भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप / ज़ाहिद अबरोल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
[[Category:ग़ज़ल]] | [[Category:ग़ज़ल]] | ||
− | < | + | <poem> |
सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप | सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप | ||
अपनी हद से आगे बढ़ कर अपना आप गँवाए धूप | अपनी हद से आगे बढ़ कर अपना आप गँवाए धूप | ||
पंक्ति 25: | पंक्ति 25: | ||
{{KKMeaning}} | {{KKMeaning}} | ||
− | <poem> | + | </poem> |
23:10, 17 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण
सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप
अपनी हद से आगे बढ़ कर अपना आप गँवाए धूप
दिन भर तो घर के आँगन में सपने बुनती रहती है
बैठ के साँझ की डोली में फिर देस पिया के जाए धूप
जो डसता है अक्सर उसको दूध पिलाया जाता है
कैसी बेहिस<ref>अनुभूति शून्य, निस्पृह, चेतना शून्य</ref> दुनिया है यह छाँव के ही गुन गाए धूप
तेरे शह्र में अबके रंगीं चश्मा पहन के आए हम
दिल डरता है फिर न कहीं इन आँखों को डस जाए धूप
रोज़ तुम्हारी याद का सूरज ख़ून के आँसू रोता है
रोज़ किसी शब<ref>रात</ref> की गदराई बाहों में खो जाए धूप
जिन के ज़िह्न<ref>मस्तिष्क</ref>मुक़्य्यद<ref>क़ैद</ref> हैं और दिल के सब दरवाज़े बन्द
‘ज़ाहिद’ उन तारीक<ref>अँधेरे</ref> घरों तक कोई तो पहुँचाए धूप
शब्दार्थ
<references/>