भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"यदि होता किन्नर नरेश मैं / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatBaalKavita}}
 
{{KKCatBaalKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता,
+
यदि होता किन्नर नरेश मैं
सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।
+
राज महल में रहता,
 +
सोने का सिंहासन होता
 +
सिर पर मुकुट चमकता।
  
बंदी जन गुण गाते रहते, दरवाजे पर मेरे,
+
बंदी जन गुण गाते रहते
प्रतिदिन नौबत बजती रहती, संध्या और सवेरे।
+
दरवाजे पर मेरे,
 +
प्रतिदिन नौबत बजती रहती
 +
संध्या और सवेरे।
  
मेरे वन में सिह घूमते, मोर नाचते आँगन,
+
मेरे वन में सिंह घूमते
मेरे बागों में कोयलिया, बरसाती मधु रस-कण।
+
मोर नाचते आँगन;
 +
मेरे बागों में कोयलिया
 +
बरसाती मधु रस-कण।
  
यदि होता किन्नर नरेश मैं, शाही वस्त्र पहनकर,
+
मेरे तालाबों में खिलती
हीरे, पन्ने, मोती माणिक, मणियों से सजधज कर।
+
कमल-दलों की पाँती;
 +
बहुरंगी मछलियाँ तैरती
 +
तिरछे पर चमकातीं।
  
बाँध खडग तलवार, सात घोड़ों के रथ पर चढ़ता,
+
यदि होता किन्नर नरेश मैं
बड़े सवेरे ही किन्नर के राजमार्ग पर चलता।
+
शाही वस्त्र पहनकर;
 +
हीरे, पन्ने, मोती, माणिक-
 +
मणियों से सज धज कर,
  
राज महल से धीमे-धीमे, आती देख सवारी,
+
बाँध खड्ग तलवार सात
रूक जाते पथ, दर्शन करने प्रजा उमड़ती सारी।
+
घोड़ों के रथ पर चढ़ता;
 +
बड़े सवेरे ही किन्नर के
 +
राजमार्ग पर चलता।
  
जय किन्नर नरेश की जय हो, के नारे लग जाते,
+
राजमहल से धीमे-धीमे
हर्षित होकर मुझ पर सारे, लोग फूल बरसाते।
+
आती देख सवारी;
 +
रुक जाते पथ, दर्शन करने
 +
प्रजा उमड़ती सारी।
  
सूरज के रथ-सा, मेरा रथ आगे बढ़ता जाता,
+
‘जय किन्नर नरेश की जय हो’
बड़े गर्व से अपना वैभव, निरख-निरख सुख पाता।  
+
के नारे लग जाते;
 +
हर्षित होकर मुझ पर सारे
 +
लोग फूल बरसाते।
 +
 
 +
सूरज के रथ-सा मेरा रथ
 +
आगे बढ़ता जाता;
 +
बड़े गर्व से अपना वैभव
 +
निरख-निरख सुख पाता।
 +
 
 +
तब लगता मेरी ही हैं ये
 +
शीतल, मंद हवाएँ;
 +
झरते हुए दूधिया झरने
 +
इठलाती सरिताएँ।
 +
 
 +
हिम से ढकी हुई चाँदी-सी
 +
पर्वत की मालाएँ;
 +
फेन रहित सागर, उसकी
 +
लहरें करतीं क्रीड़ाएँ।
 +
 
 +
दिवस सुनहरे, रात रुपहली
 +
ऊषा-साँझ की लाली;
 +
छन-छनकर पत्तों से बुनती
 +
हुई चाँदनी जाली!
 
</poem>
 
</poem>

14:15, 21 सितम्बर 2015 के समय का अवतरण

यदि होता किन्नर नरेश मैं
राज महल में रहता,
सोने का सिंहासन होता
सिर पर मुकुट चमकता।

बंदी जन गुण गाते रहते
दरवाजे पर मेरे,
प्रतिदिन नौबत बजती रहती
संध्या और सवेरे।

मेरे वन में सिंह घूमते
मोर नाचते आँगन;
मेरे बागों में कोयलिया
बरसाती मधु रस-कण।

मेरे तालाबों में खिलती
कमल-दलों की पाँती;
बहुरंगी मछलियाँ तैरती
तिरछे पर चमकातीं।

यदि होता किन्नर नरेश मैं
शाही वस्त्र पहनकर;
हीरे, पन्ने, मोती, माणिक-
मणियों से सज धज कर,

बाँध खड्ग तलवार सात
घोड़ों के रथ पर चढ़ता;
बड़े सवेरे ही किन्नर के
राजमार्ग पर चलता।

राजमहल से धीमे-धीमे
आती देख सवारी;
रुक जाते पथ, दर्शन करने
प्रजा उमड़ती सारी।

‘जय किन्नर नरेश की जय हो’
के नारे लग जाते;
हर्षित होकर मुझ पर सारे
लोग फूल बरसाते।

सूरज के रथ-सा मेरा रथ
आगे बढ़ता जाता;
बड़े गर्व से अपना वैभव
निरख-निरख सुख पाता।

तब लगता मेरी ही हैं ये
शीतल, मंद हवाएँ;
झरते हुए दूधिया झरने
इठलाती सरिताएँ।

हिम से ढकी हुई चाँदी-सी
पर्वत की मालाएँ;
फेन रहित सागर, उसकी
लहरें करतीं क्रीड़ाएँ।

दिवस सुनहरे, रात रुपहली
ऊषा-साँझ की लाली;
छन-छनकर पत्तों से बुनती
हुई चाँदनी जाली!