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Kavita Kosh से
जिस में सारे अपनापे <br>
सुन्न हो जाते हैं <br>
एक पराएपन परायेपन की <br>
चट्टान के नीचे: <br>
प्यार की मींड़दार पुकारें <br>
गुंथी उंगलियों, विषम, घनी साँसों की यादें, <br>
कनखियाँ, सहलाहटें, <br>
कनबतियाँ, <br>अस्पर्श चुम्बन, <br>
अनकही आपस में जानी प्रतीक्षाएँ, <br>
खुली आँखों की वापियों में और गहरे <br>
खिलने-सिमटने की चढ़ती-उतरती लहरें, <br>
काल की गाँस कर देती है <br>
अपने को अपना ही अजनबी-- अजनबी— <br>
हमेशा, हमेशा, हमेशा... <br>
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