भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मारा हमें इस दौर की आसाँ-तलबी ने / ज़ाहिदा जेदी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाहिदा जेदी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> म...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
हेमंत जोशी (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
कुछ और थे इस दौर में जीने के करीने | कुछ और थे इस दौर में जीने के करीने | ||
− | हर जाम लहू-रंग था | + | हर जाम लहू-रंग था देखा ये सभी ने |
क्यूँ शीशा-ए-दिल चूर था पूछा न किसी ने | क्यूँ शीशा-ए-दिल चूर था पूछा न किसी ने | ||
14:52, 8 मई 2016 के समय का अवतरण
मारा हमें इस दौर की आसाँ-तलबी ने
कुछ और थे इस दौर में जीने के करीने
हर जाम लहू-रंग था देखा ये सभी ने
क्यूँ शीशा-ए-दिल चूर था पूछा न किसी ने
अब हल्क़ा-ए-गिर्दाब ही आग़ोश-ए-सुकूँ है
साहिल से बहुत दूर डुबोए हैं सफ़ीने
हर लम्हा-ए-ख़ामोश था इक दौर-ए-पुर-आशोब
गुज़रे हैं इसी तौर से साल और महीने
माज़ी के मज़ारो की तरफ़ सोच के बढ़ना
हो जाओगे मायूस न खो दो ये दफ़ीने
हर बज़्म-ए-सुख़न झूठे नगीनों की नुमाइश
सरताज-ए-सुख़न थे जो कहाँ है वो नगीने