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03:09, 12 मई 2016 के समय का अवतरण
दूर छितिज पर उतरी ऐलै मूँ लटकैने साँझ,
परत-परत वेदना बिथरलै बन-पर्वत-घाटी में।
राजा के आँखी में उगलै वै आँखी के डोर;
हिय समाद चुपचाप कही जे डबडबाय केॅ डुबलै।
जे आँखीं शीतलता साथें चानॅ के मुस्कान,
बसलॅ छेलै मह-मह कुमुद पंखुड़ो के छाया में।
झलकै छेलै खुशमिजाज झरना के निर्मल फेन;
सामगान सें थकी थिरैलॅ उषा किरण ओढ़ो केॅ।
वै आँखी के हँसी हरलकै रची प्रेम के स्वांग,
खुद राजा ने बिना समझने परबसता जिनगी के।
एक सरल जीवन केॅ देॅ देलकै काँटा के दान;
जीना कठिन बनी गेलै वै निर्दोषी सुखिया के।
छेलै जोरॅ सीपी में, सौंसे नीला आकाश,
अट्टट एक विजन छोड़ी केॅ आरो जे में कुछ नं।
शान्त झील नाखीं छेलै पाबो केॅ निपट निरोत;
झंझावात बनो गेलै खुद राजा के कट्ठरता।
लोर पोछबॅ जे जिनगी के जिनगी भर के काम,
वहेॅ निमित्त बनी गेलै खुद जिनगीभर लोरॅ के।
भूल कचोटै रही-रही केॅ, उमड़ै अमिट गरान;
राजा के असहाय मने दोषी मानै अपना केॅ।
निष्फल हौलै कर्म-साधना जिनगी भर के आय,
बौंकडॅ काँटॅ रं पछतावा कसकै गहराई में।
गहन अन्हारॅ में टकटोरै राजाँ कोय उपाय;
बिना आँख वालॉ खोजै जेना छुटलॅ लाठी केॅ।
स्वच्छ नील यमुना के जलपर हौ कोमल दृगपात,
झर-झर उजरै हँसी पसरवॅ ठोरॅ के लालौ पर।
एक-एक केॅ याद करै राजा ने सबटा बात,
सहज सरल भावॅ सें नटवॅ आँखी में मुस्की केॅ।
”कारण की कारनी बनी राजाँ लेलकै घरबास,
रोज-रोज के दूर-दूर के यात्रा-क्रम ताड़ो केॅ?
कहाँ परहलै बतियाबै के भरखर सहज हुलास;
के सोंखी लेलकै निश्छल-निर्मल नेहॅ के झरना?”
छगुनै रही-रही युवराजें तरह-तरह के बात,
छटपट-छटपट मॅन पिता के खुशियाली लानै लेॅ।
”ओझरॅ सोझराबै के खातिर खोजॅ पड़तै छोर,
जानेॅ पड़तै कारण पैहने कारण दूर करै के।“
ठानी केॅ मन में कुछ, सत्यव्रती राजा के पास,
जाय पहुँचलै सोझे वामन के तीने डेगॅ में।
दण्ड प्रणाम करी केॅ कुछ पल के लेली चुपचाप,
सट्टी केॅ बैठी गेलै युवराज विषन्न पिता लग।
”नीति कहै छै राजा ने अपना सें बेसी सोच,
राखै छै परजा के सुख के, सुविधा-खुशहाली के।
जबेॅ, प्रजा छै सुख सें सगरी खुशहाली के राज;
तब समझ में नै आबै छै कारण की चिन्ता के?
हाहाकार मनॅ में कैहनॅ? की कोनो अन्याय,
देखो केॅ अपना सें बरि´ॅ कट्ठर अन्यायी के।
या, असहाय दुखी जन के देखी केॅ दुर्जय पीर,
उठलै हूक दया के, जिनगी केॅ बेरथ मानी केॅ?
धिक् वै बेटा केॅ जें ताकै छै टुक-टुक चुपचाप,
बापॅ के मूँ मुरझैलॅ दबलॅ पीड़ा भारॅ सें।
नै तेजै के वै कुल केॅ कखनू गौरव-अभिमान;
जेकरा बेटा छै कर्मण्य, भरोसॅ न छोड़ के।
जों अन्याय खिलाफ ठनतै जमराझौ सें युद्ध,
राखें तों विश्वास तनिक नै हम्में पोछू हँटबै।
सहज ढिठाई देने छॅ ताहीं ढारी केॅ नेह;
करिहॅ छमा, वही सें प्रश्न मनॅ के राखी देलिहौं।”
”जिनगी घूमै छै बिड़म्बना-चाकॅ पर अविराम,
कौने जानै छै केकरॅ भागॅ में की लिखलॅ छै।
राजा हुवॅ, हुवॅ साधारण मनुख, हुवॅ की रंक;
होनी करै हरान सभै केॅ बेघाटें फांसी केॅ।
जेना सुरजॅ के ऐलें चिन्ता अन्हार के दूर,
प्रजा-दुखॅ के वहिना तोरा ऐला सें होलॅ छै।
तोरा रहतें यै राजॅ में के करतै अन्याय?
अटल भरोसॅ बन्हलॅ छेॅ मन में हुमरा शुरुचे सें।
तय्यो सहज सुभाव पिता के दुर्बल हृदय अधीर,
पुत्र-भविष्यत् के चिन्ता में आकुल तेॅ रहथै छै।
निष्कंटक तोरॅ भविष्य बस बनलॅ रहॅे सदाय;
यहेॅ एक चिन्ता जेकरा में दिन-रातीं डुबलॅ छीं।“
”कर्मॅ के अक्षरें लिखै छै व्यक्ति-व्यक्ति के भाग,
केना दोसरा के चिन्ताँ दोसरा के भाग बदलते?
वही व्यक्ति खुद कर्मॅ सें बदलॅे पारेॅ ऊ लेख;
इच्छा-क्रिया शक्ति दोनों संतुलित करी जे चलतै।
मन अनुकूल करै के चाहॅे कत्तो करेॅ उपाय,
पिताँ भाग्य संतानॅ केॅ कहियो नै दियेॅ सकै छेॅ।
प्राणी भोगै छै जिनगी भर खुद कर्मॅ के फॅल;
यही बासतें धरती पर सतकर्मॅ के महिमा छै।
युक्तियुक्त नै हसरा लेली चिन्तित होना आर्य!
साधेॅ दियै साधना खुद हमरा अपना जिनगी के।
देवव्रत पर एक बेर करियै एतना बिश्वास;
लड़ेॅ सकेॅ जे मौका पड़ने खुदे नियति के साथें।
भॉग सें बेसी पुरुषारथ-निष्ठा पर विश्वास,
राखी केॅ जिनगी के नैया पार करॅे चाहै छीं।
ध्यानॅ में ऊ आगिन जे में सारतत्व के बास;
पोषण वाली गाय जे तरफ घॅर बुझी केॅ दौड़े।
जहाँ सनातन युद्धॅ के घोड़ा समझी केॅ धॅर,
दु्रतगामी चालॅ सें पहुँचै टापें-टाप बढ़ी केॅ।
वहॅे अग्नि हमरॅ वरेण्य छै, पिता करॅ नै सोच;
जहाँ खेमतामय प्रचूरता जौरॅ छै ढेरी रं।“
राजा के मुँह पर छिटकी ऐलै फिक्कॅ मुस्कान,
चमकै छ जेना बिजली घनघोर अन्हरिया रातीं।
नै मिललै युबराजॅ केॅ शंका के कोय निदान;
निपट मौन ने झाँपी लेलकै फेरू सें राजा केॅ।
राज काज में निपुण तुरत युवराज पहुँचलै जाय,
बूढ़ा मंत्री सें पूछलकै-”बोलॅ-अनुमानॅ सें।
की कारण, जे महाराज छै गुम-सुम मौन-दास,
तर्कज्ञान, अनुभव के बलपर कुछ तेॅ सूत्र निकालॅ।“
”गंगा नन्दन! तों राजा के एकमात्र संतान,
अस्त्र-शस्त्र अभ्यासॅ में, पुरुषारथ में लौलीनॅ।
कुछ अघटन घटला सें होतै सौंसे कुल के नास,
येहो हुवेॅ सकै छै कारण राजा के चिन्ता के।
एक आँख नै आँख, बहॅे र एक पूत नै पूत,
आँख नशैने ऊ, पर पूत नशैने कुल नाशै छ।
शायद गड़लॅ छै राजा केॅ विद्वानॅ के बात-
एक मात्र संतान, तुल्य संतान हीनता के छै।
यही बासतें शायद मन में आरो एक विवाह,
के इच्छा तोरा प्रेमॅ में द्वन्द चली रहलॅ छे।
तर्कॅ सें आरो कोनों कारण नै होय छै सिद्ध;
महाराज के चिन्ता के, ये भितरी अकुलाहट के।“
मंत्री के ई बात सुनी नम्मा डेगें युवराज,
जाय पहुँचलॅ वहाँ सारथी रहै जहाँ राजा के
विनय करलकै-”साफ बताबॅ यात्रा के सब बात;
कोनी घटनाँ पूज्य पिता के मन के चैन हरलकै?“
योजनागंधा-सत्यवती यमुना तट मिलन-बिछोह,
के घटना, सारथीं कहलकै साफ-साफ खोली केॅ।
”लौटै बेरीं रथ घर्घर में डुबलॅ मौन-उदास;
राजा बिचरै दूर कहीं अपना सें बाहर छेलै।“
तैरै वाला केॅ मिलॅे किनारें जेना की,
खोजी चिन्तक केॅ चिर रहस्य के भान मिलॅे।
या, मिलेॅ जोतषी केॅ सुग नया सितारा के;
जेना की जिज्ञासू केॅ सूत्र महान मिलेॅ
या, मिलेॅ बिकलता केॅ वाँछित सांत्वना-डोर,
बेदम-निराश जीवन केॅ सब अरमान मिलेॅ।
या! जटिल समस्या के निदान पाबी गेने;
उद्धेलनमय मन केॅ पीड़ा सें त्राण मिलेॅ।
सारथी वचन सें कुछ वहिने हालत होलै,
युवराजॅ के, राजा-चिन्ता, अनुमानॅ स।
”बापॅ ेक खातिर खुशी बटोरॅे बेटा ऊ“
-डाकी उठलै संकल्प मनोमय प्राणॅ सं।