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कर्मॅ के सोतॅ में बहलै अतीत
जना जगला पर सपना दहाय छै।
या, निर्मल झरना ने उद्गम के
गमगमियाँ फूलॅ के बिरवा ढहाय छै।
काम-राग अजबारलॅ मनॅ में जन्मै
छै जेना की सत्व-धर्म त्याग;
जेना की रस तेजलॅ बनकाठीं
जोगै छै, जग्गी के तेजवन्त आग।
जेना की दूबॅ के फुनगी पर ढरकै
छै मोती रं पूनम के चान।
कुछ वहिने राजाँ पहुँचाय छै
घर-घर में तीनों संतापॅ के त्राण।
सत्य-तेज सॅ चमकै जन-जन के
मुख मंडल; अर्थ-काम के उपरें धर्म।
कालखण्ड बीतै छै सबके उपकारॅ
में, जग-जूपन में रमलें कर्म।
हिमगिरि सें सागर तक पसरलॅ
राज-पाट, कोय नै छै दुखिया-मलीन।
हिंसक पशु छोड़ी दया-प्रेम-सरधा
में सम्भे छै डुबलॅ लौलीन।
एक समय बाघॅ केॅ बहियैने
बहियैने पहुँचलै गंगा के तीर,
छीन सोत देखी केॅ अतरज सें राजा के
मन होलै चिन्तित अति धीर।
”कैहने अक्षयनीरा दुबरैलै कारण की?“
भितरॅ सें उठलै निहसास,
तीर-तीर उपरॅ दिश दौड़ै लेॅ राजा ने;
मोड़लके घोड़वा के रास।
घोड़ा अड़लै;
राजाँ निरजार्स मूर्तिमान;
पिपनी भुललै खुद कर्म-ज्ञान
गोस्सा सें जलजल
वाल-अरुण तमकी-तमकी
जल प्रलयकाल के सोखै लेॅ
बानॅ पर छोड़ छै मानॅ
तानी केॅ लाख-करोड़ बाण!
केहुँवाँ गोराय अपरूप छवारिक बीर;
लटकै छै पीठी पर अक्षय तूणीर;
गंगा के धारा रुद्ध;
हाथ में लक-लक दिव्य कमान;
कन-कन आवेशित भार्गव-तरुण समान;
या कि
संकल्पित मन सें पवन-पुत्र
तन-तन जलनिधि के तीर-
हरै लेॅ दर्प, करै लेॅ पार।
तोर अंबार-स्तूप आकार!
विवश माथॅ धूनै सुरसरिं उगलै छै फेन
गिरै पछड़ी-पछड़ी लहरॅ-पर-लहर अचैन
उठै छै ज्वार-पर्वताकार;
फिरै हत-आहत-लज्जित
बन्द मुक्ति के द्वार!
टुटलै राजा के ध्यान
कि बिजली के गति सें
ऊ बालक अन्तर्ध्यान
समेटी इन्द्रजाल बिस्तार!
पलभर में गंगा के धारा उन्मुक्त
स्वरित कल-कल निनाद;
हरखित सुरसरि छै गत विषाद्।
आँखी में उगलै जह्नु-सुता के रूप
पुत्र के ख्याल;
बिसरैने छेलै कर्मॅ के बन में जेकरा
जुग सें कुछ बेसी काम!
राजा अधीर मन विकल प्राण,
एकाकीपन सें मिलॅे त्राण
‘गंगे! सुत साथें देॅ दर्शन।”
खोजलकै प्रेयसि में निदान।
गंगा के तोरें-तीरें
हंसिन धीरें-धीरें
चली भेलै हंसा के पास हे!
जहाँ पिय विह्वल
वेकल पल-पल।
छल-छल नयन उदास हे!
पिरीती के डोरी
अजर पटोरी,
अभरन सोलहो सिंगार हे!
ठाढ़ी भेलै सनमुख
मानॅ रूप धरौ सुख
सेलज दुखिया दुआर हे!
साथ छवारिक
तरुण अरुण मुख
चान-अगिन केरॅ सार हे!
पहिरन-भूषण
राजकुमर सन
चक्-चक् नयन उदार हे!
तून सरासन
पुष्ट निडर तन
उन्मन सिंह किशोर हे!
बीर निहारी
अमिट चिन्हारी,
नृप-चित अतरज-भोर हे!
”कर्त्तव्य सभे पूरा माता के,
पूत कुशल; राजाधिराज!
सब शास्त्र, शस्त्र; विज्ञान कर्म के ज्ञाता,
गुरुवर वशिष्ट सें जानलकै सब वेद,
छवो वेदांग सहित;
छै शुक्र-नीति में निपुण,
भरत कुल-त्राता!
नै जानलकै हार कभी के कर्हौ सें
जमदग्नि-पुत्र वै परशुराम के
अस्त्र-ज्ञान धारै छै;
कंठॅ में छै सुरगुरू आंगिरस वृहस्पति के विद्या;
एकरा देखी अन्यायें पथ बारै छै।
बेटा देवव्रत नाम;
धुरंधर राजधर्म के जानकार
अर्पै छीं तोरा आय लगन शुभ दिन में;
लेने जा एकरा राज भवन अपना साथें-“
बोली केॅ गंगा
गेलै कहीं विलाय तुरत निर्जन में।