"यदि होता किन्नर नरेश मैं / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी" के अवतरणों में अंतर
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− | यदि होता किन्नर नरेश मैं | + | यदि होता किन्नर नरेश मैं |
− | सोने का सिंहासन होता | + | राज महल में रहता, |
+ | सोने का सिंहासन होता | ||
+ | सिर पर मुकुट चमकता। | ||
− | बंदी जन गुण गाते रहते | + | बंदी जन गुण गाते रहते |
− | प्रतिदिन नौबत बजती रहती | + | दरवाजे पर मेरे, |
+ | प्रतिदिन नौबत बजती रहती | ||
+ | संध्या और सवेरे। | ||
− | मेरे वन में | + | मेरे वन में सिंह घूमते |
− | मेरे बागों में कोयलिया | + | मोर नाचते आँगन; |
+ | मेरे बागों में कोयलिया | ||
+ | बरसाती मधु रस-कण। | ||
− | + | मेरे तालाबों में खिलती | |
− | + | कमल-दलों की पाँती; | |
+ | बहुरंगी मछलियाँ तैरती | ||
+ | तिरछे पर चमकातीं। | ||
− | + | यदि होता किन्नर नरेश मैं | |
− | + | शाही वस्त्र पहनकर; | |
+ | हीरे, पन्ने, मोती, माणिक- | ||
+ | मणियों से सज धज कर, | ||
− | + | बाँध खड्ग तलवार सात | |
− | + | घोड़ों के रथ पर चढ़ता; | |
+ | बड़े सवेरे ही किन्नर के | ||
+ | राजमार्ग पर चलता। | ||
− | + | राजमहल से धीमे-धीमे | |
− | + | आती देख सवारी; | |
+ | रुक जाते पथ, दर्शन करने | ||
+ | प्रजा उमड़ती सारी। | ||
− | सूरज के रथ-सा | + | ‘जय किन्नर नरेश की जय हो’ |
− | बड़े गर्व से अपना वैभव | + | के नारे लग जाते; |
+ | हर्षित होकर मुझ पर सारे | ||
+ | लोग फूल बरसाते। | ||
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+ | सूरज के रथ-सा मेरा रथ | ||
+ | आगे बढ़ता जाता; | ||
+ | बड़े गर्व से अपना वैभव | ||
+ | निरख-निरख सुख पाता। | ||
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+ | तब लगता मेरी ही हैं ये | ||
+ | शीतल, मंद हवाएँ; | ||
+ | झरते हुए दूधिया झरने | ||
+ | इठलाती सरिताएँ। | ||
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+ | हिम से ढकी हुई चाँदी-सी | ||
+ | पर्वत की मालाएँ; | ||
+ | फेन रहित सागर, उसकी | ||
+ | लहरें करतीं क्रीड़ाएँ। | ||
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+ | दिवस सुनहरे, रात रुपहली | ||
+ | ऊषा-साँझ की लाली; | ||
+ | छन-छनकर पत्तों से बुनती | ||
+ | हुई चाँदनी जाली! | ||
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14:15, 21 सितम्बर 2015 के समय का अवतरण
यदि होता किन्नर नरेश मैं
राज महल में रहता,
सोने का सिंहासन होता
सिर पर मुकुट चमकता।
बंदी जन गुण गाते रहते
दरवाजे पर मेरे,
प्रतिदिन नौबत बजती रहती
संध्या और सवेरे।
मेरे वन में सिंह घूमते
मोर नाचते आँगन;
मेरे बागों में कोयलिया
बरसाती मधु रस-कण।
मेरे तालाबों में खिलती
कमल-दलों की पाँती;
बहुरंगी मछलियाँ तैरती
तिरछे पर चमकातीं।
यदि होता किन्नर नरेश मैं
शाही वस्त्र पहनकर;
हीरे, पन्ने, मोती, माणिक-
मणियों से सज धज कर,
बाँध खड्ग तलवार सात
घोड़ों के रथ पर चढ़ता;
बड़े सवेरे ही किन्नर के
राजमार्ग पर चलता।
राजमहल से धीमे-धीमे
आती देख सवारी;
रुक जाते पथ, दर्शन करने
प्रजा उमड़ती सारी।
‘जय किन्नर नरेश की जय हो’
के नारे लग जाते;
हर्षित होकर मुझ पर सारे
लोग फूल बरसाते।
सूरज के रथ-सा मेरा रथ
आगे बढ़ता जाता;
बड़े गर्व से अपना वैभव
निरख-निरख सुख पाता।
तब लगता मेरी ही हैं ये
शीतल, मंद हवाएँ;
झरते हुए दूधिया झरने
इठलाती सरिताएँ।
हिम से ढकी हुई चाँदी-सी
पर्वत की मालाएँ;
फेन रहित सागर, उसकी
लहरें करतीं क्रीड़ाएँ।
दिवस सुनहरे, रात रुपहली
ऊषा-साँझ की लाली;
छन-छनकर पत्तों से बुनती
हुई चाँदनी जाली!