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20:13, 14 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण
कुछ इस तरह से हमने जवानी तबाह की
जिसने सुना उसी ने बहुत वाह वाह की
नेकी ने पाल पोस के जिसको जवाँ किया
वो हुस्न हो गया है अमानत गुनाह के
यूँ ज़िन्दगी के बोझ से काँधे छिले रहे
ढोई है जैसे पालकी आलमपनाह की
ऐसा भी वक़्त था कोई छोटा बड़ा न था
वो रौशनी किसी ने तो आख़िर सियाह की
वो हुस्न जैसे हो कोई शायर की ग़ज़ल
वो नाज़ जैसे ज़िद हो किसी बादशाह की