-दान करो अंतर्मन से।
 +
 
 +
मैं बिंधा काम के बाणों से
 +
तुम समझ रही अन्यथा अभी
 +
जब झुकी सुराही अधरों पर
 +
फिर ना-नकार क्या बात रही!
 +
 
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हो गया आज जब प्रकट प्रेम
 +
जब प्रणय-प्रार्थना है समान
 +
हट गया बीच का पट सारा
 +
ना-नुकर का ये कैसा है स्वाँग!
 +
 
 +
राजभवन का चहल-पहल
 +
है कई वल्लभावों से शोभित
 +
किन्तु प्रिये! यह पृथ्वी
 +
और प्राणप्रिये! तुम ही दोनों
 +
कुल की मेरी प्रतिष्ठा हो।
 +
 
 +
छोड़ो भय, प्रिय! छोड़ो भय
 +
गुरु जन दोष नहीं मानेंगे
 +
पाया जब अनुराग परस्पर
 +
सम हृदयज्ञ का सम आकर्षण
 +
गन्धर्व विवाह कर लिया
 +
बहुत-सी कन्याओं ने
 +
फिर सहमति दे दी मात-पिता ने
 +
बंधु-बांधव, गुरुजन ने।
 +
 
 +
हे, कामसुधा! इसलिए
 +
नहीं अब छोड़ सकूँगा
 +
छककर क्षाम हुए बिन
 +
नहीं सुधे! अब नहीं, नहीं
 +
यह देह बहुत आकुल है
 +
जैसे भ्रमर पिया करते हैं
 +
इठलाते सुमनों का रस
 +
मदमाते हैं अधर तुम्हारे
 +
दया बहुत आती है इन पर
 +
पीना है अब कुसुम सरीखे
 +
इन अक्षत अधरों का मद
 +
पी-पीकर मदमत्त भ्रमर-सा
 +
भीतर तक धँस जाना है।
 
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05:27, 7 अगस्त 2015 के समय का अवतरण

अहो, मनोरथ-प्रिया!
नहीं तुम ग्रीष्म-ताप से तप्त
काम जो मुझे जलाता है
वही है किए तुम्हें संतप्त।

आश्रम में है शान्ति
किन्तु मेरा मन है आक्रान्त
यहाँ के वृक्ष तुम्हारे भ्रात
लता-बेलों की सगी बहना
तभी हो नव मल्लिका समान
मधुर यह रूप, मदिर ये नयन
दे गया मुझे नेत्र-निर्वाण।

यही समय है, यही घड़ी है
गाढ़ रूप आलिंगन का प्रिय!
कमल-सुवासित सुखद वायु
मालिनी का तट, यह लताकुंज
कितना अभीप्सु यह प्रांत
अभीप्सित है इसका एकांत
सुरक्षित यहाँ गहन मधुपान
जो कितनी तृषा बढ़ाता है
मिलन का राग जगाता है।

हे, करभोरु! यही समय है
यही घड़ी है, छोड़ो भय
कहो, कमलिनी के पत्ते से
पंखा झलकर ठंडी-ठंडी हवा करूँ
या कहो, तुम्हारे कमल सरिस
इन लाल-लाल चरणों को
अपनी गोद में रख कर
जिस प्रकार सुख मिले दबाऊँ
पृथु नितम्ब तक धीरे-धीरे।

आज चन्द्र शीतल किरणों से
अग्नि-बाण-सा गिरा रहा है
कामदेव फूलों को देखो
वज्र-बाण-सा बना रहा है
खींच रहा है ज्यों कानों तक
फेंक रहा है अनल निरंतर
छोड़ तुम्हारे चरण प्रिये!
अब कहीं नहीं है शरण प्रिये!

हे पुष्पप्रिया! तुम अनाघ्रात
नख-चिह्न रहित किसलय-जैसी
ना बींधे गए रत्न सम हो
मैं देख रहा हूँ निर्निमेष
तुम ललित पदों की रचना हो
रूप की राशि अनुपमा हो
भौंहें ऊपर उठी हुई हैं
और मेरा अनुराग प्रकट में
छलक रहा हर्षित कपोल पर।

दो शिरीष के पुष्प सुष्ठ
मकरंद सहित डंठल वाले
दोनों कानों में कर्णफूल-से
सजे लटकते गालों तक
अधरोष्ठ रस भरे बिम्बा फल
खस का लेप उरोजों पर
कमलपत्र आवरण वक्ष पर
कमलनाल का कंगन ऊपर
खींचता बार-बार है दृष्टि
वक्ष का यह कर्षक विस्तार
सहे कैसे यह वल्कल भार।

डाली-सी भुजाएँ हैं कोमल
जैसे है हथेली रक्त कमल
नयनों में हरिणी-सी चितवन
अंगों में फूलों का यौवन
गह्वर त्रिवली में तिरता है
यह कैसा दृष्टि-विहार
कुचों के बीच सुकोमल
शरच्चंद्र-सा कमलनाल का हार।

आम्रवृक्ष पर चढ़ती है
माधवी लता संगिनि होकर
गिरती है रत्नाकर में ज्यों
महानदी सर्वस्व लुटाकर
वैसे प्रिय! अब भुजा खोल
कर लो धारण वपुमान प्रखर
प्रिय मुझे पिलाओ अधरामृत
हो जाऊँ अमर पीकर छककर।

जैसे मृगशावक को हे, प्रिय!
दोने में कमलिनी-पातों के
निज कर से नीर पिलाती हो
वैसे अधरोष्ठ पत्र करके
सुरतोत्सव का ले सुरा-पात्र
मधु-दान करो अंतर्मन से।

मैं बिंधा काम के बाणों से
तुम समझ रही अन्यथा अभी
जब झुकी सुराही अधरों पर
फिर ना-नकार क्या बात रही!

हो गया आज जब प्रकट प्रेम
जब प्रणय-प्रार्थना है समान
हट गया बीच का पट सारा
ना-नुकर का ये कैसा है स्वाँग!

राजभवन का चहल-पहल
है कई वल्लभावों से शोभित
किन्तु प्रिये! यह पृथ्वी
और प्राणप्रिये! तुम ही दोनों
कुल की मेरी प्रतिष्ठा हो।

छोड़ो भय, प्रिय! छोड़ो भय
गुरु जन दोष नहीं मानेंगे
पाया जब अनुराग परस्पर
सम हृदयज्ञ का सम आकर्षण
गन्धर्व विवाह कर लिया
बहुत-सी कन्याओं ने
फिर सहमति दे दी मात-पिता ने
बंधु-बांधव, गुरुजन ने।

हे, कामसुधा! इसलिए
नहीं अब छोड़ सकूँगा
छककर क्षाम हुए बिन
नहीं सुधे! अब नहीं, नहीं
यह देह बहुत आकुल है
जैसे भ्रमर पिया करते हैं
इठलाते सुमनों का रस
मदमाते हैं अधर तुम्हारे
दया बहुत आती है इन पर
पीना है अब कुसुम सरीखे
इन अक्षत अधरों का मद
पी-पीकर मदमत्त भ्रमर-सा
भीतर तक धँस जाना है।