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"होटों पे कभी जिनके दुआ तक नहीं आती / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर
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होटों पे कभी जिनके दुआ तक नहीं आती | होटों पे कभी जिनके दुआ तक नहीं आती | ||
− | जीने की | + | जीने की उन्हें कोई अदा तक नहीं आती |
− | + | हो दिल का मरज़ दूर भला कैसे कि अब तो | |
− | + | महँगाई को मुफ़लिस पे दया तक नहीं आती | |
+ | मुश्किल से महीने में बचाता है वो जितना | ||
+ | उतने में तो खाँसी की दवा तक नहीं आती | ||
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जिस्मों की नुमाइश ने उसे कर दिया रुसवा | जिस्मों की नुमाइश ने उसे कर दिया रुसवा | ||
− | करनी पे मगर उसको हया तक नहीं आती | + | करनी पे मगर उसको हया तक नहीं आती |
− | + | किसको हैं ज़माने की मयस्सर सभी ख़ुशियाँ | |
− | + | तक़दीर में मुफ़लिस के क़बा तक नहीं आती | |
विज्ञान के आलिम हैं मगर हाल है ऐसा | विज्ञान के आलिम हैं मगर हाल है ऐसा | ||
इस दौर में जीने की कला तक नहीं आती | इस दौर में जीने की कला तक नहीं आती | ||
− | + | पछताएगा, मज़लूम पे ज़ालिम न जफ़ा कर | |
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− | पछताएगा, मज़लूम पे ज़ालिम न | + | |
क़ुदरत की तो लाठी की सदा तक नहीं आती | क़ुदरत की तो लाठी की सदा तक नहीं आती | ||
− | है नाम 'रक़ीब' अपना तभी तो मेरे नज़दीक | + | है नाम 'रक़ीब' अपना तभी तो मेरे नज़दीक |
− | आफ़त का हो क्या ज़िक्र बला तक नहीं आती | + | आफ़त का हो क्या ज़िक्र, बला तक नहीं आती |
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04:28, 4 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
होटों पे कभी जिनके दुआ तक नहीं आती
जीने की उन्हें कोई अदा तक नहीं आती
हो दिल का मरज़ दूर भला कैसे कि अब तो
महँगाई को मुफ़लिस पे दया तक नहीं आती
मुश्किल से महीने में बचाता है वो जितना
उतने में तो खाँसी की दवा तक नहीं आती
जिस्मों की नुमाइश ने उसे कर दिया रुसवा
करनी पे मगर उसको हया तक नहीं आती
किसको हैं ज़माने की मयस्सर सभी ख़ुशियाँ
तक़दीर में मुफ़लिस के क़बा तक नहीं आती
विज्ञान के आलिम हैं मगर हाल है ऐसा
इस दौर में जीने की कला तक नहीं आती
पछताएगा, मज़लूम पे ज़ालिम न जफ़ा कर
क़ुदरत की तो लाठी की सदा तक नहीं आती
है नाम 'रक़ीब' अपना तभी तो मेरे नज़दीक
आफ़त का हो क्या ज़िक्र, बला तक नहीं आती