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"कृष्ण सुदामा चरित्र / शिवदीन राम जोशी / पृष्ठ 15" के अवतरणों में अंतर

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                     सब हाल कहे प्रभु दर्शाके |
 
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         उस समय रहे बन माहिं दोऊ,
 
         उस समय रहे बन माहिं दोऊ,
                        घबराए मारे वर्षा के |
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                          घबराए मारे वर्षा के |
 
         दिल चिंता बढ़ी गुरूजी के,  
 
         दिल चिंता बढ़ी गुरूजी के,  
                    कारण आंधी के आने से |
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         बिजली की तड़क निराली थी,
 
         बिजली की तड़क निराली थी,
                  और पानी के बढ़ जाने से |
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         एक वृक्ष की ओट में, तुम हम बैठे जाय |
 
         एक वृक्ष की ओट में, तुम हम बैठे जाय |
 
         वर्षा रुकती थी नहीं, लीनी क्षुधा सताय |  
 
         वर्षा रुकती थी नहीं, लीनी क्षुधा सताय |  
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श्री संदीपन गुरु विकल हुए,
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        श्री कृष्ण कृष्ण मुख से टेरे |
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कभी कहें सुदामा बोल बोल,
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          व्याकुल हो हो बन में हेरे |
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तुम कहाँ रैन अंधियारी में,
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          कहीं बहिर वर्षा सहते हो |
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मैं प्रेम विवश यह वचन कहूँ,
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            सर्वत्र प्रभु तुम रहते हो |
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तुम ब्रह्म अनादि अनंत रुप,
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          श्री कृष्ण रुप मन भाए हो |
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प्रभु विद्या जाननहार सकल,
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          यहाँ विद्या पढ़ने आए हो |
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इस तरह गुरूजी हेर हेर,
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          दोनों की वाट निहारते थे |
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न लौटे वन से अभी हाल,
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          ले ले के नाम पुकारेते  थे |
 
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23:17, 25 जून 2016 के समय का अवतरण

        बोले घनश्याम याद है कुछ,
                   जब हम-तुम दोनों पढ़ते थे |
        थी कृपा गुरु की अपने पर,
                     पढ़-पढ़ के आगे बढ़ते थे |
        है बात याद बन में भेजे,
                    सब हाल कहे प्रभु दर्शाके |
        उस समय रहे बन माहिं दोऊ,
                          घबराए मारे वर्षा के |
        दिल चिंता बढ़ी गुरूजी के,
                     कारण आंधी के आने से |
        बिजली की तड़क निराली थी,
                   और पानी के बढ़ जाने से |
         एक वृक्ष की ओट में, तुम हम बैठे जाय |
         वर्षा रुकती थी नहीं, लीनी क्षुधा सताय |
श्री संदीपन गुरु विकल हुए,
         श्री कृष्ण कृष्ण मुख से टेरे |
कभी कहें सुदामा बोल बोल,
           व्याकुल हो हो बन में हेरे |
तुम कहाँ रैन अंधियारी में,
           कहीं बहिर वर्षा सहते हो |
मैं प्रेम विवश यह वचन कहूँ,
            सर्वत्र प्रभु तुम रहते हो |
तुम ब्रह्म अनादि अनंत रुप,
          श्री कृष्ण रुप मन भाए हो |
प्रभु विद्या जाननहार सकल,
          यहाँ विद्या पढ़ने आए हो |
इस तरह गुरूजी हेर हेर,
           दोनों की वाट निहारते थे |
न लौटे वन से अभी हाल,
          ले ले के नाम पुकारेते थे |