"श्रम की महिमा / भवानीप्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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तुम काग़ज़ पर लिखते हो | तुम काग़ज़ पर लिखते हो | ||
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तुम व्यापारी | तुम व्यापारी | ||
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एक आदमी घड़ी बनाता | एक आदमी घड़ी बनाता | ||
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और कपास जुलाहों के जैसा ही | और कपास जुलाहों के जैसा ही | ||
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धुनते थे | धुनते थे | ||
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चुनते थे अनाज के कंकर | चुनते थे अनाज के कंकर | ||
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चक्की पिसते थे | चक्की पिसते थे | ||
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आश्रम के अनाज याने | आश्रम के अनाज याने | ||
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आश्रम में पिसते थे | आश्रम में पिसते थे | ||
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जिल्द बाँध लेना पुस्तक की | जिल्द बाँध लेना पुस्तक की | ||
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उनको आता था | उनको आता था | ||
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भंगी-काम सफाई से | भंगी-काम सफाई से | ||
− | + | नित करना भाता था। | |
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ऐसे थे गाँधी जी | ऐसे थे गाँधी जी | ||
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ऐसा था उनका आश्रम | ऐसा था उनका आश्रम | ||
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गाँधी जी के लेखे | गाँधी जी के लेखे | ||
− | + | पूजा के समान था श्रम। | |
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एक बार उत्साह-ग्रस्त | एक बार उत्साह-ग्रस्त | ||
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कोई वकील साहब | कोई वकील साहब | ||
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जब पहुँचे मिलने | जब पहुँचे मिलने | ||
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बापूजी ने कहा - बैठिये | बापूजी ने कहा - बैठिये | ||
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पीसेंगे मिलकर | पीसेंगे मिलकर | ||
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जब वे झिझके | जब वे झिझके | ||
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गाँधीजी ने कहा | गाँधीजी ने कहा | ||
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और खिलकर | और खिलकर | ||
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सेवा का हर काम | सेवा का हर काम | ||
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हमारा ईश्वर है भाई | हमारा ईश्वर है भाई | ||
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बैठ गये वे दबसट में | बैठ गये वे दबसट में | ||
− | + | पर अक्ल नहीं आई। | |
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१९६९ | १९६९ | ||
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12:08, 12 मार्च 2016 के समय का अवतरण
तुम काग़ज़ पर लिखते हो
वह सड़क झाड़ता है
तुम व्यापारी
वह धरती में बीज गाड़ता है।
एक आदमी घड़ी बनाता
एक बनाता चप्पल
इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा
इसमें क्या बल।
सूत कातते थे गाँधी जी
कपड़ा बुनते थे,
और कपास जुलाहों के जैसा ही
धुनते थे
चुनते थे अनाज के कंकर
चक्की पिसते थे
आश्रम के अनाज याने
आश्रम में पिसते थे
जिल्द बाँध लेना पुस्तक की
उनको आता था
भंगी-काम सफाई से
नित करना भाता था।
ऐसे थे गाँधी जी
ऐसा था उनका आश्रम
गाँधी जी के लेखे
पूजा के समान था श्रम।
एक बार उत्साह-ग्रस्त
कोई वकील साहब
जब पहुँचे मिलने
बापूजी पीस रहे थे तब।
बापूजी ने कहा - बैठिये
पीसेंगे मिलकर
जब वे झिझके
गाँधीजी ने कहा
और खिलकर
सेवा का हर काम
हमारा ईश्वर है भाई
बैठ गये वे दबसट में
पर अक्ल नहीं आई।
१९६९