भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मौत भी जिंदगी सी हो जाए / देवेन्द्र आर्य" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(new)
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
}}
 
}}
  
पास पास थे चुभे, गड़े।
+
मौत भी जिंदगी सी हो जाए।
  
दूर दूर थे, नए लगे।
+
झूठ और सच का फ़र्क़ खो जाए।
  
  
शहर भी अजीब है तेरा
+
तिश्ना लब के सिवाय कौन है जो
  
भीख दी तो ज़ात पूछ के।
+
सुर्ख अहसास को भिगो जाए।
  
  
अपने ग़म में जल रही है वो
+
पिण्ड तो छूटे वर्जनाओं से
  
जाइए न हाथ सेंकिए।
+
जो भी होना है आज हो जाए।
  
  
रात जैसे लिख रही हो ख़त
+
ऐसे मत मांग हाथ फैला के
  
दिन कि जैसे खो गए पते।
+
हाथ में जो है वो भी खो जाए।
  
  
इश्क हमने इस तरह किया
+
मैं तवायफ़ हूँ, बेहया तो नहीं
  
जैसे कोई सीढ़ियाँ चढ़े।
+
थोड़ी मोहलत दे, बच्चा सो जाए।
 
+
 
+
डिगरियाँ कराहने लगीं
+
 
+
क्या बिके कि नौकरी लगे।
+
 
+
 
+
औरतें कठिन न हों तो मर्द
+
 
+
एक बार पढ़ के छोड़ दे।
+

18:18, 25 मार्च 2008 का अवतरण

मौत भी जिंदगी सी हो जाए।

झूठ और सच का फ़र्क़ खो जाए।


तिश्ना लब के सिवाय कौन है जो

सुर्ख अहसास को भिगो जाए।


पिण्ड तो छूटे वर्जनाओं से

जो भी होना है आज हो जाए।


ऐसे मत मांग हाथ फैला के

हाथ में जो है वो भी खो जाए।


मैं तवायफ़ हूँ, बेहया तो नहीं

थोड़ी मोहलत दे, बच्चा सो जाए।