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"सड़क की छाती पर चिपकी ज़िन्दगी १७ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर

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तितलियों ने ˆत्याग दिए रंगीन पंख
गौरय्या ने बेहिचक सौंप दी अपनी उड़ान
नन्ही सी गुडिय़ा ने एकदम से छोड़ दी रंगीन पेंसिल
आहत समय के ƒघाव को सहला रहीं मक्खियाँ

हम एक ƒघोषणा-प˜त्र लिख रहे
एक आवाज़ हो रहे हम बेरहम
समय के भरोसे टिका Œप्यार रेत की दीवार हो रहा
पंचायतें पेड़ों के नीचे चिता जलाये बैठी हैं
छुरियों पर, रेती गईं गर्दनों की आखिरी हिचकी है

इतने काले समय में हम मरने से बदतर जी रहे
प्रेम अलविदा कहता हुआ
दो टूक धरती की छाती में समा जाना चाहता है
मोमबत्तियों में जलाये जायेंगे धरे हुए प्रेम-प˜त्र
आखिरी बार रौशनी देखेगी धरती
फिर राख हो जायेगी

हम सबने कर दिए हस्ताक्षर
तुम फैसले सुनाना।