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21:44, 6 फ़रवरी 2008 का अवतरण
सुबह रो रो के शाम होती है
शब तड़प कर तमाम होती है
सामने चश्म-ए-मस्त के साक़ी
किस को परवाह-ए-जाम होती है
कोई ग़ुन्चा खिला के बुल-बुल को
बेकली ज़र-ए-दाम होती है
हम जो कहते हैं कुछ इशारों से
ये ख़ता ला-कलाम होती है