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"गीत 10 / तेरहवां अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी" के अवतरणों में अंतर
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प्रकृति में स्थित जन ही उत्पन्न प्रकृति के भोगै
जब तक जीव प्रकृति के संग छै, तब तक शुभ संयोगै।
अपनोॅ गुण के कारण प्राणी
अगला योनी पावै,
कखनों देख मनुष्य
कभी पशु-पक्षी बनि कै आवै,
प्राणी सतसंगति से ही, उत्तम योनी संयोगै।
देह के अन्दर स्थित आतमा
परमात्मा कहावै,
वहेॅ आतमा साक्षि भाव में
उपद्रष्टा कहलावै,
वहेॅ आतमा अनुचित-उचित विचारि केॅ तन उतजोगै।
वहेॅ आतमा धारण पोषण करि
कहलावै भर्ता,
वहेॅ आतमा महेश्वर छिक
वहेॅ आतमा भोक्ता,
वहेॅ सच्चिदानन्द प्रभु छिक, जे सब शुभ संयोगै
प्रकृति के स्थित जन ही, उत्पन्न प्रकृति के भोगै।