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"है मुस्कुराता फूल कैसे तितलियों से पूछ लो / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
 
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है मुस्कुराता फूल कैसे तितलियों से पूछ लो
 
है मुस्कुराता फूल कैसे तितलियों से पूछ लो
जो बीतती काँटों पे है, वो टहनियों से पूछ लो  
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जो बीतती काँटों पे है, वो टहनियों से पूछ लो
  
लिखती हैं क्या किस्से कलाई की खनकती चूडि़याँ  
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लिखती हैं क्या क़िस्से कलाई की खनकती चूडि़याँ  
सीमाओं पे जाती हैं जो उन चिट्ठियों से पूछ लो  
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जो सरहदों पर जाती हैं, उन चिट्ठियों से पूछ लो
  
 
होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अब के आम में
 
होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अब के आम में
छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो  
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छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो
  
होती हैं इनकी बेटियाँ कैसे बड़ी रह कर परे
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जो सुन सको क़िस्सा थके इस शह्‍र के हर दर्द का
दिन-रात इन मुस्तैद सीमा-प्रहरियों से पूछ लो
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सड़कों पे फैली रात की ख़ामोशियों से पूछ लो
 
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जो सुन सको किस्सा थके इस शह्‍र के हर दर्द का
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सड़कों पे फैली रात की ख़ामोशियों से पूछ लो  
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लौटा नहीं है काम से बेटा, तो माँ के हाल को
 
लौटा नहीं है काम से बेटा, तो माँ के हाल को
खिड़की से रह-रह झाँकती बेचैनियों से पूछ लो  
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खिड़की से रह-रह झाँकती बेचैनियों से पूछ लो
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गहरी गईं कितनी जड़ें तब जाके क़द ऊंचा हुआ
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आकाश छूने की कहानी फुनगियों से पूछ लो
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होती हैं इनकी बेटियां कैसे बड़ी रह कर परे
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दिन-रात इन मुस्तैद सीमा-प्रहरियों से पूछ लो
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लब सी लिये सबने यहाँ, सच जानना है गर तुम्‍हें
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ख़ामोश आँखों में दबी चिंगारियों से पूछ लो
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गहरी गईं कितनी जड़ें तब जाके क़द ऊँचा हुआ
 
आकाश छूने की कहानी फुनगियों से पूछ लो
 
  
लब सी लिए सबने यहाँ, सच जानना है गर तुम्हें
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(बया अप्रैल-जून 2013, जनपथ दिसम्बर 2013, समावर्तन जुलाई 2014 "रेखांकित)
ख़ामोश आँखों में दबी चिंगारियों से पूछ लो
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18:40, 7 मार्च 2016 के समय का अवतरण

है मुस्कुराता फूल कैसे तितलियों से पूछ लो
जो बीतती काँटों पे है, वो टहनियों से पूछ लो

लिखती हैं क्या क़िस्से कलाई की खनकती चूडि़याँ
जो सरहदों पर जाती हैं, उन चिट्ठियों से पूछ लो

होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अब के आम में
छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो

जो सुन सको क़िस्सा थके इस शह्‍र के हर दर्द का
सड़कों पे फैली रात की ख़ामोशियों से पूछ लो

लौटा नहीं है काम से बेटा, तो माँ के हाल को
खिड़की से रह-रह झाँकती बेचैनियों से पूछ लो

गहरी गईं कितनी जड़ें तब जाके क़द ऊंचा हुआ
आकाश छूने की कहानी फुनगियों से पूछ लो

होती हैं इनकी बेटियां कैसे बड़ी रह कर परे
दिन-रात इन मुस्तैद सीमा-प्रहरियों से पूछ लो

लब सी लिये सबने यहाँ, सच जानना है गर तुम्‍हें
ख़ामोश आँखों में दबी चिंगारियों से पूछ लो






(बया अप्रैल-जून 2013, जनपथ दिसम्बर 2013, समावर्तन जुलाई 2014 "रेखांकित)