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"समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का / अकबर इलाहाबादी" के अवतरणों में अंतर
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14:18, 10 मई 2008 का अवतरण
समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का
'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का
गर शैख़ो-बहरमन सुनें अफ़साना किसी का
माबद न रहे काब-ओ-बुतख़ाना किसी का
अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चांद-सी सूरत
रौशन भी करो जाके सियहख़ाना किसी का
अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़ नींद के साहब
ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का
इशरत जो नहीं आती मिरे दिल में, न आए
हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का
करने जो नहीं देते बयाँ हालते-दिल को
सुनिएगा लबे-ग़ौर से अफ़साना किसी का
कोई न हुआ रूह का साथी दमे-आख़िर
काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का
हम जान से बेज़ार रहा करते हैं 'अकबर'
जब से दिले-बेताब है दीवाना किसी का