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निग़ाहे शौक है हिन्दी जुबाँ में

सुख़न मुश्ताक आलम आज भी है

महाकवि रोज़ पैदा हो रहे हैं

ग़नीमत ख़त्म होती जा रही है


कौम बोली कि नदीदा है मुआ ये नौशा

आँख मारे है सरे बज़्म उठाकर सेहरा ।