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बग-बग उजरॅ चन्द्रमाकार,
हस्तिनापुरी के सभागार;
सजलॅ-धजलॅ आसन-सिंहासन सुरुचिपूर्ण सोहॅ सें।
आगू केॅ केॅ धृत्त महराज,
साथॅ में बीरॅ के समाज,
ढुकलै जेना सिंहॅ के जेरॅ पर्वत के खोहॅ में।
गाँगेय द्रोण कृप बिदुर सोम,
अश्वत्थामा बाल्हिक पुलोम
कृतवर्मा युयू जयद्रथ बरियाँठॅ विकर्ण वीरें ने।
अपना-अपनी लेलकै आसन
पाबी बीरॅ के अनुशासन
मानॅ तरकश सें निकली, डोरी पर तनलॅ तीरें ने।
दुःशासन शकुनी दुसह कर्ण,
दुर्मुख उलूक सब एक वर्ण,
जुमलै आबी केॅ सभाबीच लै आगू दुर्योधन केॅ।
चौड़ा छाती पर रत्नहार,
साँढॅ रं पुट्ठा के उभार,
छै मिललॅ सुपट थमाल भरीसक वय के आरोहन केॅ।
लक-लक आँखीं झलका झलकै,
बिन मेघ सरङ मलका मलकै;
कुछ दमकी गेलै तेज छुवन पाबी राजा-राजा के।
जेना बिज्ली के छटका सें,
चौन्हराबै पुतरी झटका सें,
या मेघ-गर्जना में मद्धिम सरगम बाजा-गाजा के।
उपलव्य नगर सें सभागार,
संजय आबै के समाचार,
घोषणा करलकै महाराज रॅ आज्ञा के साथॅ में।
संजय पहुँची केॅ सभाबीच,
खडुवैलै राजा के नगीच,
चुपचाप करलकै सम्बोधन अभिवादन के हाथॅ सें।
संजय बतलाबॅ खोलो केॅ,
सब साफ-साफ सच बोली केॅ,
जे सें नै रहेॅ सभा में एक्को लोग छगुन्ता भ्रम में।
पाण्डव-शिविरॅ के सोच काम,
अर्जुन के, भीमॅ के तमाम,
की कारबार, की समचार देने छौं, की छै मन में“।
बोलो चुप भेलै महाराज,
उत्कंठित बीरॅ के समाज,
उपलव्य नगर के समाचार पर ध्यान गड़ैने तन्मय।
जोड़ी अतीत सें वर्त्तमान,
भक्तिव्य भविष्यत् सावधान,
आकलन करलकै पेश बेधड़क विज्ञ निडर मुख संजय-
”निङली गेलै छल-कपटें निर्मल भविष्य के आस,
उतरी गेलै कौरव पर लें पाण्डव के विश्वास।
युद्ध-समाँ उपलव्य नगर में मेघॅ र उमड़ै छै;
शंका छ अधिकार मिलै में पाण्डव आय हतास।
एक ओर छै यज्ञसेनि के फुर-फुर खुललॅ केश,
एक ओर दुख बनवासॅ के पीड़ामय परिवेश।
तय्यो झगड़ा केॅ अंतिम दम तक टारॅे चाहै छै;
यद्यपि एक विकल्प युद्ध ही मानै बचलॅ शेष।
लेकिन बॅे दिश सें न बजत प्रथम युद्ध के शंख,
जीयै के अधिकार मिलेॅ जों मिलेॅ प्रेममय अंक।
धर्मराजके अंकुश में सब भाय नरम दिल होत;
पिघली जतै भोम-फाल्गुनी के दिल निपट निसंख।
अभिवादन गुरुजन के लेली समबयस्क लेॅ प्यार,
यहेॅ समाद युधिष्ठिर के छै नीति-युक्त आचार।
चाहै छ बस मिलेॅ पहिलके रं अपनेती-नेह;
मिली-जुली के स्वाभिमान सें जीये के अधिकार।
अर्जुन ने संवाद कहलकै-जों दुर्योधन अड़तै,
युद्ध-घोषणा पर, तेॅ ओकरा पछताबै लेॅ पड़ते।
निश्चित नाश बुझी लेॅ कुल के बस एक्के परिणाम;
अभिमानॅ सें करलॅ निर्णय बारम्बार अखड़तै।
भाय झपटतै कुरुसेना पर पण्डुक पर बाझॅ रं,
हरिनॅ-जेरा पर भुखलॅ-तमसैलॅ मृगराजॅ रं।
बिना सोचलॅ युद्ध-घोषणा तखनी बनतै काल,
कठॅ में फँसलॅ पीड़ामय गरगट्टॅ लाझॅ रं।
धरतै जखनी महावली ने महाकाल के भेस,
सुन्न बनैतै कौरव दल केॅ कुछ नै रहतै शेष।
तखनी असकरुवा दुर्योधन मन में करत हक्कन;
रुण्ड-मुण्ड जखनी बिलगैतै पकड़ी-पकड़ी केश।
भीम परें वीरता कहलक नकुलॅ-सहदेवॅ के,
ब्रह्म पाशुपत अग्नि शिलामुख महिमा गाण्डावॅ के।
आरेा कत्तेॅ अस्त्र-शस्त्र जेकरॅ करने छ खोज;
नाग-यक्ष-गन्धर्व लोक के दानव के देवॅ के।
प्रक्षेपन-बल, प्रक्षेपक मारक छमता गति काम,
सबके परें कहलकै एक-एक के लेॅ केॅ नाम।
युद्धॅ में छुटला पर महाध्वंश के घटना घटतै;
मिटेॅ सक छॅे धरती पर कौरव के नाम-निशान।
चुप भेलै संजय बोली उपलव्य नगर के हाल,
युद्धॅ के परिणाम बुझो केॅ महाराज बेहाल।
”विदुर! बताबॅ की करना छे उचित नीति-धर्मॅ सें;
कोन बाट छै जे सें बदलेॅ कुटिल समय के चाल।“
बोली उठलेॅ दुर्योधन-तों बेरथ तात डरॅ नै’
भरलॅ छै कुरुकुल वीरॅ में छोटॅ मॅन करॅ नै।
पाण्डव के भभकी सें डरना कायरता के बात;
जनम अकारथ छै कायर के कायरपनी बरॅ ने।
पाण्डव के सबटा योद्धा पर एक कर्ण छै भारी,
भीष्म पितामह, गुरू द्रोण कृप एक-एक अवतारी।
बनवासॅ के दुख सें पाण्डव अलगे छै बलहीन;
छोड़ी सभे छगुन्ता करबै युद्धॅ के तैयारी।
साढ़ॅ होलै विदुर- ”बढ़ेॅ जों अपनेती के हाथ,
टाली देना युद्ध कहैतै बुधियारी के बात।
कायरता नै यै में कोनो ई वीरॅ के काम
युद्ध-घोषणा शोभा छै छ नीति-धर्म के साथ।
सत्य, राष्ट्र, संस्कृति के रक्षा लेली वाजिब युद्ध,
नीति, न्याय शाश्वत मनुष्यता-लेलो वाजिब युद्ध।
युद्ध सही छ सतत धर्म, सतपथ पर आँच हुव जों,
महाराज! नै स्वारथ परता लेली वाजिब युद्ध।
पाण्डव छै तयार बढ़ाबै लेॅ अपनेती-हाथ,
धमॅ के ई ममं निभाना लाजिम ओकरं साथ।
इन्द्रप्रस्थ के राज वापसी सें ही युद्ध टलेॅ जो;
टाली देना युद्ध नीति में सतकर्म के बात।“
तमकी उठलै दुर्योधन बिदुरॅ के बात सुनो केॅ;
पाण्डव दल के पक्षपात बूझी केॅ मर्म गुनी केॅ।
मौन सभा में गूँजी उठलै गरवतॅ हुंकार;
एक-एक के कानॅ में बन-आगिन दाह बुनी केॅ।
”जानै छीयै धर्म मंत्रिवर! जानै छीयै कर्म;
हमरा रुचि नै बूझै खातिर ओकरॅ कोनो मर्म।
कूटनीति बस नीति धर्म हमरॅ राजॅ के अपखा;
डरॅ दबावॅ जें वीरॅ केॅ शोभै नै सतकर्म।
सिंहासन-रक्षा के देलॅ वचन लोक-विख्यात,
आन हुअेॅ तेॅ हुअेॅ सुरुज ने छोड़ेॅ दिन के साथ।
केश तरोथॅ पर पथलॅ पर उगेॅ दूब के बेरॅ;
पाण्डवदल सें कभी मंत्रिवर! नै मिलतै ई हाथ।“
टपकी उठलै संजय- ”नै छै खतरा में सिंहासन,
महाराज तोरे नेहॅ में मनबढुवॅ दुर्योधन।
दृढ़ निश्चय सें पुत्र-मोह केरॅ छै शमन जरूरी;
पसरी रहलॅ छै लत्तड़ रं ईरा-स्वार्थ-कुशासन।
लेॅ चुकलॅ छै जन्म आदमी में विषधर साँपें ने,
करेॅ सकेॅ न काम यहाँ सतपथ के परतापें ने।
महाराज! ई नियम प्रकृति के बड़ा कठिन अनिवार्य;
पैहने छिन्न विबेक करै छै कालॅ के काँपें ने।
वहेॅ काल दुर्योधन के सिर पर सबार बोलै छै,
विषधर नागें ने ओकरे भीतर सें मुँह खोलै छै।
अगला पीढ़ी लेलो कुरुकुल बनतै महा कसाय;
यही कारनें रही-रही मन ईरा सें डोलै छै।
साँपें बच्चा खुदे आदमी ने पीढ़ी केॅ खाय,
सबदिन भूख स्वार्थ के होलॅ ऐले यहाँ बलाय।
आत्मतृप्ति लेॅ जें संस्कृति के साँस-साँस रोकै छै;
निङली लै छे सृष्टि तंत्र केॅ खुद केॅ भलॅ मिटाय।
डर सें उपजै क्रोध साँप में, क्रोधॅ सं आघात;
पहने चाहै, वहीं करैलेॅ फन काढ़ी केॅ घात।
दाँत तोड़ना कट्ठर दिल सें साँपॅ के लाजिम छै;
बैठी जाना पुत्र-मोह में वाजिब नै चुपचाप।
बोली उठलै कर्ण- ”उचित नै छै बीरॅ के काम
युद्ध हुबै सें पैहनै कहना युद्धॅ के परिणाम।
कोन मोल छै जीयै के कायरता घोंट पिबो केॅ?
डरपोकॅ केॅ इतिहासें ने दै छै मोजर-नाम?
छोड़ी केॅ अर्जुन केॅ, ऐहनॅ के पाण्डव में बीर,
कुछुवो काल रहेॅ जे हमरा आगूँ रन में थीर?
भेजै के जमलोक फाल्गुनी केॅ हमरॅ छै साध;
सभैं करै छै महाराज के बल्हौं मॅन अधीर।
अनकीर्त्तॅ सुनला साथें ही बूढॅ सिंह लरजलै,
मानॅ बिजली के झटका पाबी केॅ मेघ गरजलै।
”बैठें तों चुपचाप कर्ण छोड़ी वीरत्व-बखान;
भीष्म पितामह के रुख देखी सौं से सभा सहमलै।
-”राजाँ तेज सुरुज के पीबी राष्ट्र-सूत्र धारै छ,
दिव’समान ऊचॅ आदर्शॅ पर सब कुछ बारै छै।
रोपी गोड़ जमीनॅ में पाबै यथार्थ के बोध;
राष्ट्र-प्रतीक-‘लोक मंगल’ केॅ नितदिन विस्तारै छै।
प्रजा स्वास्थ-खातिर अमृत रं, संचय बल-विक्रम के,
राजाँ करै जुटान बराबर जन लेॅ वैभव-धन के।
तप सें अर्जित तेज-किरण सें छूवै सबके देह;
कोमल हाथॅ सें सहलाबै चिन्तन सबके मन के।
शस्त्र उठाबै राजा ने हरदम अन्याय खिलाफें,
पोरुष केॅ गुहराबं जखनौ उत्पीड़न-परितापें।
दहली उठै परान सुनी केॅ केकरो आर्त्त-पुकार;
या, खोजै परित्राण कहीं दुर्बल असहाय विलापें।
पाण्डव ने सहने ऐलॅ छै सभे तेख-अपमान,
छमा करै लेॅ चाहै सोची कुल के लाज-गरान।
बदेॅ सकै छेॅ कायर ओकरा सब दिन इतिहासें ने,
यै उदारता केॅ कमजोरो में नं करें बखान।
युद्ध-शंख फुकबैया केरॅ ई छेकै आचार,
जीवन, संस्कृति; शुद्ध नीति के पैहने करेॅ बिचार।
गुन-दोषॅ के इतिहासें ने डालै छै दायित्व;
सृष्टितंत्र के ओकर है पर आश्रित छै दारमदार।
आबै प्रलय बिगड़ने जग में पंचतत्व के मान,
युद्ध समाँ घुमड़ै विवेक पर भरियैने अभिमान।
यह संक्रमण-काल-भूमिका सूरज के, राजा के;
अग्नि परीक्षा सें गुजरै, रोकै में शक्ति महान।
वहाँ वीरता में विवेक के पलड़ा होय्छै भारी,
महा-तेज के काम रोकना सर्वनाश तैयारी।
युद्ध-शान्ति पर निर्णय लेना छे राजा के काम,
सिंहासन के साथ सहज मन-जीवन के रखवारी।
”बल विक्रम विराट नगरी में कहाँ पर लॅ छेलो,
सब महारथी के दुगत एक्के अर्जुन सें भेलो?
तखनी की वीरता कहों गेलॅ छेलौ परदेश;
बन्दी दुर्योधन बन में गन्धर्वॅ साथें गेलौ?
पाण्डव ने ही मुक्त करैल्कौ दुर्योधन वीरॅ केॅ,
बिज्जो पड़लॅ छेलो तखनी की तोरॅ केॅ?
गाल बजाना डींग हाँकना पाबै छें आसान;
मत कोशिश कर ध्वस्त कर के कुरुकुल तकदीरॅ केॅ।
भीष्मॅ के बातॅ पर पुलकित द्रोण भरलक हामी,
तिरङी उठलै महाबली अंगेश कर्ण अभिमानी।
”त्याग करैछी सभा अनर्गल काटी सब आरोप;
हम्में सदा रहलियै कुरुकुल के गौरव-हित-कामी।“
तेजो सभा कर्ण ने देॅ दैलकै बातॅ केॅ मोड़,
लहरी उठलै दुर्योधन -आँखी में एक मरोड़।
”करॅ प्रतीक्षा पाण्डव-दल सें कुछ समाद आबै के,
निर्णय लेली तबतक निकलेॅ शायद कोय निचोड़।“
-महाराज के कथनी साथें होलै सभा विसर्जन,
कुरुकुल के भवितव्य बुझी केॅ विदुर उदास मनेमन
दुविधा ने तोड़ा देलकै हस्तिनापुरी के मौन;
काना-फूसी में डुबलै सब घाट-बाट-घर-आँगन।