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"सड़क की छाती पर चिपकी ज़िन्दगी १७ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर

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15:18, 21 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण

तितलियों ने ˆत्याग दिए रंगीन पंख
गौरय्या ने बेहिचक सौंप दी अपनी उड़ान
नन्ही सी गुडिय़ा ने एकदम से छोड़ दी रंगीन पेंसिल
आहत समय के ƒघाव को सहला रहीं मक्खियाँ

हम एक ƒघोषणा-प˜त्र लिख रहे
एक आवाज़ हो रहे हम बेरहम
समय के भरोसे टिका Œप्यार रेत की दीवार हो रहा
पंचायतें पेड़ों के नीचे चिता जलाये बैठी हैं
छुरियों पर, रेती गईं गर्दनों की आखिरी हिचकी है

इतने काले समय में हम मरने से बदतर जी रहे
प्रेम अलविदा कहता हुआ
दो टूक धरती की छाती में समा जाना चाहता है
मोमबत्तियों में जलाये जायेंगे धरे हुए प्रेम-प˜त्र
आखिरी बार रौशनी देखेगी धरती
फिर राख हो जायेगी

हम सबने कर दिए हस्ताक्षर
तुम फैसले सुनाना।